मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

एक दोपहर की शुरुआत.. - 15 दिसम्बर' 2010


"बस अब इस बहस को विराम मिलना चाहिए", उसने सोचा लेकिन वैसा हुआ नहीं.. जैसा उसने चाहा.. हर दिन की तरह, अल्सुबह की नरमी आँखों में भारती रही, दोपहर का सूरज चटकता रहा और सुरमई शाम का जाता उजाला स्वाद बन जीभ पर तैरता रहा.. जिस बीच कई दिनों से खुद से लापता रहने के बाद मौसम के चेहरे पर खुशियाँ तलाशने में जुटना और इस कवायद में एक स्वप्निल जगह का बनना और ठहर जाना.. सब कुछ के बावजूद खुद को पा लेने वाले अपने ही अंदाज़ में. लेकिन खुद को पाना कभी खुद से लापता रहने वाली लुका छिपी के बीच वाली जगह में अभिवादन और खेद सहित लौटी - लौटाई गयी इच्छाएं ठूस-ठूस कर एक नुकीले तार में पिरोकर टांग दी गयी थी... मजबूत, कमज़ोर, छोटी, बड़ी, इस या उस तरह की.. अब यदि उनमे से किसी एक इच्छा को उतार कर निकलना फिर टटोलने का मन हो तो बाकी को भी उतारना और फिर उन्ही रास्तों, पतझड़ी मौसम की उदासियों की तरह गुज़ारना होता, सच के झूट में तब्दील होता एक पहाड़.. जहाँ तक हांफते हुए दौड़ना, पहुंचना फिर लौटना.. सांसो की आवा-जाही के साथ तार से बिंधी इच्छाओं को उतारना- संवारना... एक कातर नज़र डालना और पलटकर फिर टांग देना उसी बेतरतीब झुण्ड में... शाम होते होते एक चश्मदीद पेड़ मुड़कर सलाम बजाता है, उसकी मजबूत टहनियां हिलती हैं, एक मुस्कराहट दिल से चेहरे तक आती है तेजी से.. इतनी की ऑंखें पनीली हो उठती हैं.. हवा में नमी घुलती है, कोई तेज क़दमों से नज़दीक आता है और अनदेखा किये ही बगल से गुज़रता है.. क्या लौटा जाये यहीं से? अभी इसी वक़्त और समय बीतता है, लौटते हुए बुरी तरह, एक बीती हुई गूंज फिर भी बच जाती है, बिन बटोरी कुछ आहटें मरून पश्मीना में लिपट जाती है, चुभन वाली ठंडक मौसम में हवा के साथ तैरती है.. अपने को बचाने की कोशिश में दोनों बाँहों को क्रास बनाते हुए अपने से लपेटना, नए सिरे से इस दुनिया में अपने को खपाने की निरंतर कोशिश करना और यहाँ-वहाँ लगातार कुछ ना कुछ होना - होते जाना, कोई पूर्णविराम नहीं... मुश्किलों के विरुद्ध कोई जिरहबख्तर भी नहीं, अपनी उदारता में चतुराई से जीना, कितनो को आता होगा ? कितनी चीज़ें खटकती हैं, और कितनी बेखटके स्मृति  के पार चली जाती है, नुकीले तार में अटकती हुई..  एक आरंभिक रंग गाढ़ा होता है फिर फीका पड़ता हुआ नीली धुंध में तब्दील होता है.. कुछ ईमानदार चेतावनियों की दस्तकें साल के अंत की तरह "ठक-ठक" करती चली जाती है, पिछले दिनों की तरह दिन का चलना, थकना और फिर थम जाना... खासा अँधेरा घिर आता है, इन दिनों वैसे भी शाम जल्दी आती है. घर से ढाई किलोमीटर दूर तक, उसे लौटना चाहिए.. एक टूटे हुए चौराहे के सामने सिकुड़-ती हवा के बीच घर का रास्ता देर तक याद नहीं आता, शारीर और आत्मा से बेदखल मन बेहद निरर्थक भाव से ढलान की तरफ बेप्रयास लुडकता है, मन ही मन बच जाने की मंगल प्रार्थनाएं बुदबुदाते हुए, अंतिम अंक.. अंतिम द्र्श्य में एक काला चाँद, काली रात में जलता है.. सिर्फ थोड़ी से रौशनी सन्नाटे के इर्द-गिर्द चकराती फिरती है जो इस बीच इस शहर में दरके हुए बहुत कुछ के बीच अद्रश्य होना चाहती है.. एक कठिन समय में सुनो - जिसे सरलता से नहीं सोचा जा सकता, ना पीछे को आगे, ना बीते को आज, ना वक्र को सरल, ना चुप्पी को कल-कल, ना अँधेरे को रोशन, ना दुःख को सुख, ना दूरी को यहाँ में, ना टूटे को जोड़ने में, सच में तब्दील कर सके ऐसी युक्ति है क्या...?

वक़्त चला जाता है,
वक़्त/ चला गया है/ हर जगह हाजिर था में;
लेकिन/ दस्तखत कही नहीं.. (-श्रीकांत वर्मा)

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

प्रार्थना में ...वो शब्द ,और वो रास्ते जो गढे थे हमने//-

वो शब्द ,वो प्रार्थना ,और वो रास्ते जो गढे थे हमने,
अपने लिए व्यर्थ है ,निरर्थक है ,
अनुभव और स्मृतियाँ चाहे जितनी बार गुजारे ,
उन रास्तों से हमें ,वे शब्द बेआवाज हें ,
सारी प्रार्थनाएं धंस गई है पाताल में ..
हमारी यात्राएं स्थगित हें 
विस्मृति  के किसी क्षण में,
पूरे होते-होते किसी अधूरे स्पंदित समय में ,
ठिठके हुए किसी शब्द -क्षण  या सहमी हुई कोई प्रार्थना ,
भूले से........
किसी रास्ते का पुनर्जन्म संभव हो ---वो लौटे ,
पर हम कहाँ होंगें ,
हम मिले शायद नहीं?शायद हाँ 
उन रास्तों शब्दों ,और प्रार्थनाओं के मौन अस्तित्व में ,

 [में जो देखता हूँ और कहता हूँ -के बीच ,में जो कहता हूँ और मौन रहता हूँ -के बीच ,में जो मौन रहता हूँ और सपने देखता हूँ के बीच, में जो सपने देखता हूँ और भूलता  हूँ के बीच कविता सरकती है - ओक्टावियो पाज ]
ये कविता अहा जिन्दगी ! में प्रकाशित ....बहुत दिनों से ब्लॉग पर कुछ नया लिखना था कई प्रारूप तय्यार भी किये ..लेकिन अंतिम तौर पर फिर  भी कुछ नहीं लिख पाई ....आप सभी को दीपावली की असीम शुभ कामनाएं ...

सोमवार, 30 अगस्त 2010

इन दिनों इच्छाएं, दिन, दुःख, आत्मा, हरी घास और झिलमिलाती रौशनी में...

किसी गहरे दुःख से उबरते ,
उसी दुःख को हांसिल करना होता है,
लौटते -डूबते इस बारिश में ,
एक निर्वासित दिन उम्मीदों  में सर उठाता है ,
इन दिनों - यकायक ...
दूर मैदानों में एकदम हरी घास सुकून देती है ,
जहाँ हवा जोरों से चलती है ,
अंधेरों में देखना उस तरफ ,गाढ़ी आतुरता से 
उन दिनों में, बीते पलों की मौजूदगी में/स्पर्श में दर्ज ,
लेकिन इन दिनों, वक्त की हदों में नहीं मिल पायेंगे हम ,
लेकिन मिलेंगे जब ,पूछूंगी,
इस अश्मिभूत आत्मा में ,
एक साथ जीते हुए- जीते जी,बिसराए जाने और स्मृति के बीच ,
कितना बचेगा कुछ,कोई अपना ,
ऐसा क्या था आखिर जिसे अपना ना कह सके ,
जिसके लिए जिये-मरे अनगिन बार ,
मौसम रखेंगें क्या हिसाब? 
अकस्मात लौटते से, अनकहे-अनमने शब्दों की सतह पर ,
निरंतर आवाजाही से ,
एक गहरी लकीर का खिंच जाना 
लरजते-बीतते मौसमों के साथ 
अव्यक्त दुखों संग आद्र हो जाना,
रौशनी में झिलमिलाते -उन दिनों में ..अपने लिए 
आखिर कितना बचेंगे हम,
हड़बड़ी और इस नाउम्मीद सी दुनिया में ,
अपनी आलोकित इक्षाओं से ऊपर 
कब तक 
इन दिनों ये कहना मुश्किल है   

"खुला था उसके लिए हर द्वार... रौशनी भरे आसमान सा... पर वह उस रौशनी से चुन रहा था अपनी चारदीवारी... " 
(-अमिता शर्मा)

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

एक अधूरी कहानी का पूरा ज़िक्र...

वो गलतफमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहता था ..उसके शब्द भरसक सहेजते हुए भी थरथरा रहे थे ,मानो उन पर तेजी से पानी फिसल रहा हो सब कुछ समझ आ रहा था ..पारदर्शी --पर अब कुछ नहीं हो सकता था उसने तो कहा जो नहीं कहना था ,और कुछ भी तो कहा जा सकता था ---सिवाय इसके जो कहा गया ....उसने उसका एक हाथ थाम लिया और चूम लिया कि मानो अपना सारा प्रेम ,सारा विशवास उस चूमने कि थरथराहट में पिरो दिया हो उसकी दुनिया बदल रही थी एक ना समझ सी समझ की गिरफ्त में था सब कुछ,ये सब कहने करने की भी कई कई रिहर्सल जो बखूबी था और नेपथ्य से लगातार तालियों की आवाजें ...वो समझदार था,समय की नब्ज पकड़ने में माहिर कैसे परिणाम उसके हक में हों ये भी ...सब  कुछ ..लेकिन ऐसे ही उसके सामने ना समझ आने वाली मूर्खता में आँखों को गीली करती हुई चुप सी खडी रह गई लड़की, अपने वजूद में रुई से भी हल्की...
किसी पत्रिका के लिए  कुछ लघु कथाएं  लिखी थी, आधी अधूरी थी, फिर समय निकल गया भेज भी नहीं पाई, इसलिए ताना -बाना पर ही सही ..

शनिवार, 7 अगस्त 2010

अब उसके पास कोई आइना नहीं रहता...


उसके हेंडबेग में एक छोटा सा आइना हमेशा रहता था,जब वो सत्रह साल की थी ...ओवल शेप वाला चारों तरफ से रंग बिरंगी एम्ब्रायडरी वाला, गुजराती ढंग का, बेहद खूबसूरत ,जो किसी रिश्तेदार ने उसे भेंट किया था ..उसमे चेहरा देखने पर एक बार में चेहरे का कोई एक हिस्सा ही फोकस होता था ,सिर्फ एक आँख या कान का निचला हिस्सा ,जब-जब वो इयरिंग्स बदलती पर वो ज्यादातर उसका इस्तेमाल अपनी आँखों को देखने में करती और दोनों आँखों में झाँकने के लिए  उसे बारी-बारी से आईने को हाथ के सहारे ढोडी पर लगाकर देखना होता ...और जब जरूरत होती वो निहार लेती ,उसकी आँखे खूबसूरत थी ,सभी कहते थे ..घर-बाहर पास-पड़ोस दोस्त .उन दिनों  उसे ना जाने क्या हो गया था..कि वो अपनी आँखों को बार बार देखा करती बाद में उसका पर्स बदला उम्र भी और आईने का आकार भी फिर थोड़ा और बाद में, थोड़ा सा और बड़ा आइना उसके पर्स में मौजूद रहने लगा जिसमें उसका पूरा चेहरा दिखलाई पड़े ऐसे आईने कि उसे जरूरत भी थी ये बात अलग थी कि आईने कभी चौकोर थे कभी ओवलशेप  में, तो कभी गोल और कभी षटकोणी जिसमे वो अपनी आँखे निहारा करती और जिस कारण वो   इस दुनिया को पूरी तौर पर देख पाने की काबलियत हांसिल कर पाई ... लड़की अब 34 साल की औरत है ,सत्रह साल बाद भी उसकी  आँखे अब भी उतनी ही खूबसूरत है ,अब उसके पास कोई आइना नहीं रहता, वो खुद रंग-बिरंगे सुन्दर डिजाइन वाले आइने गढ़ती है ..शहरी हाटमेलों में उसके आईने खूब बिकते हें..उसका नाम कस्तूरी था...

सोमवार, 28 जून 2010

ढेर से भय से दूर..जाना होगा कहना- एक प्रश्न का स्थिर होना ,एक खुशरंग परिद्रश्य के कुछ हिस्से जब दुनिया से कोई शिकायत नहीं होती ..//

हीं इस तरह नहीं होना था--एक असमंजस उन आँखों में अटक जाता है,तो फिर कैसे होता?..प्रश्न उलझाता है,..उस शाम का अंत. सोच की कई लहरें एक साथ किनारे आती हुई लौट जाती है, एक में अनेक सवालों की तरह तैरती सी....वो टकटकी बांधे देखता है ...मत सोचो ,मन को भी समझाता है --भला यूं भी कोई मन समझता है ,ये भी तो सोच में शामिल होता है, लेकिन अचाहे,गाहे-बगाहे सोच का बोझिल अंधड़ दिल-दिमाग पर सवार हो ही जाता है ,एक चुप्पी दिल में बजती है ---फिसलती सी उसकी नजरें दूसरे सिरे तक जा कर लौटती है,जहाँ तक आँखें द्रश्यों का पीछा कर सकती है ....इसके बीच खिड़की के शीशे ढलती धूप,और कन्नड़ हाउस की मुंडेर पर फडफडाते कबूतर क्षण भर को सोच के दरिया में कंकर की तरह हलचल मचाते हैं लहरों की छोटी भंवर, एंटीक्लॉक वाईस घुमती है ,फिर लौटना ..कहना ..''तुम्हे खुदा पर यकीन है'' नहीं हठात और जल्दबाजी में मिला जवाब सवाल के साथ ही लिपटा सा टेढा-मेढ़ा हो जाता है जवाब तो होना था '' हाँ ''लेकिन इतना अडिग और जमा हुआ जवाब कि सवाल ही हार मान ले...पिघलने लगे ...उसकी आँखे बोलती है अब कुछ नहीं कहा जाता है तो शब्द थोड़ा जगह बनाते हुए उसकी तरफ आते हेँ ''कहा ना नहीं जानता ''कि किस पर यकीन करूँ ---दोनों के बीच आबो हवा नर्म सी होकर गुजरती है शब्द अंधड़ में उड़ने से बच जाते हेँ ,खिड़की से परे टुकड़ों में छोटे-बड़े पल चक्करघिन्नी खाते हुए, मुझे माफ करें और रिहाई दें ,क्या ,क्या दुबारा कहना सुनना आसान होता ...अचकचा जाना गर्म मोम कि बूंदे दिल कि सतह पर गिरती जमती -उधडती जाती है त्वचा कि सात तहों से होकर नीचे तक जाकर ....तुम्हारी पुकार कानो तक नहीं पहुँचती ..ओह अब चौकने कि बारी उसकी थी,मुझे बख्श दें ,शब्द हेरा फेरी करतें हेँ ,वो काबू पाती है ..असमंजस ,पल, सवाल, समय एक अंधड़ की शक्ल में सतही हो अपरोक्ष से लरजते हेँ,तुम तो हम ख्याल थे ,शायद --पल की चुप्पी सालों में बहती है उसी अँधेरी चुप्पी का एक आइस क्यूब ठंडा, सफेद, पारदर्शी- दर सेकण्ड के हिसाब से पिघलता है,इतना छोटा अंतराल ऐसी जलन जैसी सोची ना गई हो --कोई असर नहीं,कोई ठंडक नहीं कोई राहत नहीं , एक जिद्द में कुछ लहराता है,ढेर सी प्रार्थनाएं चौखट पर खडी बुदबुदाती है...वो दालान वो मुंडेर वो कोना वो सीढियां आकाश ताकतें हेँ ,कोई किस मिटटी से बनता है कोई किस से ....चुप्पी घिसटती सी सर उठाती है ..कोई आतुरता नहीं वहां, कहे गये वाक्य जुड़ते से बड़े वाक्य में तब्दील होतें हेँ...फिर अपने ही बोझ तले किसी गहरी खाई में गिरते ...हुए फिर जादुई ढंग से ऊपर खींचते हुए...ध्यान टूटता है आकाश से एक तारा भी ठीक उसी वक्त मांग लो जो मांगना है----वो रूकती सी शब्दों को समेटती है ,ये क्या ?तारा तो तब तक धरती में समा जाता है... कभी पहले मिला जवाब आज में जोड़ लेना होता है ,एक बियाँबान को गुंजाना ..बांस के झुरमुटों से गुजरते-गुजरते शाम ओझल होना ही चाहती है लगता है उसे रोक लिया जाए,,,बहुत आसान था इस तरह उस शाम के साथ कुछ भी रोक लेना उसकी तरफ देखते हुए ....बाहर नीम की हरी शाखाएं कुडमुडाई उड़ान की कोशिश सतह से ऊपर थोड़ा सही, पैर जमीन टटोलतें हेँ, उठती बंद होती आँखों में चाशनी सी घुलती हुई हर तरह के भय से मुक्त, ढेर से भय से दूर.. मोबाइल में काल्पनिक मेसेज देखना, जाना होगा कहना- एक प्रश्न का स्थिर होना ,एक खुशरंग परिद्रश्य के कुछ हिस्से जब दुनिया से कोई शिकायत नहीं होती ..उस शाम का अंत ..बीतती है शाम चुपचाप ना गिनने में..आती हुई-- तारीखें हर दिन अखबारों की हेडलाइंस के ऊपर ब्लेक एंड व्हाइट फिल्मों की तर्ज पर फडफडाती हेँ

यह शब्द-चित्र जब लिखा गया मालूम नहीं था ... शाम का अंत इस सीलन भरे समय में, आईने से रूबरू शब्द होते हैं जैसे , वैसे ही... शब्दों की उर्ध्व गामी यात्राएं जिन्हें सोचा ही नहीं गया..

गुरुवार, 24 जून 2010

दुःख चिंदी -चिंदी हो गया..//-

दुःख चिंदी -चिंदी हो गया,
पहली बारिश थी ,
बह गया टुकड़ों में ,
छोटी-छोटी नावों की शक्ल में ,
बहता-बहता गल गया होगा
आगे जाकर.या दूर जाकर ,
रूक गया होगा ,
कहीं किसी मुहाने पर जंगल के
बहुत कुछ छूट जाता है,
अक्सर ऐसे ही,बेरहमी से
इस जिन्दगी में
अपने बेगाने
जो लिखा था वो मिट गया
कुछ जिये कुछ शेष रहे .. ,
अकस्मात कुछ आहिस्ता
लेकिन छूटे जो छूट गये

२४ जून २००६ को नई देहली की एक उमस भरी दोपहर --के बाद ----उसी रात कुछ महिला पत्रकारों के साथ हमारी फ्लाईट जर्मनी के लिए थी ..पहले ब्रुसेल्स फिर बाद में बर्लिन तब वहां विश्व फूटबाल मैच हो रहे थे ,तब ये शब्द ख्यालों में थे ----उसी शाम देहली में धूप वाली छिटपुट बारिश भी हुई थी जहाँ में कई सालों बाद अपनी एक बेहद नफासत पसंद दोस्त से मिली थी ...

शनिवार, 5 जून 2010

हमारा पर्यावरण हमारी चिन्ताएं ....हमारी नदिया ...(विश्व पर्यावरण दिवस पर...) //-


ये चित्र और स्लोगन अहिल्या बाई होलकर की पूर्व राजधानी महेश्वर घाट से करीब छ माह पूर्व लिया गया था ....नर्मदा किनारे स्थित इस घाट तक पहुँचने वाली एक संकरी सड़क पर दोनों तरफ की दीवारों पर पर्यावरण जागरूकता को लेकर बहुत कुछ लिखा गया है ..पश्चमी मध्यप्रदेश के निमाड़ जिला खरगोन का यह सुप्रसिद्ध पौराणिक एवं धार्मिक स्थल आज शासन की उपेक्षा का शिकार हो कर रह गया है वर्ष १९९१ को जब पर्यटन वर्ष घोषित किया गया था, तब म.प्र राज्य पर्यटन विकास निगम द्वारा अनेक प्रसिद्ध स्थलों को विकसित करने और उनके रखरखाव की मह्त्वाकांची योजनायें हाथ में ली गई ...उसके अमली करण का लेखा -जोखा तो एक दूसरा विषय है ,फिर भी अहिल्या बाई का खूबसूरत किला आज भी नर्मदा के बीचों बीच से देखने पर अकेला उपेक्षित दिखाई पड़ता है,किले के अन्दर जरूर चहल-पहल है जहाँ रेवा सोसायटी द्वारा जग प्रसिद्ध साड़ियों का निर्माण पावर लूम पर होता दिखाई देता है ....समय-समय पर नर्मदा शुध्धि करण योजनाओं के तहत लाखों रुपया स्वीकृत होता है ,लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात की तरह पर्यावरण की दिशा में ना ही नियमित कोई काम होता है, और ना ही कोई ठोस पहल....
मानवीय पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र समेलन में स्व. इंदिरा गांधी जी ने कहा था की जीवन एक है और विश्व एक है और ये सभी प्रश्न परस्पर सम्बंधित है .जनसंख्या विस्फोट गरीबी ,ज्ञान तथा रोग हमारे परिवेश का प्रदूषण ,परमाणु हथियारों का जमाव तथा विनाश के जैविकीय तथा रासायनिक साधन से सभी एक दूसरे के दुष्चक्र के हिस्से हैं जिनमे से प्रत्येक बात महत्वपूर्ण और ध्यान देने योग्य है किन्तु उनमे से एक एक करके निपटना बेकार होगा .भूतकाल को गले को लगाए रखना या दूसरों को दोषी बताना व्यर्थ है ,क्योंकि हम में से कोई भी निर्दोष नहीं है.यदि कुछ लोग दूसरों पर प्रभुत्व जमा लेते हेँ तो ऐसा कम से कम अंशत दूसरों की कमजोरी एकता की कमी या कुछ लाभ पाने की लालच के कारण होता है .यह समर्धि शील लोग जरूरतमंद लोगों का शोषण करते हेँ ..तो क्या हम इमानदारी के साथ यह कह सकतें हेँ कि हमारे स्वयं के समाजों में लोग कमजोरों कि कम जोरी से फायदा या लाभ नहीं उठाते,हमें उन् मूलभूत सिधान्तों का जिन पर हमारा समाज आधारित है और उन आदर्शों का जिन पर वे टिके हेँ ...पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए यदि ह्रदय परिवर्तन ,दिशा परिवर्तन, और कार्य प्रणालियों का परिवर्तन होता है तो कोई एक संगठन या एक देश ,चाहे उसका आशय कितना भी अच्छा हो ऐसा नहीं कर सकता .प्रत्येक देश को समस्या के उस पहलु को हल करना चाहिए जो कि उसके लिए सर्वाधिक संगत हो. फिर भी ये सपष्ट है कि सभी देशों को एक समग्र प्रयास से एक जुट होकर कार्य करने चाहिए और हमारी ग्लोबल समस्याओं कि सम्पूर्ण व्याप्ति के प्रति पैमाने के आधार पर सहयोग पूर्ण द्रष्टिकोण अपनाने के अलावा कोई चारा हमारे पास नही है ...

अकेली चट्टान ने ,हर क्षण टूटने पर भी ,नर्मदा में खड़े रहकर ,रोकना चाहा ''रेवा '' वेग को ..ओ यशश्वी नदी वह में हूँ .....आज ना सही कल में इस भय को वैसे ही पीछे छोड़ कर आगे बढ़ जाउंगा ,जिस प्रकार नर्मदा का यशश्वी जल सब कुछ छोड़ता हुआ प्रवाहमान है ....श्री नरेश मेहता के उपन्यास ''नदी यशश्वी है '' से ...

दिसंबर २००९ में महेश्वर [इंदौर ] यात्रा के दौरान लिए गये चित्र...

शुक्रवार, 28 मई 2010

पलाश के जंगल की तरफ देखो तो मानो आग लग गई हो ,पलाश फूलता है तो खूब दुःख देता है दर्द के साथ ,सारे फूल झड कर जमीन पर गिर बिखर जाने में अपना माथा धुनक कर रह जाते हेँ,.पलाश का जंगल अब घना नहीं रहता //-


बहुत दिनों तक हलके नीले आसमान से उसे चिढ होती रही ..जब थी तब थी लेकिन अब नही ,ठीक जिसके नीचे एक पलाश का एक जंगल था उसका ...और स्मृतियों में अंटती हुई एक उनींदी शाम तेजी से घनी होती हुई ,जहाँ से दिल दिमाग उसे जंगल की पथरीली राहों संग झुलसा देने वाली गर्मी के साथ गुजारता -हर दिन रेशा-रेशा रीतता हुआ -दिनों दिन उन दिनों अनगिन चेहरों की भीड़ लगातार घटती बढती रहती जंगल कुम्हला रहे थे वहां दुनिया कगार पर थी एक निचाट में सब कुछ छूटा हुआ हाथ से हाथ भी .
भाषा की कशीदाकारी उसे खूब आती है,फिर भी सीधे से जवाब नहीं मिलता ,उसे उब होती,ग्लानी और कभी-कभी वितृष्णा भी ऐसे में हमेशा एक निर्णायक स्थिति में पहुँच जाना लेकिन जाने क्यों फिर पीछे लौटना होता वो ,एक अहम् पल होता..जिन्दगी तेजी से बदलती है गोल-गोल चक्कर घिन्नी खा कर,लडखडाते पांवों को यहाँ वहां रोकते-रोकते स्थिर करना ..घूमते हुए सर को दोनों हाथों से थामना तब कुछ भी अख्तियार कर पाने की स्थिति देर तक नहीं बन पाती ..लम्बी-लम्बी फूली हुई साँसों के साथ ..एक नीले फूलों वाली घेरदार फ्रौक का घेरा देर तक आँखों में घूमता है ,तब खेल था अब नहीं ..तब सच था ,अब झूट ...एक अजीबों गरीब तरह के तेवर दिमाग को उलझाए रहते .....पलाश के जंगल की तरफ देखो तो मानो आग लग गई हो ,पलाश फूलता है तो खूब दुःख देता है दर्द के साथ ,सारे फूल झड कर जमीन पर गिर बिखर जाने में अपना माथा धुनक कर रह जाते हेँ,.पलाश का जंगल अब घना नहीं रहता ,और स्मर्तियाँ साफ होती जाती है,दूर के द्रश्यों से गठजोड़ करती सी कई शब्द,कई स्पर्श ,छूकर लौटते हेँ ....शहद में घुलते..रंगों में डूबते इतने मीठे इतने गहरे की यकीन ही नहीं होता ---रेशमी चाँद की पीली रौशनी लगातार समानांतर चलती और यकायक भूत की तरह गायब हो जाती. हम पूछ्तें हेँ एक सादा सा सवाल,कहाँ है हमारी जगह और उसकी नजरें सिमट जाती है .उसी के चेहरे पर,ये क्या ? हठात ..आलतू-फालतू सोच ले बैठी--सोच का बोझिल उहापोह -वो इसमे लथड़ना नहीं चाहती ..कुछ पल को कुछ चेतावनिया ..असाध्य को साधने की कोशिशें करती है ,और एक असमंजस से बाहर निकलने में सहायक भी जो जुड़ाव था ,आकर्षण था ,आदर्श था ,प्राप्य था, प्रिय था ----भीतरी -भीतर को उलट देना चाहता है रत्ती-रत्ती खुरच देना नहीं उससे ऐसी या यूँ उम्मीद नहीं थी नहीं ऐसे में भला कोई उम्मीद हो भी कैसे सकती है ....कितना कुछ आँखों में महकता है ,छलकता है..खोया हुआ समय मुठ्ठी में आजाता है, इस आद्रता में निजता देख पाना और भी मुश्किल ...एक परफेक्शनिस्ट अहंकार की मौजूदगी में अनगिन इक्छाओं की प्रत्याशा में दिन रात का घुलते जाना ..पानी में नमक सा ..ऐसा कैसे चलेगा ...इश्वर जानता है पाप-पुण्य.सच झूट बीते -आते समय के साथ एक नितांत अतार्किक यथार्थ बच जाता है वर्तमान तो बीत ही जाता है,जिसके साथ उचाट हो कुछ और भी बीतता है ,बहुत कुछ दरकिनार होता है अस्थिर चाल से एक फीके चेहरे से बनावटी मीठी हंसी उसे उस घनीभूत आयात में कसती है दम घुटता है इतने बड़े झूट से ....एक निर्विकार -आकार में बदलता है मनुष्य के भीतर देवता व्यर्थ होता है समीकरण गड़बडाते हेँ ,एक तस्वीर में दिन रात, आसमान ,तारे चाँद और एक पल गैरहाजिर होतें हेँ बहस ख़त्म बस,अब अदालत मुल्तिबा की जाती है ...

बहुत पहले एक कहानी का प्रारूप लिखा था, कोशिशों के बाद भी पूरी नहीं हो पाई ...कभी हो शायद ये कहानी की शुरुआत नहीं ,कहीं बीच का टुकडा है शुरू और अंत अभी सूझा ही नहीं ..दुःख तो पकड़ में आता है लेकिन सुख नहीं यदि अंत सुखद नहीं हुआ तो जीवन तो व्यर्थ गया ना ..बस इसी लिए ... ...लेकिन अभी ज्यो की त्यों ..


सोमवार, 17 मई 2010

जलती-बुझती रोशनियों का एकालाप... एक माँ के दिल से... //-



ये एक बात बचपन से सुनती आई हूँ, मेरी नानी कहा करती थी, फिर माँ और जब में खुद एक 18 साल की बेटी की माँ हूँ तो अनायास मेरे मुँह से भी कभी-कभार ये निकल ही जाता है - "तुम (ये) लड़की क्या निहाल करेगी..!!"... लड़कियों से माँ को ही सबसे अधिक अपेक्षा होती है, वो सोचती हैं लड़कियां खाना बनाये दूसरे इतर काम भी करें, यदि छोटे भाई-बहन हो तो उनकी देखभाल और साथ ही उनकी दूसरी ज़रूरतें भी पूरी करें, और यदि लड़की थोड़ी बड़ी हो तो पिता-भाई के हुक्म पर भी दौड़ी-दौड़ी फिरे... मेरी माँ और नानी दोनों एक ही सुर में कहती थी - "एक औरत को एक पल भी होश खोये बगैर जीना चाहिए... चाहे वो सो रही हो, हर पल चौकन्ना और चौकस उसे होना ही चाहिए..."... और भी न जाने किस-किस तरह की हिदायतें... ये पहनो, वो खाओ, ऐसे नहीं वैसे, वो नहीं ये, यूँ नहीं इस तरह... और ऐसी कई बातें जो प्रसंगों की तरह जीवन में जुडती गयी, और जो आज भी याद हैं... कुछ बातें सुनते थे, कभी बगावत भी करते थे - ये बात अलग थी की हमारी बगावतों का वहां कोई असर नहीं होता था! परिवार में उनके हुकूमतों के साथ ही उनके छोटे-बड़े संघर्षों की हिस्सेदार अनायास बेटियां भी होती जाती हैं. नानी अनपढ़ थी किन्तु दुनिया-दारी के पाठ में अव्वल और पारंगत... माँ उस ज़माने की graduate , मेरी नानी 12 घंटे रसोई में खपती थी, माँ आठ घंटे - जिसमे उनके पूजा-पाठ और नोवेल्स पढना भी शामिल था और में अपने किचिन को बमुश्किल सुबह-शाम मिलाकर चार घंटे भी नहीं दे पाती हूँ, अब अपनी बेटी से क्या उम्मीद रखूं? एक हद तक उसकी नूडल्स, बर्गर, पिज्जा की दुनिया है, जिसमे कंप्यूटर, चैटिंग, कॉमिक्स, नोवेल, म्यूजिक (इंडियन / वेस्टर्न दोनों), दोस्त, पढाई भी शामिल है... यह सही है वो रोजाना काम में हाथ नई बंटा पाती लेकिन आकस्मिकता में पूरी तौर पर किचिन में साथ होती है... अक्सर मेरे पति भी कहते है - "तुमने इसे कुछ नहीं सिखाया!". हमारे दूसरे परिवारों में माँ के साथ फुल-टाइम काम करने वाली लड़कियों के उदाहरण और ताने भी सुनने पड़ते हैं... "वो देखो , इतनी पढाई कर रही है, तुम्हारी लाडली सो रही है!".. अब में उनसे क्या कहूँ? एक लड़की की लाखों बेचैनियाँ हो सकती हैं... उसे खुद अपनी तरह से बड़ा होना और इस दुनिया में अपने कायदे करीने से जीना भी तो ज़रूरी है. मन ही मन कहती हूँ, "सुनो! कई चीज़ें है जो लड़कियों के जीवन में बदलनी है.", लेकिन इस बदलाव में कई ताकतें रोड़ा बन जाती हैं... सबसे पहले घर से ही इसकी शुरुआत होती है और उसे हम अनदेखा किये जाते हैं.
अभी जैसे कल की ही तो बात है, छोटी सी थी.. गोद में लिए न जाने कितने काम निपटा लेती थी मैं, कई बार ज़िन्दगी तेजी से बदल जाती है, इतनी कि अजीब किस्म का डर लगता है और हम भौंचक रह जाते है - एक अपराधबोध में घिर जाते हैं... क्या वाकई एक अच्छी माँ बनना मुश्किल है? अपने आप से प्रश्न होता है... अपने बचपन की ओर पलटती हूँ तो कोई बंधन नहीं था बस हिदायतें मिलती थी, ज़बरदस्ती नहीं होती थी... लेकिन नानी, माँ,पिता, बड़े भाई की निगरानी में उनकी मर्जी से सबकुछ सटीक हो जाता था, लेकिन अब हम अपनी कई इच्छाओं की तरह किसी दूसरी इच्छा को भी असंभव मान लेते हैं और इसी असंभव में खो या डूब जाने तक अपने सच को नैस्तानाबूत करके ही दम लेते हैं... और ये सच है अब भी हमारे परिवारों में, समाज में जिस लड़की/स्त्री को रोटी-खाना बनाना ना आता हो वो सुघड़ नहीं मानी जाती. अक्सर जब मेरी बेटी की तुलना परिवार वाले उसकी कज़िन बहनों से करते हैं, मुझे खुद यह सब ठीक नहीं लगता क्योंकि मेरी बेटी वक़्त ज़रूरत खाना तो बना ही लेती है लेकिन साथ ही वह कंप्यूटर संबंधी, बैंक, बाजार, बिल्स आदि कामो के भुगतान के साथ ही दुःख, बीमारी और दूसरे अन्य तकनिकी कामों में भी मेरी मदद कर पाती है... इस मायनो में वो अन्य लड़कियों से तो प्लस हुई,लेकिन उसे मान्यता नहीं मिलती... हमारे यहाँ औसत भारतीय पढ़े -लिखे परिवारों में भी खाना बनाना ही सब कुछ माना जाता है...
स्त्रियों के जीवन में कुछ काम नैसर्गिक होते हैं और मुझे लगता है उन्हें सीखने में कोई तुक नहीं. मेरी माँ ने हमेशा पढने पर जोर दिया, बुनाई-कढाई सीखने के विषय में उनका कहना था - "ये सब यूँ ही पैसों में मिल जाता है.. पर समय नहीं मिलेगा, इसीलिए पढो!".. सच ही है अशिक्षा ही स्त्री के दुखों का कारण है, स्त्री को यदि स्टैंड करना होगा तो उसे पढना ही होगा.. थ्योरी / प्रक्टिकल/ टेक्नीकल सभी कुछ... अपनी बेहतरी के लिए स्त्री को एक बार चीन की तरफ देखना होगा, वहां स्त्री व्यक्ति रूप में जीवित है और अपने स्त्री होने की सीमा तक स्वतंत्र भी है.
शक्ति, सत्ता और वैभव की इस दुनिया में कोई लड़की बाद में स्त्री बनी एक औरत इस दुनिया द्वारा पहले से रूढ़ बना दिए गए निष्कर्षों में ही आखिर क्यूँ जिये -मरे? ताकि उसे खुद लगने लगे की संतुलन बिगड़ा की सब कुछ बिखरा... परम्पराओं से जड़े कट्टर लोग ही नहीं अपितु पढ़ा-लिखा प्रबुद्ध वर्ग भी, आज भी लड़कियों को स्केल, तौल या मीटर से नापते हैं... जैसे उनकी ज़िन्दगी जीने के पैमाने होते हैं, और आप पर भी आसानी से ऊँगली उठा देते हैं, आखिर क्या सिखाया अपने अपनी बेटी को. लेकिन कोई नहीं समझता एक लड़की की आकांशा स्वप्न और उसके भय को स्वीकार करना भी तो ज़रूरी है... कौन जानेगा माँ के पुराने दिल में,बेटी के दिल की ताज़ी धड़कन... क्या ज़रूरी है वो इस समाज-परिवार की मूक प्रतिछाया बनी रहे, बिना कोई प्रतिकार के, पर- दुःखकातरता को सहेजे रहे, एक निशब्द समर्पण जीवन जिये.
मुझे कभी-कभी तेजी से हिचकी आने लगती है... कहते हैं कोई याद करता है तो ऐसा होता है, सात घूँट पानी पी लेने पर हिचकियाँ आप ही बंद हो जाती है, तो कौन याद करता है? किसने याद किया होगा? पिता, भाई, माँ, बहन, छूटा हुआ कोई, कोई दोस्त, कोई परमप्रिय... जाने कौन? एक बार घर-बार छूटा तो बस छूटा, लड़कियों का... बस ऐसा ही झूठा सच जीना होता है, फिर ऐसे में क्या ज़रूरी है ताउम्र, अपनी बेटी के लिए माँ से बेहतर कौन जान सकता है..? अपनी नियति उसे खुद बदलना और निर्धारित करना सिखाना, दुःख के निराकरण के लिए सिर्फ आंसू बहाने की बजाये किसी आपात स्थिति में अपने हिसाब से द्रढ़-हो नियम बनाना, बेशक कोई नियम गड़-बड़ भी हो जाये तो हर्ज क्या है? इतनी बड़ी ज़िन्दगी में दस-बारह फैसले गलत भी हो जाएँ तो आगे आने वाली बड़ी मुश्किलों में वो सहायक ही होगी, एक अच्छे के निमित. मुझे लगता है मेरी बेटी ही नहीं हर लड़की परिवेश की गहरायी में ईमानदार बने रहने मात्र से ही सब कुछ सीख सकती है साथ ही कोरी भावुकता की बजाय प्रेम के घनत्व का महत्व भी समझ सके, बस इसके लिए थोड़ी सी कोशिश करनी ज़रूरी है, अच्छे और बुरे की पहचान करना सीखना भी... आज हर दिन बदलती और नई आयातीत तकनीक और उपभोगतावाद के खतरों और हादसों में जीने-मरने की आदत डालना भी ज़रूरी है, और अपने सामाजिक सरोकारों को भी सुनियोजित करना ज़रूरी है.
मेरी माँ जो व्यंजन बनती थी उनसे बेहतर चाहे मैं नहीं बना पाती हूँ लेकिन उन जैसा मैं भी बना लेती हूँ, घर की साज-संवार, देख-रेख... एक जरुरत और जिम्मेदारी के साथ निभाती हूँ... मेरी बेटी मेरे से बेहतर चायनीज/थाई फ़ूड बना लेती है, तो इसमें कमाल क्या है... मैंने अपनी माँ से सीखा और आज मैं अपनी बेटी से थोड़ी बहुत नहीं, ढेर सी चीज़ें सीखती हूँ, वो कहती है - "सब कुछ आसान है 'माँ'... नेट खोलो, रेसेपी नोट करो, सब कुछ तैयार फटा-फट...", यही सही है, जब चित्त हो; समय हो; कोई मुश्किल ना हो, तभी कुछ बने तो स्वादिष्ट बनता है, और फिर दो माह बाद वो इंजीनियरिंग के लिए अमेरिका चली जायेगी.. जीवन की एक संतुष्ट हंसी और बेफिक्री की दुनिया से दूर तो उसके लिए क्या ये ज़रूरी नहीं है की जो उसे पसंद नहीं- उसका वो मुखर प्रतिरोध कर सके.. आज वो अपने लिए जीना सीखेगी तभी तो कल दूसरों के लिए जीना सीख पायेगी...

बुधवार, 12 मई 2010

काश कोई महसूस करता, मेरे शहर के तालाब की फैली....//-

काश कोई महसूस करता ,
मेरे शहर के तालाब की फैली ,
सीमातीत थरथराहट ,
और मरी हुई -बेजान पत्तियों की ,
लगातार कसमसाहट .
डोंगियाँ चली जाती है ,
इस पार से उस पार ,
अपने विकृत अस्तित्व तले ,
मरी हुई पत्तियों को ओर मारते हुए ,
और छोड़ जाती है ,मौन तालाब के अंतर पर ,
क्षण दो क्षण की हलचल ,
काश कोई महसूस करता ,
फिर वही लम्बी चुप्पी ,
और परत दर परत चढ़ती सी ,
प्रकम्पित उदासी ,
काश कोई महसूस करता .....
अपने कॉलेज की पत्रिका ''अभिव्यक्ति'' में प्रकाशित [१९८०]भोपाल के बड़े तालाब के किनारे बेहद खूबसूरत जगह बना एम्.एल बी कन्या महाविधालय जहाँ हम सभी दोस्त बैठकर ग़प- शप्प करते थे ...जिसके दूसरे छोर पर गर्ल्स होस्टल था ...और वहां रहने वाली ..लड़कियां
क्लासेस ख़त्म होने के बाद ..कॉलेज की बोट से ही उस पार जाया करती थी ...बेहद सरल और खूबसूरत उन दिनों की बात ही निराली थी ...

शनिवार, 8 मई 2010

उदास गीत नहीं था उनके पास... जब्बार ढ़ाकवाला... एक श्रद्धांजलि... //-

कल जब inside news से खबर आई, जब्बार ढ़ाकवाला नहीं रहे, उनकी गाडी एक खाई में गिर गई... यह महज खबर नहीं थी मेरे लिए, कभी कभी शब्द भी दुखों को पकड़ नहीं पाते हैं, यकीन नहीं हुआ... अपना अकेलापन खोये बगैर जो व्यक्ति अपनी कविता में बना रहा, जीवन के राग-विराग में एक साथ डूबे हुए उनसे परिचय मध्यप्रदेश के वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी होने के नाते ही नहीं रहा... दो वर्ष पूर्व दुबई में समकालीन हिंदी साहित्य सम्मेलन में उन्हें अधिक जानने का मौका मिला... जीवन के प्रति गहरी आस्था के साथ जीने वाले ढ़ाकवाला जी बस एकाध साल बाद अपने होने वाले रिटायरमेंट के बाद कविताओं और पेंटिंग पर काम करना चाहते थे ,एक सार्थक कल के लिए जीना चाहते थे .
उन्होंने मुझे कहा था ...इस नौकरी और इसके ताम-झाम में, मैं अपने को अजनबी सा लगता हूँ एक अध्यात्म का अनासक्त भाव था उनमे ..फिर दो चार मुलाकातें हुई ...हाल ही में उनका विभाग बदला ,शायद परिवर्तन उन्हें रास नहीं आया -पूरी दुनिया घूमने की चाहना रखने वाले भाई जब्बार जी जब हमारे साथ दुबई की एक गोल्ड शाप से बाहर निकले तो मैंने पूछा..क्या खरीददारी की आपने ...तो उन्होंने अपनी कलाई को मोड़ कर हाथ में पहनी हुई चमचमाती घडी को दिखा कर कहा ...समय को निरंतर पीछे छोड़ने वाली --टिक-टिक, और वे जोरों से खिलखिलाए ---उनकी हंसी उनके व्यक्तित्व की शान थी, दुबई-अबुधापी में उनके साथ बिताये दिन अविस्मरनीय है बाद में भोपाल में उनके आवास - चार इमली पर कविता और चित्रकला पर चर्चाएं, लेकिन लम्बे सफ़र में, मील की पत्थर सी छूटी उनकी बातें... यादें... लगता तो है, वह लौटेंगे... लेकिन चाहने - सोचने से सब कहाँ संभव होता है?...
"उदास गीत नहीं हैं उनके पास" - उनका पहला कविता संग्रह जिसके प्रथम पेज पर उन्होंने लिखा है - "प्रिय विधुल्लता को सप्रेम - जब्बार"... फिर उनके हस्ताक्षर हैं, यक़ीनन ये लिखा हुआ, पढते हुए आज दुःख व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई सटीक शब्द भी नहीं है... अगले पेज पर उन्होंने किताब को अपनी पत्नी - "तनु" को समर्पित किया है... दो शब्द जो मुद्रित हैं, वह लिखा है - " तनु जी , जो जीवन के साथ जुडी हुई हैं... मादक संगीत की तरह..." नियति ने बड़ी तटहस्थता में सहज उन्हें मृत्यु के साथ भी जोड़ दिया... इस संग्रह में बस्तर और बस्तर के जंगल, और लोक संस्कृति के बारीकी से आत्मसात किये गए अनुभव हैं... "कविता को वे स्वयं को संवेदनशील और अच्छा इन्सान बनाये रखने वाला औजार और जीवन के प्रति विस्श्वास बनाये रखने की कला मानते रहे हैं..."
रायपुर - मध्यप्रदेश में 15 दिसम्बर 1955 को जन्मे जब्बार जी मूलतः गुजरात के कठियावाढ़ के मेनन .. पूर्वजों के गाँव - "ढांक" के नाम पर "ढांकवाला" कहलाये... आरंभिक शिक्षा गुजरात में, बाद में रायपुर - रविशंकर विश्विद्यालय से, एम.ऐ. राजनीती शास्त्र में तथा एल.एल.बी. दोनों में स्वर्ण पदक प्राप्त... 1976-1980 राजनीती के व्याख्याता रहे, 1980 में राज्य प्राश्निक सेवा में चयन, पूर्व में अपर कलेक्टर - भोपाल, 1991 से व्यंग्य एवं कविता में लेखन, 1995 में व्यंग्य संग्रह - "बादलों का तबादला" जो की राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित..
ज्ञान चतुर्वेदी जी ने उनके विषय में लिखा है - "एक प्रशासनिक अधिकारी को जीवन का नरक और सुविधाओं का स्वर्ग एक साथ देखने, महसूसने और भोगने का अवसर मिलता है... उनकी कविताओं में एक संवेदनशील अफसर की तड़फ नज़र आती है...जो हाथ में तथा कथित हथियार होते हुए भी इस धरती पर पल रहे जीवन को बदल नहीं पाता."
और यह सच है, कविताओं में सहजता उनके व्यक्तित्व का सच है... शायर डॉक्टर बशीर बद्र ने, नकी पुस्तक के फ्लेप पर लिखा है - "वे मनुष्यता के विरोधियों पर जिस तेजाबी ढंग से आक्रमण करते हैं, उससे उन पर फ़िदा हो जाने को दिल करता है... उनकी शैली दिलफरेब है... आस्था और विश्वास से रची-बसी उनकी नज्मों की तहरीर की आत्मा ज़िन्दगी का एहतराम है... उनकी नज़मो में एक साथ फूलों की ताजगी, गहरा तीखा तंज और करुना का अथाह दरिया है."
उनकी एक बेहत चर्चित रही कविता - "इरान में औरत अब गाना गा सकेगी..." , जिसे उन्होंने मेरी पत्रिका "औरत" में प्रकाशित करने को कहा था, और मैंने कहा था मध्यप्रदेश के लेखक-कवि आई.एस. अधिकारीयों की रचनाओं पर एक विशेषांक निकलने का मेरा इरादा है, जिसमे इसे प्रकाशित करुँगी. जिसकी अंतिम पंक्तियाँ इस तरह है - "चलिए इरान की नस्रीम बेगम का गाना सुनने... औरत का गाना, खुदा की बेहतरीन नेमतों में से एक है..." उनकी पूरी कविता फिर कभी, लेकिन अब हम उन्हें कभी नहीं सुन पाएंगे... अक्सर किसी के चले जाने के बाद कहे जाने वाले शब्द... वाकई वो याद आएंगे... हाँ जरुर,... तहे दिल सेयही दुआ है खुदा उनकी रूह को सुकून दे.

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

वो चीजें जिनके बीच ठिकाने बनाए गए उन चीजों के बीच चीजें द्रश्य रचती है, और पिघलती है .इक्छाओं के उच्त्तम तापमान पर , मौसम यूँ चीजों की शिनाख्त करता है//-



वो चीजें जिनके बीच ठिकाने बनाए गए
उन चीजों के बीच चीजें द्रश्य रचती है,
और पिघलती है .इक्छाओं के उच्त्तम तापमान पर ,
मौसम यूँ चीजों की शिनाख्त करता है ,
और बुरा है यूँ उनकी पवित्रता भंग करना ,
दुर्दिनो में बेतरतीब सा है चीजों का चरित्र ,
बेमतलब रुझानो में बदलता, बेवजह जगह घेरता ,
अकल्पनीय-अविश्वसनीय ,अपनी अनुपस्थिति में भी ...
चीजों के बीच निर्विकार चुपचाप बैठा वक्त ,...
एक मुकम्मिल ग्राफ पूरा करता है ,
और पार करता है अपना वक़्त चीजों के बीच ,
सतह से उठता ,नीचे गिरता, बढ़ता..अंत में जिग -जैग सा,
कभी-कभी मियादी बुखार सा
कभी -कभी चीजें एक दूसरे की तमाशाई हो जाती हेँ
और हंसी आ जाती है एक सुनहरी बूँद आंसू भी,
कुछ बातें रुकते-रुकते भी हो जाती है
जब कुछ नहीं था हमारे पास तुम्हे देने को, सिवाय अपने,
.किसी नदी के गहरे जीवन में उतर जाने की मानिंद
चीजों के बीच बहुत सी चीजें जमती जाती है, पर्त दर पर्त,
जिनमे शामिल है, उस छोर तक चलना-आकाश को छूना
चीजों से संवाद---चीजों से प्रेम,
सिर्फ वहाँ चीजें नहीं है ,ना थी
घर ,टेबिल दीवान कुशन पर्दे दीवार से सटी मूर्तियाँ ,
हवा में तैरता एक अहसास
हाय- ब्रीड चम्पा के सफेद फूलों से भरा गुलदान,
चाय के खाली कप ,मुग़ल पेंटिंग,और वो चौकोर आइना ,
जिसमे ठीक पीछे कोई दूसरी शक्ल उभर कर ठिठक गई है
संवाद की अंतिम सीढ़ी पर
अनुभव हीन ,वहाँ सिर्फ चीजें नहीं थी ,
आजकल इंस्टेंट --जहाँ ..वो चीजें लगातार ,
जल्दी-जल्दी खानाबदोश शक्लों में बदलती जा रही है

जब कोई मिलता है तो अपना पता पूछता हूँ .. में तेरी खोज में तुझसे भी परे जा निकला... (मुज्जफर वार्सी)

रविवार, 28 मार्च 2010

देखना लौटती डोंगियों को जिनके आवारा मस्तूलों पर हवा के थपेड़ों ने जर्जर शब्दों में कुछ लिख दिया है .इस मायावी-दुनियावी का शायद कोई गीत ...

पतझर कि उमस भरी सुबह में एकाध दिन ऐसा भी होता है ,...यही की एक छोटी सी जगह में दो तीन शब्दों से बना एक नाम अपने तपे हुए रंग में घटित होता हुआ दिखाई देता है,एकदम अनुतरित ,गुपचुप अपने मौन में ,अपनी यात्रा से उबा हुआ,थका सा ,आरोह-अवरोह में लेकिन किसी पूर्व राग के अनहद में गूंजता हुआ.उन्मुक्त इक्छाओं के आकर्षण से विमुक्त -----बंद खिडकियों के खुलने का इन्तजार करता सा मानो एक भी खिड़की खुली नहीं की वो झट से चोंच में तिनका लिए चिरैया की तरह खिड़की की मुंडेर पर जा बैठेगा ....सोच ही काफी है ,थोड़ा ठंडी हवा,थोड़ा ख़ुशी का कतरा नजदीक होकर गुजरता है तारीखें बदलती है ,दस्तकें देती है ,कुछ पल को, पल भर का सन्नाटा अपनी जद में लेने की जिद्द करता है ..निजी वजहों से बिछुड़ते पल तहखानो/तिलिस्म में कैद हो जाते हेँ, एक इतिहास की यात्रा में ,स्मृति में एक हंसी गूंजती है... ढेर से खिलने वाले फूलों के दिन मामूली ख़ुशी दे पातें हेँ पीले फूलों की भव्यता के साथ लदा-फदा तेबुआइन खिलखिलाता है ...खुशियों के समानांतर और स्मृतियाँ मथती हेँ ,आम के कच्चे पत्तों की तूरी सी खुशबू पोर-पोर में बजती सी सन्नाटे को चीरती है बेखौफ चटकता है बहत कुछ,और कुछ घुलता भी है,कुछ मिलता भी है कुछ निरस्त तो कुछ को विलोपित करना होता है .....हाथों की नमी लकीरों में छिपने का ठिकाना ढूँढ लेती है आद्रता की लम्बी लकीर सी उनींदी प्रार्थना सुन ली जाती है ...खुशी कुछ पल को ठहर जाती है ...तट पर बंधी डोंगियाँ कसमसाती है तट छोड़ लहर संग बीच भंवर डूब जाने को आतुर अब ये जानना जरूरी तो नहीं की कुछ मिल जाए तो कुछ ना कुछ छूट भी जाएगा ...अपनी ही जिरह मुश्किल में डालती है --सच और सच के सिवा कुछ नहीं ....स्मृतियों के भरोसे यातना शिविर से बाहर आना ..वर्जित क्षेत्र में अपनी पहचान खोना --एक हठ भरी कोशिश जीत के भरोसे हारी गई लड़ाई ..एक पार्थिवता गलती ही जाती है,पहुंचाती है भीतरी हदों तक, सुनो कहती हूँ,बची हूँ बेछोर आसमान में -बियाँबान जंगलों में, हर, सुनवाई स्थगित है एक राग, एक रंग, एक प्रियता हरदम बुलाती रहती है फूले-खिले टेसू के रंगों में ...जहाँ अभी-अभी पेड़ों की टहनियों पर थोड़ा कोमल नन्हे पत्ते उगना शुरू हुए हेँ कुनमुनाती इक्छाओं से एक रूंधता हुआ शब्द बाहर आता है ,जिससे दूर है बहुत कुछ मसलन मन्त्र -म्रत्यु तर्पण हार जीत स्मर्ति और बहुत कुछ टूटना-जुड़ना अचिन्हित ...कोई स्मृति भूलती नहीं, कोई स्पर्श छूटता नहीं.. बिना सलवटों सारा क्रम टूटता जाता है एक दस्तावेजी द्वैत भाव अक्सर जिला देता है, इस उमस में भी कोई खिला फूल देखना किसी भीगी चिड़िया को बार-बार पंख झाड़ते हुए देखना स्मृति कक्ष में दर्ज हो जाता है, ढेर से तर्कों के उष्मा भरे उजलेपन के साथ , बावजूद ये मौसम बीतेगा जरूर अपने एकांत और बाहरी शौर से उपजी एक तरंग एक घटना जिसके तारतम्य में विनिर्माण को गूंथना ,और देखना लौटती डोंगियों को जिनके आवारा मस्तूलों पर हवा के थपेड़ों ने जर्जर शब्दों में कुछ लिख दिया है .इस मायावी-दुनियावी का शायद कोई गीत...

अक्स ऐ खुशबू हूँ बिखरने से ना रोके कोई,और बिखर जाऊं तो मुझको ना समेटे कोई
यह क्या की में तेरी खुशबू का जिक्र सुनू,तू अक्स ऐ मौजे गुल है तो जिस्म ओ जाँ में उतर ...
(स्व.परवीन शाकिर मेरी पसंदीदा मशहूर शायरा)

बुधवार, 17 मार्च 2010

इन दिनों सेमल के पेड़ पर ... //-


वो अपनी चुप्पी में मगन है,
अपने दुःख में सुखी, -गर्वोंमुक्त,
अपनी जीत में हार की ख़ुशी लिए ,
अपने सच के झूट से चमत्कृत ...
वक्त से आगे जाना चाहता है ,
सितारों के पार ,
ना जाने किस-किस में व्यक्त होना चाहता है ,
उसका सुख....
इन दिनों सेमल के पेड़ पर ,
लाल सुर्ख फूलों की नियति में ,..
टंका हुआ ,
अकेला अलग -थलग.

दैनिक भास्कर समूह की पत्रिका के अक्तूबर २००७ के ''अहा जिन्दगी'' में प्रकाशित

सोमवार, 8 मार्च 2010

// काशी बाई का सूरज....मुश्किलें चाहे जीतना आदमी को मजबूत बना कर जीना आसान बना दे लेकिन मुश्किल हालात में जीना आसान काम नहीं है ...//

काशी बाई का नाम सूरज बाई होना था दिनभर तपने के बाद दूसरों को गर्माहट और रौशनी की खुशी दे कर डूब जाने वाला ...मुश्किलें चाहे जितना आदमी को मजबूत बना कर जीना आसान बना दे लेकिन मुश्किल हालात में जीना आसान काम नहीं है, हालांकि नई प्रौधोकियाँ ,भ्रूण ह्त्या आर्थिक चुनौतियां और नए-नए व्यवसायों की तरफ महिलाओं का रुझान ,अपराध का अन्तराष्ट्रीय करण,विश्व स्तर पर बढ़ता निरंतर देह व्यपार और गरीबी जैसी समस्याएं लगातार स्त्री के सामने है तिस पर सबसे गरीब औरत की बेतरतीब जिन्दगी का अंदाजा तो आम आदमी लगा ही नहीं सकता.
आज अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस है अभी अभी..काशी बाई से मुलाक़ात कर के लौटी हूँ ...काशी बाई को वैसे तो में पिछले आठ सालों से जानती हूँ और उसकी कर्मठता की कायल भी हूँ,भोपाल शहर के ठीक बीच से होकर गुजरने वाली शाहपुरा लेक की और जाने वाली सड़क किनारे है बांस खेडी जिसके चौराहे पर सड़क के किनारे पर आप काशीबाई से रूबरू हो सकतें हेँ ..जिसके धूप में तपे ताम्बई रंग के बूढ़े शरीर पर झक्क सफेद बाल के साथ धूप हवा सर्दी गर्मी हर मौसम को आत्मसात किये एक स्वाभिमानी चेहरा मिलेगा ....काशीबाई अपने सधे हुए हाथों से बांस की कलात्मक टोकनियाँ बुनती हुई मिल जायेगी ...काशी बाई हिन्दुस्तान की उन तमाम औरतों का प्रतिनिधितत्व करती है जो शहरों में तो है लेकिन शहरी सुविधाओं से वंचित हुनरमंद है लेकिन भूखों मरने को मजबूर रहने को यूँ तो उसके पास एक अदद झोपडी है लेकिन सडक पर रहने को मजबूर ....काशीबाई के दोनों हाथ बांस का काम करते बहुत ही कट -फट गए हेँ ,बांस के नुकीले रेशे और खपच्ची को निकालने में छिली हुई अँगुलियों -हथेलियों में से खून रिसने लगता है हालांकि दरार भरने में दो चार दिन का समय लगता है लेकिन फिर नया घाव ,नई टोकनीयां और ये सिलसिला चलता रहता है ..काशीबाई का सूरज रोज निकलता है और रोज डूब जाता है उसकी जिन्दगी में कोई बदलाव नहीं होता ,कुछ नया नहीं होता ,बिना थके बिना रुके काम तो करना होता है .लेकिन फिर भी मन माफिक पेट भरने लायक पैसा नहीं मिलता महंगाई बढ़ गई है बांस महंगा है उसका कहना है .....ललितपुर से साठसाल पहले भोपाल आई काशी बाई, जिन्दगी के अंतिम पड़ाव पर बिलकुल अकेली है लेकिन उसका होंसला बुलंद है उसकी बड़ी कल्पना में एक छोटी इक्छा है की उसकी अपनी दूकान होती और वो ठाठ की जिन्दगी जीती ....जिन्दगी अब बची ही कितनी है काशी बाई और उस जैसी औरतों की ......इस बिखरे हुए समाज की सबसे गरीब और अंतिम स्त्री की छवि हमें आपको फिर से गढना पड़े उसकी बेतरतीब होती जिन्दगी को समेटना और उसे मजबूत करना,...भाषा और लेखन इस निमित्त साधन मात्र है हम एक नयी स्त्री का सुन्दर भविष्य गढ़ सकें -हमें आपको कोशिश तो करना ही होगी लेकिन ईमान दार ......
आज विश्व महिला दिवस पर माखन लाल चतुर्वेदी विश्विद्यालय में महिला पत्रकारों का दायित्व विषय पर एक परिचर्चा /संगोष्ठी में भाग लेने की बजाय मुझे लगा ..काशीबाई पर कुछ लिखा जाय ...क्योंकि हर साल की तरह रेशमी साड़ियों की फरफराहट खुशबुओं और कुछ निरर्थक तालियों ,भाषणों कैमरों की चकचौंध ,झूटी मुस्कराहटों की बजाय काशीबाई से आपको रूबरू कराया जाये ...आमीन

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

मध्यप्रदेश की बाघ कला के ये हुनरमंद कलाकार... "अब इन्हें अपनी जिन्दगी में कोई बड़े चमत्कार की दरकार भी नहीं" //-



यूं तो हर दिन महीनो सालों दर साल वो काम करते रह्ते हेँ,कपड़ों को रंगना धुलाई करना उन पर भिन्न आकार-प्रकार के छोटे बड़े पारंपरिक फूलों या अन्य डिजाइन की छपाई करना उनका पेशा है...और उनकी आजीविका का एक मात्र साधन भी अपने पेशे में पारंगत होने के बावजूद उन्हें वे सुविधाएं -खुशियाँ हांसिल नहीं है जिसके वो ज्यादा से ज्यादा हकदार है..मुश्किल हालातों में रात-दिन खटते हुए अपना काम करना इनकी आदत में शुमार हो चुका है ,और अब इन्हें अपनी जिन्दगी में कोई बड़े चमत्कार की दरकार भी नहीं रही दूसरों के चेहरे पर रंगत लाने की खातिर खुद इनके चेहरे बेनूर हो चले हैं जब किसी खरीददार को अपने हाथ की छपाई की तारीफ करते देखतें हैं तो उनकी ख़ुशी से चौड़ी होती आँखों में आप सातों आसमान झिलमिलाते हुए पा सकतें हैं
इस बात से कोई इनकार नहीं करेगा की..पूंजीवादी ताकतें हमेशा से ही ज़रा से फेर बदल के साथ सही और मेहनतकश व्यक्ति के जीवन मूल्यों से खिलवाड़ करती रही है बावजूद कलाकार की अपनी एक नैतिक जिद्द होती है जो किसी भी हालात में घुटने नहीं टेकती
मध्यप्रदेश के पश्चिमी निमाड़ के जिला खरगोन में तथा महेश्वर जिला धार के कुक्षी सहित अनेक गांवों में तकरीबन पूरा का पूरा परिवार रंगाई,छपाई और बुनाई का काम करता है जिनमे अधिकतर खत्री,बलाई और मोमिन समाज के लोग हैं ....मध्यप्रदेश के वस्त्र उधोग में अब तो पारंपरिक महेश्वरी और चंदेरी के सिल्क सूती वस्त्रों पर भी बाघ प्रिंट का तेजी से प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है ,देश के हर हिस्से में ही नहीं वरन विदेशों में भी इन भारतीय पारम्परिक डिजाइन के वस्त्र लोकप्रिय है ,बाघप्रिंट भी एक कला है जिसमे पहले कपड़ों को रंगना फिर धोना और फिर मन मुताबिक़ उन पर बाघ प्रिंट करना ...बाद इसके उन्हें सहकारी समितियों के माध्यम से बाजार में बिक्री के लिए उतारना ...बाघ प्रिंट की छपाई में उपयोग आने वाले रंग वेजी टेबिल्स डाय होते हैं..इसलिए ये सिंथेटिक डाय के मुकाबले ये महत्वपूर्ण और महंगे होते हैंये एक कठिन और धैर्य से इजाद करने वाली कला है .. ये छपाई सिल्क-खादी और पौली वस्त्रों में भी उतने ही मनमोहक और लुभावने लगते हैं जितने की सूती वस्त्रों पर.वर्तमान में साड़ियों ,ड्रेस मटेरियल ,चादरें,रनिंग मटेरियल ,और अब दरियां भी इस प्रिंट में बतौर फैशन में प्रचलन में है
बाघ नामक स्थान इंदौर [म प्र ] के नजदीक अहिल्या बाई होलकर की राजधानी महेश्वर से करीब ११० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है.बाघ में इस वक़्त रंगाई-छपाई के २४ कारखाने है ...ये सही है की म. प्र.सरकार ने पिछले १० सालों में इन पारम्परिक वस्त्रों को निर्यात करने और उनकी लोकप्रियता में इजाफा करने के लिए भरसक प्रयास किये हैं ..जहाँ-जहां ये काम हो रहा है वहाँ सहकारी समितियों के माध्यम से इनकी बिक्री की व्यवस्था है उन्हें कच्चा माल, सूत, जरी, रंग भी मुहैया होता है लेकिन इस काम में सर्वाधिक पानी का इस्तेमाल होता है .हम रूबरू होते हैं यहाँ के निवासी नूर मोहमद खत्री और उनकी पत्नी जुबैदा और बेटे इदरिस से .....उनका कहना है यहाँ से ५ किलोमीटर की दूरी पर'' मनावर '' में पानी है लेकिन बाघ में पानी की कमी है साथ ही उनका ये भी कहना है की काम के लिए ऋण नहीं मिलता...खुद अपना ही पैसा बैंक से लेने में मुश्किलें आती है...किराए की जगह लेकर काम करते हैं कहने को सरकार सब कुछ कर रही है लेकिन सब कुछ सब के लिए नहीं है दूसरी और मोहमद हुसैन मूसाजी खत्री और जमाल उद्दीन खत्री'' कुक्षी'''रहवासी जिला धार म .प्र....इनका पूरा परिवार मिलकर बाघ प्रिंट का काम करता है करीब ५० हजार की आबादी वाली इस तहसील ''कुक्षी '' में भी पानी की कमी है उनकी तो मांग ही यही है की यदि नजदीक के फाटा डेम का पानी यदि कुक्षी में छोड़ दिया जाय तो हमारी थोड़ी मुश्किलें कम हो जायेंगी ,,,चूँकि जो भी पानी हने मिलता है वो अधि कांश त सिंचाई के काम में खर्च हो जाता है जो भी हमें मिलता है उससे काम ठीक से नहीं हो पाता है ....इसके अलावा भी इतर मुश्किलें इन कलाकारों के जीवन में है ...लेकिन बुनियादी मुश्किलों को दूर किये बिना इन लोगों के चेहरे पर कोई रंग नहीं आ पायेगा ..सरकार को इसमें पहल करने की जरूरत है ....

मध्यप्रदेश में रंगाई-छपाई और बुनाई, कला और कलाकार पर केन्द्रित शीघ्र प्रकाशित अपनी पुस्तक - "रंगारा" से एक अंश...

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

जो कहा जाना है -वो जो कहने से छूट जाता है ... अक्सर वही सब कुछ कह देने को... जहां दहकने शुरू हुए हेँ अभी-अभी पलाश..//


यूं तो वसंत आया है
कहने को ---
ठिठुरते शिशिर की शीत के बाद ,
इस बार थोडा जल्दी ,
लेकिन यकीन है ..इस-बार खराब मौसम ,
और इतने खराब वक़्त में भी ,
उस छोर से बंधा होगा कोई गुनगुना पल
जैसे नाव बंधी होती है ,एक गहरी आश्व्शति में ,
दिखने वाली शांत सी सतह पर ,
बावजूद पानी पर डोलती ...
बार-बार शुरू करती हूँ सोचना ,
शुरू कहाँ से हुआ ,जिसका कोई अंत नहीं ,
चाहे जीतना छूटे पीछे.. उतना ही आगे भी ,
उलट कर ''अपनापन'' ताज़ी निलाई से लिखता है,
लिख-लिख फैलाता है कोई हुनरमंद हाथों से ....
उसके निरंकुश फैसले पढ़े नहीं जाते ,
घिस-घिस बीत ही जाते हेँ हजार दिन ,
कुछ रेशमी दिन पीछे और धूल सने दिन-रात आगे खड़े मिलतें हेँ
कितना झूटा है ये ,रोने-रोने को हो आता अभिमान बार-बार
और सुरक्षित रहतें हेँ अभाव के तकादे ,
सिरजा दिया वो सब...बूँद-बूँद छींट-छींट हरहरा आये थे जो,
निस्संग मन इन धूसर पीले दिनों से पूछ बैठता है..
कहाँ जाना था तुम्हे ?उस पहाड़ी पर ,
या किसी जंगल में --जहां दहकने शुरू हुए हेँ अभी-अभी पलाश
या वहां जहां सीखा तुमने ,
निपट अंधेरों से ऊपर आने का सफल अभ्यास,
सच एक-एक सीढ़ी ,
द्रश्य का बदलना
सवेंदी सूचकांक सूचित करता है ,
चीजों के लुढकने के संकेत ...
धैर्य खोता है ,धारणाएं टूटती है...
कुछ पल्ले नहीं पड़ता ,
कितना छोटा था मेरा सुख
इस बड़ी और गोल सी दुनिया में
बस समा जाए इस मौसम इस वक़्त में
उगते सूरज की रौशनी में, लहरों में पछाड़ खाता समंदर और ज़रा सा प्रेम
बंधा होगा उस छोर से जरूर बहुत कुछ अब भी ...
ताकि ,जो कहा जाना है -वो जो कहने से छूट जाता है ...
अक्सर वही सब कुछ कह देने को,
इस वसंत में ...

कहाँ से ढूँढ के लायें हम फन की सनद, तू अपने शब्द के पत्थर मेरे हिसाब में रख..! (-जमील कुरैशी)