बुधवार, 24 जुलाई 2013

चंपा -----अपने सलोनेपन के साथ अपनी खुशबू बिखेरने और संजोये रखने में माहिर--

उस मोड़ पर जाकर छोड़ दो --मरे जिए की गाथा ---एक दोहराव,एक तिहराव में सिमटता है और उस मोड़ से आगे मूडकर दस कदम की दूरी पर चलकर एक छोटी सी पुलिया के किनारे आलीशान बने घर के रोड साइड बनी बाउंड्रीवाल में लहराता लाल चंपा का अधेड़ सा पेड़ --देखकर लगता तो है घर मालिक से उपेक्षित है ,टहनियां दिवार से टकरा कर जमीन की ओर बेतरतीब सी फैली दिखाई देती है --लगभग हर दिन सुबह -सुबह गुजरना होता है चंपा के उस पेड़ के करीब से ---बीच बीच में समय के अंतराल को भेदकर ढेर सी हंसी लाल चंपा के हर शाखा पर अलग-अलग गुच्छों में खिले फूलों पर हरदम खिलखिलाती सी नजर आती है ---रात में झड चुके जमीन पर पसरे फूलों को  चुनना और सुबह को खिले ताजे फूलों की डालियों को- आहिस्ता से अपनी और झुकाना फिर  पैरों को  थोडा ऊपर की और उठाकर हाथों से उन्हें तोड़ना,तभी चम्पा के नन्हे फूल शरारत से बेतहाशा खिलखिलाते अपनी पंखुड़ियों की सतह पर ठहरी ढेर सी ओस की बूंदों को चेहरे पर बिखेर देते हें वो ठंडक एक सुकून देती है उन्हें यू तोड़ना --दुःख तो होता है लेकिन फिर भी जमीन पर गिर कर मिटटी में मिल जाने से बेहतर है की वो मेरे साथ रहें और इस तरह उन्हें चुनकर साथ घर ले आना सुबह की सैर से लौटने के क्रम में निश्चित है 
हर दिन वो साथ आते हें --ड्राइंगरूम में चीनी मिटटी के गुलदान में उन्हें बड़ी तरतीब से सहेज लेना फिर दिन भर आते जाते उन्हें निहारते -उनकी खुशबू को आत्मसात कर लेना भी जीवन क्रम में शामिल  है ड्राइंगरूम की खिडकियों के शीशों पर काईरंग [बाटल ग्रीन ] के पर्दों से इस बारिशी मौसम में भी छानकर आती धूप में चंपा के फूल उन्मत्त हो उठते हें ---साल भर उदास रहने वाले चम्पा फूल बारिश में जीवंत हो उठते हें ,एक मौसम घर में पसर जाता है मानो --सुरमई पहाड़ों से उतरती -इतराती शाम हलकी धुप संग घर लौटने की ख़ुशी में हो ---पर शाश्वत का सुख कुछ  नहीं और अनंत भी कहाँ?---लौट जाओ उस तक --जिद्द ना करो प्रतीक्षारत हो जो तुम्हारे लिए --उसका प्रेम बनाएगा तुम्हे एक पूरा मनुष्य ---और लौटना ही होता है उस तक 
चम्पा कान में गुनगुनाती है मेरा भरोसा हांसिल करो और देखो मेरी और बेहद निस्संग और उदास दिनों को छोड़ दो पीछे ---जैसे फ़ेंक देते हो तुम सूखे मुरझाये चंपा के फूलों को बागीचे के किसी गमले में या कचरे के ढेर पर -और देखते हो उसमें अपना कल ---उम्मीद से ज्यादा उम्मीद सच बुरी आदत है ---चंपा के ढेर से फूल सन्नाटे के स्वर में घुलते हें एक बंसी की टेर में वो ---लेकिन वो चीजों को समझता ही नहीं ---मुखातिब हो जाती हूँ अक्सर यू ही चंपा से --तुम समझ जाओ शायद जुड़ाव का धागा बीच-बीच में टूटता है फिर जुड़ता है --पूर्णता के पहले टूटे हुए आलाप की तरह --देखो ना सुबह तक तुम्हारा साथ भी छूट जाएगा अब कोई एस मुकाम नहीं जहाँ तसल्ली मिले --बोलो क्या एक कतरा सुख हांसिल करना इस ब्रह्मांड में इतना मुश्किल है ----कैसे इतना खिलखिलाते हो चम्पा ---थोडा रुकना होता है शायद जवाब मिले ---जाओ सफेद चम्पा के पास तुम्हे वहां चम्पई शांति मिलेगी और संतोष भी --एक मन्त्र मुग्ध स्थिति और आँखें मूँद जाती है ....इस खालीपन में कितनी कोमल प्रतिध्वनित है तुम्हारी खुशबू 
उसे याद आता है एकांत पार्क में खडा एक कम शाखा वाला लोहे की बेंच के पीछे खडा इतराता सा  सफेद चम्पा --नानी के रसोई के बाड़े में खडा अनगढ़ चम्पा ,एक छोटे बोनसाईं पॉट में मजबूती से खडा मेरा पंद्रह साला सुगठित चम्पा,डा सुनीता शर्मा के लान में उदास खडा चम्पा --मां के कमरे की खिड़की से लगा खुशनुमा चम्पा -यूनीसेफ़ की कार  पार्किंग में खडा बूढा -छोटे छोटे फूलों वाला चंपा पेड़ ---अपने सलोनेपन के साथ अपनी खुशबू बिखेरने और संजोये रखने में माहिर --लेकिन पिता के हाथों सौ बिलपत्र के साथ शिवलिंग पर रखा  हायब्रीड चम्पा का वो दुधिया फूल आंखों में टंका  रह जाता है कहीं खुश तो कहीं उदास अपनी अपनी नियति में --एक तटस्थ भाव लिए गहरे हरे और लम्बे नुकीले चुस्त-दुरुस्त पत्तों में अन्दर के रिश्तों को बखूबी जीवित रखे हुए हें एक निरपेक्ष भाव से स्थितियों में सापेक्ष हो चम्पा खिलता ही रहता है ---भूल जाना और याद रखना अलस्सुबह लाल -सफेद चम्पा के फूलों को समेटना और नए दिन की शुरूआत  करना कितना सुखद है ---और अपनी अंश भर डाली से पुन एक भरा पूरा वृक्ष बन जाना --अपने जीवट लेक्टोजन [दूध ]से किसी भी मिटटी में आसानी से पनप जाना --जहाँ से टूटना [ कट जाना ] वहीं से फिर जीवन शुरू कर पाना बस तुम्हारे ही बस की बात है यूं अपनी खासियत की वजह से तुम ख़ास हो मेरे पसंदीदा भी ---तुम्हे गूगल सर्च करके तुम्हारे नामों और किस्मों के बारे में तो जाना जा सकता है पर तुम्हारी आत्मा और तासीर [प्रवृत्ति ] तक पहुंचना कठीन  है ---सिर्फ प्यार और नेक नियति से तय किया  जा सकता है कि चम्पा आखिर तुम कैसे हो --------

प्यार करते हुए
अपनी आत्मा को गवाह बनाना
और याद रखना
उगती पत्ती तुम्हें और झरती
तुम्हारे प्यार को बना रही है[अज्ञात]

रविवार, 19 मई 2013

सुनो माँ ----माँ माँ माँ अनहद नाद की तरह ,गूंजती हो ---यकीन है तुम मुझे सुन रही हो




सुनो माँ 
तुम थी, तो थी हरियाली 
और कोई जलन मालूम ना थी 
बीच यात्रा में छूटा  सा ----
तुम्हारा मौन ,अब भी आवाज़ लगाता  है ''बेटा ''
ढेर से शब्दों के बावजूद अवाक -हूँ 
माँ माँ माँ अनहद नाद की तरह ,गूंजती हो 
भीतर  -बाहर,उत्सव में दुःख में सुख में 
आस-पास ,हरदम नेह का नीड़ बुनती सी तुम 
महसूस होती हो 
तुम पास हो ,ये अहसास है 
इस कोलाहल में /इस शून्य में अपनों -अजनबियों में 
फिर भी शेष हो ,मुझमें  
मेरी इस दुनिया में 

माँ मुझे यकीन है तुम मुझे सुन रही हो 
स्मृति जल में डूबते-उतराते ,बीते कई सालों में 
सारे मौसमों में बीतती रही तुम 
तुम्हारे ना होने पर कई दुःख आये और चले गए 
कई सुख आये और -रह गये 
तुम्हारी देह गंध -अब भी साढ़ीयों के ढेर में ताजा है 
और उस चौड़े जरी के पाट  वाली हरी साढी में तो तुम  ज्यादा ही याद आती हो 
पहनती हूँ जब-जब तुम्हारा स्पर्श जीवंत हो उठता है 
इसके अलावा भी 
दाल के छौंके में ,आम की मैथी लौंजी में 
लाल मिर्च की चटनी में ,आटे  बेसन के लड्डुओं में 
खट्टी -मीठी सी तुम मौजूद हो 
हर पल परछाई सी होती हो पास,
हमारी छोटी उपलब्धियों पर हमें विशिष्ट बना देने वाली माँ 
तुम्हारे कुछ अनमोल शब्द /कुछ सीखें /सौगातें 
तुम याद आती हो ता बस आती हो 
पेड़ नहीं काटना /बाल नहीं काटना/गुरूवार को हल्दी का उबटन करना /केले के पेड़ को  पूजना 
सूर्य उपासना करना ---
मंत्रोचार की ध्वनि में 
तुम्हारे निष्ठूर देवी देवताओं को पूजती हूँ आज भी 
भरसक कोशिश करती हूँ उन्हें निभाना  तुम्हारी खातिर 
अक्सर रातों में जब नींद नहीं आती 
आसमान से एक तारा चुन लेती हूँ -मान लेती हूँ तुम्हे 
आँख भर आती है तब 
इससे पहले की कोई आंसू इस लिखे पर गिरे 
उससे पहले थाम लेती हो 
मुझे यकीन है
सुनो माँ 
तुम मुझे सुन रही हो 
 
[अपनी माँ की स्मृति में आज अभी सुबह[
May 12 -2013]
 अभी ये शब्द ...जो छोड़ गई हमें सात  साल पहले ]

रविवार, 3 मार्च 2013

सच में बावजूद हंसना फिर भी स्थगित रहता है -विक्टोरियन उपन्यास की तर्ज पर कभी कभी अभिभूत होना ...सर्वेश्वर की कविता का याद आना उसकी सौ कविताओं के साथ उनके बाद ....कितना चौड़ा पाट नदी का कितनी गहरी शाम'' वसंत में शुरू और ख़त्म हुए किस्से का वजूद बचा रहता है

  • मेन गेट खोलते ही मोबाईल ओन करना,समय देखना और फिर चलना शुरू करना ...तब से ठीक एक घंटा होता है उसके पास .अपने आप से कहना ,झुक कर शूज़ को एक बार पैरों में ठीक से महसूस करना -फिर चलना ,,रोजाना की आदत में शुमार है पाँव चलतें हें देह चलती है और मन तो जैसे पूरे बर्ह्माण्ड का फेरा लगा -लगा कर लौटता है कतारबद्ध डुप्लेक्स मकानों की की नेम प्लेट पढ़ते जाना ..सरस्वती शिशु मंदिर के आहते में बच्चों की समवेत प्रार्थना के स्वर,डा वसंती साहू गायनाकोलाजिस्ट  जेपी  हॉस्पिटल,आशीष जैन कार्डियोलाजिस्ट ,दीपेश यादव एडवोकेट अनिल सोनी मेकेनिकल इंजीनियर ..बीच में एक बड़ा सा मटमैला मकान बदरंग जंग खाए गेट पर बड़ा सा ताला ----ये मकान बेचना है आगे मोबाईल नंबर बीएस एन एल का ...सारे दर्शय नाम का पहाड़ों की तरह रटते जाना ..बेमकसद सडक पार करते ही सरकारी मकानों की लाइन .बस स्टॉप पर इस्कूली बच्चों के हाथ थामे मा-बाप।।एक हलकी उसांस के साथ तभी अपने को लुक आफ्टर करना पुरानी आदतों जैसा ..सब कुछ वैसा ही है कुछ नहीं बदला और शायद बदले भी नहीं ..अपने साथ ही किसी चीज को देखने फिर समझने की समझ को सहेज लेना ---स्मृति की दृष्टि का धुंधला जाना ,अपने को पकड़ने की कोशिश करना ,थोडा आगे बढना ..लेकिन कुछ चीजें रह गई,,लगता तो है उन्हें छुए बिना निकल जाना और हैरान होकर पलटना ,उन्हें फिर देखना -अन्दर कुछ रिश्ते अभी तक बने हुए हें  ताजा-तरीन -एक अतीत राग का छिड जाना ,दुनिया भर की ख़बरें अनगिन हलचलें -एक फेहरिश्त में कुछ कुछ कभी एडिट तो कभी हायलाईट और कभी अंडर लाइन होता रहता है पर क्या करें आसमान कितना नीला है दिखाई देकर भी अंदाजा नहीं होता  सच अविश्वास ही आदमी को पराया बनाता है रंगों को बदरंग सामने शाहपुरा झील है उस पार छोटी पहाड़ी जिसके नीचे  खूबसूरत मकानों,पहाड़ी के ठीक पीछे  से  सूरज निकलना ही चाहता है कुछ छोटे मोड़ और दूर तक जाकर बड़े घुमाव ..बेतरतीब पेड़ों पर धुप उतरती है एक आवाज़ हवा में तैरती है कैसा है जीवन इन दिनों ..और बेख्याली में कहना ठीक बिलकुल ठीक .टूटे हुए आलाप की एक शक्ल बन जाती है एक खालीपन ..एक बदली हुई तमीज के साथ एक बदली हुई दुनिया ..और एक ठोकर ---पिछले दिनों हुई बेमौसमी बारिश में भीग कर आधी  बोरी  पत्थर हुई सीमेंट ,ठीक वैसी ही ठोकर ,गिरते-गिरते बच  जाना और संभल जाना ,गिर जाने के अहसास से कमतर नहीं होता ,सांसों का तेज होना फिर मोबाइल देखना ओह पैंतीस मिनिट गुजर गए ठोकर का एक हल्का अहसास पेरों  में अभी भी बना हुआ है --कमबख्त लोगों को जाने क्या सूझता है खासे मकान को तुडवा कर फिर बनवाना ईंट फर्श कांच प्लास्टर का मलबा सड़कों पर पटक देना ,कितनी बातें कितनी यादें कोई कैसे ऐसे ही बीच सड़क पर छोड़ सकता है ,अपने से मुखातिब होना अब वो घर से करीब दो ढाई किलोमीटर दूर है कालोनी का ये एक्सटेंशन एरिया है कई नए अधूरे बने मकान ...स्मृतियों का भी एक्सटेंशन ..अगले मोड़ से लौटना ,तुम ठीक तो हो?ये कोई सवाल है पूछने वाला ..है तो सही ..बस अब लौटो घर ..देखो अपना चेहरा देखो आईने से हाल पूछो सही जवाब तो उसी के पास होगा ,पर आइना भी सवाल ना कर बैठे उस काल खंड में जिसे कुछ साल पहले उम्र के एक हिस्से में जिया गया हो कोई मुकम्मल जवाब  नहीं उसके पास कोई अफसोस नहीं ....घर के नजदीकी वाला मिल्क पार्लर दिखाई पड़ता है और वहीँ से मुड़ना होता है .मोड़ से आठवां मकान मेरा अपना एक वो ही तो है इन दिनों भी बाकी दिनों की तरह ढेर से जामुनी फूलों की लतरों  से सजा में गेट पर हरदम स्वागत के लिए आतुर ...अन्दर दाखिले के साथ ही सीढियों के ठीक नीचे वाशबेसिन के उपरी रैक से केटाफिल क्लीनसिंग लोशन को चेहरे पर फैलाना जामुनी नेप्किंस से चेहरा पोंछना ..आह अब चेहरा साफ है ..आईने के भीतर से खुश चेहरा दुहाई देता है हंसती रहे तू हंसती रहे ....मनसे किसी परत का उतर जाना किवाड़ों  को ठेलकर  वो लौटे वसंत सा इस बार भी कुछ लरजता है इत्मीनान की लहर सा कुछ ठहरता है एक उम्मीद की सूरत ...तब जरूरत से ज्यादा सोचना ,ये सोचना कि सुरक्षित रह कर धीरे-धीरे मरना कैसा होता होगा और फिर अधिक सुरक्षित होने की फिक्र छोड़ कर बेफिक्र हो जाना --पसीजी हथेलियाँ पीठ पर एक आद्र  भाव लिए  ---रुको रुको प्लीज़ डोंट बी इमोशनल ,तर्कों के जरिये अपनी इमानदारी से अपनी काबलियत की दाद दो ..वाकई तुम अलग हो सबसे,, खुशकिस्मती कहें इसे या?गायब हुई तिलिस्मी  चीजें कैसे बार बार लौटती हें ...सच में बावजूद हंसना फिर भी स्थगित रहता है -विक्टोरियन उपन्यास की तर्ज पर कभी कभी अभिभूत होना ...सर्वेश्वर की कविता का याद आना उसकी सौ कविताओं के साथ  उनके बाद ....कितना चौड़ा पाट   नदी का कितनी गहरी शाम'' वसंत में शुरू और ख़त्म हुए किस्से का वजूद बचा रहता है सर्दियों की शामे और रातें तो वक्त ही नहीं देती यूं  आती हें यूं  जाती हें कि बस उनका मुड़कर ओझल होना ही याद भर रह जता है फिलहाल दिन बड़े हें और राहत है लेकिन ऐसे कैसे दिन आये भी नहीं ,बीते भी नहीं,भूले भी नहीं,और खो गए किसी अक्षांश -देशांतर में दिक्काल के किसी कोण पर ना मालूम कहाँ ...वसंत का आना सेमल का दहकना बर्फ में दबी कविताओं वाले दिनों का पिघलना टहनी से बिछड़ी पत्तियों का नवजीवन बनना फिर सेमल के फूलों से फलियाँ बनना फिर उनमे गद बदी  रुई का भरना .हवा में एक गंध का फैलना धुंद और धुप के बीच चिड़ियों की उड़ानों का स्थगित रहना शाम का जाना रात का आना ...और छोटे-छोटे  सफेद सेल्फ  प्रिंटेड फूलों की ए लाइनसफेद  नाईटी में बहुत दिनों बाद खुद को हल्का महसूस करना ..तारों भरे आसमान के नीचे  छत्त  पर सुकून में मोबाईल के मेसेजेबोक्स में झांकना ,डिलीट करना बकवास ख़बरें ..दुनिया से बेखबर एक कतरा सुख की खातिर  आखिर कोई नाम तो चमके उसकी खातिर ...
  • हकीकतों का लाये तखय्युल के बाहर 
    मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाये [शमशेर ]