मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

कुछ आहटें बाहर है ,कुछ दस्तकें भीतर,समय के सबसे विध्वंसक क्षणों मेंअपनी गहरी प्रार्थनाओं मैं ....,

अब भी कुछ टूट रहा है धरती मैं,
और छूट रहा है ,आकाश मैं ,
थोडा सा झांकते हुए ,चट्टानों से,
कुछ भीग रहा है पहाडों के पार,
कुछ आहटें बाहर है ,
कुछ दस्तकें भीतर,
समय के सबसे विध्वंसक क्षणों मैं,
अपनी गहरी प्रार्थनाओं मैं
किस तरह पवित्र और सुरक्षित रखा है मैंने
दुनिया भर के लेखे-जोखे .से अलग ...
अलग वर्ण -शब्दों मैं
अभिनव रंगों मैं ,
सबसे बचाकर,अनहद मैं लीन-तुम्हे।
जब सपना भी नही देखा जा सका
और रात बीत गई,
कोई क्यों रोना चाहता है
तुम्हारे साथ -हँसते हुए ...अकेले मैं ,
अनंत गूंज मैं, ये भी नही जान पाये...
उससे मीलों दूर ..वसंत पास ही है ,यकीन है
जबकि बीता है वो,पिछली रात की तरह,
अभी-अभी,
पीली धूप मैं खिले ,सफेद फूलों की मानिंद,
और मैं तैयार हूँ ,तुम्हारा हाथ थाम लेने को ,
इसी क्षण ,धैर्य और उत्ताप के संयुक्त क्षणों मैं
ये कौनसा मुकाम है ,फलक नही ,जमी नही ,के शब् नही,सहर नही, के गम नही,खुशी नही ,कहाँ पे लेके आ गई ..हवा तेरे दयार की .... (फोटो शिलांग घाटी से)