मंगलवार, 6 मार्च 2012

.सात्र का अस्तित्ववाद इसी सिद्धांत पर है कि जिन घटनाओं के लिए आप उत्तरदाई नहीं उनका बोझ भी आपके ही माथे पर है.फिर जिन्दगी का हिसाब -किताब कैसे करें कि सारे जोड़ सही हो जाए बिना किसी को घटाए ,उनके सुख चैन छीने बिना ...रोने से कुछ हांसिल नहीं

सूरज को टोहता अन्धेरा आगे-आगे चलता है.रात की अगुवाई करता,इन दिनों चीजें अपनी तरह से अलग और अलस ढंग से दूसरी तरह से  पसरी हुई है.एक आत्म निवेदन उनसे लगातार सुनाई देता है मुझे रहने दो ऐसे ही -पेड़ पत्ते कपड़ों के ढेर फ्रीज  में सुस्त सी सब्जियां पेन कागज कांच पर जमी धूल और यहाँ तक आंसू भी छलके रहने के लिए बरबस...सात्र का अस्तित्ववाद इसी सिद्धांत पर है कि जिन घटनाओं के लिए आप उत्तरदाई नहीं उनका बोझ भी आपके ही माथे पर है.फिर जिन्दगी का हिसाब -किताब कैसे करें कि सारे जोड़ सही हो जाए बिना किसी को घटाए ,उनके सुख चैन छीने बिना ...रोने से कुछ हांसिल नहीं... दर्द को दफा करने का इरादा और मौसम के बदलने का इन्तजार करो,हवाओं के चलन पर भरोसा रखो नहीं तो इस जंगल में सपने मूह फेर लेंगे स्मृतियाँ पीली पड़कर झड जायेगी ...पल-छिन्न में बीता निर्मम होकर रह जाएगा क्या हो गया है उसको वो वक्त जिसे दुहाई देकर जिया उसके- अपने लिए वो बिछुड़ गया ..उसके बाद सारे स्पर्श खुरदुरे हो कर रह गये, कैसे भूलना होता है,-ना भूलने वाली बातें अस्वाभाविक था शब्दों का अर्थ बदलना उनका विपरित हो जाना .
..एक लम्बी यात्रा से ऊबा हुआ मन और  उसमे ना सुस्ताया हुआ दिन था वो ..बस हरा भरा मन हार गया था उसी दिन जरूरी सवालों का ना मिला हुआ जवाब -----मन भी कैसी-कैसी ख़बरें गढ़ लेता है,और उतनी ही सरलता  से अचाहे को विलोपित भी..ना कह पाने के दुःख में रिसता सा मन ...अपने हिस्से कि रौशनी में, सुख में ठहरी-ठहरी सांसे,पीठ पर थमे दो हाथ ,आँखों में पलाश के फूलों कि रंगत लिए खुशबू का गीत ,जहाँ एक अलसाई दोपहर ठहर सी गई थी ,..ठंडक थोड़ा कम थी वहाँ...एक कम गहरी नदी पर पुल तैरते दिखलाई पड़ते हेँ ..डूब जाने के खतरों के साथ ..यात्राएं अधूरी और त्रस्त होकर रह जाती है ..किनारे खो जाते हेँ तिनके भी छूट जाते हेँ और दूर तक फैली धुंद मानो सब कुछ निगल जाना,चुप्पी साधे हुए .कम में अतिरिक्त हांसिल कर लेना भी अपनी इमानदारी में अपने साथ किसी और को भी देखना ..एक हिचकी आ जाती है ..दो तीन चार और लगातार कौन याद करता है ..लेकिन कौन ?पानी गले को तर करता है फिर भी बेअसर ...उस दिन ऐसा ही लगा कहीं दूर भाग जाने का मन एक लम्बी उड़ान ..नीले आसमां में बस जाने का मन बस आसमान और मेरे बीच कोई ना हो ..एक असंभव इक्षा ..फिर लगा पलक झपकते ही ये शहर दूसरे शहर में तब्दील होजाए लेकिन वो भी हो ना सका,पूरे 48 घंटे थे सब कुछ छोड़ देने के लिए ..कोई पहाड़ काट लेता पर वो पल नहीं कटे ..
उस दिन .मौसम खुशगवार था, जिसमें गैर इरादत्तन किया गया कत्ल फिर एक निरीह सपाट आतंक उसके दिल-दिमाग पर छा गया ..एक खालीपन और एक निर्मम बेवकूफी के बीच अपने को मृत्त घोषित कर देने में ही सुकून मिलना था ...वो जिन्दगी की  सबसे खुशनुमा दोपहर थी तब लगा उड़ना सचमुच ऐसा ही होता होगा अपना ही वजूद ढूँढ पाना मुश्किल था ...संगमरमरी चट्टानों से सूरज ओट हो जाता है ...आँखों का मौन आँखों में ही रह जाता है पलकों से उठते गिरते पल-पल का हिसाब जरूर होगा वहाँ , दिन बीत जाता है रात भी, और बीतती है सुबह ..थक जाती हूँ बहुत दूर तक जाने पर पलटना फिर देखना घर पीछे छूट जाता है ..लौटती हूँ क्या मांगा था ,मुठ्ठी भर धूप ही तो, वो दोपहर दिल में उतरती है सांसों में रूकती है बीच राह कोई रोक लेता है चलते-चलते टोक देता है,आहिस्ता छू लेता है आँखे खुलती है फिर कोई पीछे छूट जाता है पकड़ से परे और वहीँ मरना होता है अचाहे दुःख घसीटते से पीछा करते हेँ और फिर एक जामुनी सफर शुरू होता है अपनी ढेर सी गलतियों का कन्फेस ..तलाश का अंत... ना बोले शब्दों की आंच झुलसा जाती है,एक अकथ पीड़ा बड़े-बड़े दावों -दलीलों बौने हो रह जाते हेँ ,और अब लौटती हूँ तो सब कुछ ठहर गया है शहर के तालाबों पर धुंद,पहाड़ों पर हवाएं पेड़ों पर पत्तियां और नीले बादल सिकुड़ कर आँखों में बस जाते हेँ ,जैसे कहीं कुछ बदला ही नहीं जैसा उन्हें छोड़ा था वैसा ही ,बरसों बाद आज देखा बादलों में उड़ता हुआ एरोप्लेन बचपन की खुशी की तरह बयान ना हो सके ऐसी गंध की छुवन अब भी बरकरार है खिड़की के शीशे से लिपटी धूल को हटाने पर अंगुली कसमसाती है एक शब्द लिखा नहीं जाता ..सीधी लकीर बीच में थोड़ी आड़ी फिर ऊपर की ओर सीधी ..उसके नाम का पहला अक्षर अंगुली की पोर में धंसा रह जाता है,पूरा नाम जैसे एक पूरी यात्रा कर ली हो...क्या वो दिन वो यात्रा वो समय,स्मृतियों में इतना ही ताजा रहेगा ..गहराती शाम में उदासी घूल जाती है सुख में दुखाती शाम पीड़ा की तरह घुलती जाती है ,कोई बात नहीं सपने रहेंगे तो जियेंगे -संग,पार्क की एक बेंच पर बैठे सोचा जाना सामने,एक सेमल का बूढा पेड़ है जिसके तने में गहरी खोह दिखाई दे रही है ...... नारंगी फूलों से भरा, कुछ फूल खोह में धंस जाते हैं कुछ क़दमों में.. ओर आस-पास बिखर जाते हेँ शाम टूटती सी बीतती है थोड़ा कुछ भुलाने की कोशिश में बहुत कुछ याद आता है ..गुजरता है मन से, अपने आस पास की दुनिया ओर वे तमाम लोग जो हमारे बीच हेँ उनसे लड़ने का कोई बहाना ढूँढू ..लगता है... कहानी का एक हिस्सा पूरा होता है ,कहानी नहीं ..जिन्दगी भी नहीं 
[पहाड़ों की यातनाएं हमारे पीछे हेँ ..मैदानों की यातनाएं हमारे आगे हेँ [ब्रेतोल्ट ब्रेख्त ]..]ओर ये भी सच है की अस्तित्ववादी गंभीर होतें हेँ ओर उन्हें मजाक करना भी पसंद नहीं आता ...