सोमवार, 17 अगस्त 2009

एक तपिश थी शब्दों को जलना था,वहीँ म्रत्यु की पदचाप थी, चमत्कार था ,अनेक नामो में समाई उसकी उष्मा थी... //

क्या वो इक्छाओं का परिविस्तार था .उच्चारित स्वरों में ,ना कह कर भी कितने गहरे उतर गई एक उम्र वसंत मेरे भीतर था ,वर्षा और शीत भी आग की लपट भी और उमस भी थी, साथ जीने की जीवनेछा धुंधले पृष्टों में दबी थी बीते कई मौसमों की पदचाप थी घर के जिस कोने में दिया जलता था धुंआ था जिसमे बनती-बिगडती आकृतियाँ थी सपने बागी थे बंद दरवाजों पर दस्तक थी .घुप्प अंधेरों के बावजूद दूर कहीं झिलमिल थी पास आती आवाजें थी, अचीन्ही राहों में फलित प्रार्थनाए थी रेशा-रेशा चित्रित था,बगीचें की घांस पर ठंडी ओस थी ,खिले फूलों की महक थी ,एक सफेद लिफाफे पर अगरबत्ती का पीलाजला हुआ कडुवा निशान था, में आउंगा तुम्हारे पास मन्त्र की मानिंद दोहराव था इन्द्रधनुष उस वक़्त उपस्थित था,समय ने आगाह किया था .यू ही हंसते-हंसते उदासी थी, नील स्वप्न्जल में हरी काई थी,पानी की सतह पर इक्छाओं के गले पंख थे तल में सीप से मोती नदारत था ,फिर भी प्रेम दीप्त समय में डूबती तृप्ति का अथाह था, तलघर की आखरी सीढ़ी थी ,तभी बसता था घर, जहाँ सुख की दोपहरी थी ,एक किस्सा था, जिसने छुआ था,एक घटना का समारंभ था,करवट बदलती सदी थी, और जुट पाया तभी तो जीने का प्रपंच था ,सलवटों भरी उदासी थी, भय की जड़ता थी, पत्ते खडकते थे,सप्तरिशियों से भरा आकाश था,कई हंसते सितारे थे कोई पुकारता था ,लय थी ,प्रेम करना जटिल था ,गरुडपुराण में कैद अगला-पिछला जनम था,चीजें साफ थी, पलते सपने थे ,निरापद थे , एक लम्बी चुप्पी थी ,दुर्दांत अभिलाषा थी ,तकलीफों से छिले निर्वासित दिन-रात थे ,एक सख्तशिला थी सीने में जमा थी ,कोशिशे बेकार थी बारिशों में यू ही भटकते थे जन्म दर जनम,कहा भी अनकहा था ,समय को निशेष देखती दो आँखें थी ,रिश्ते कागज़ के थे ,आग की लपटें थी ,चीजों को ढहना था ,एक तपिश थी शब्दों को जलना था,वहीँ म्रत्यु की पदचाप थी, चमत्कार था ,अनेक नामो में समाई उसकी उष्मा थी.
एक गध्य दृश्य गीत :- बहुत दिनों से, बहुत से शब्द बेठिकाने थे...इस ब्रह्माण्ड की धुल धक्कड़ में...