सोमवार, 21 सितंबर 2015

-किरदारों को मोड़ दे देने से क्या होगा -हड़बड़ी और नाउम्मीद सी इस दुनिया में रौशनी में झिलमिल उन दिनों में अपने लिए और वो खुश थी ,वो ऐसा ही सोचती थी उसने सोचा भी ---लेकिन सच सजगताएं आदमी को असहज और निकम्मा बना देती है

वैसे किरदारों को मोड़ दे देने से क्या होगा  - --बारिशों की उमस भरी सुबह जब रात तेज बारिश होकर गुजर जाए --जिसे बगैर कुछ याद किये गुजारने की कोशिश तो की ही जा सकती है --जिंदगी के अधकचरेपन को समझने में अपनी समझदारी  कितना काम आई,उस दिन को इस दिन के मत्थे मढ़   देना हालांकि समझदारी नहीं थी --फिर भी कई बेईमान दोस्त और कई कई तरीकों से सताने वाले लोगों और रिश्तों से छुटकारा पा लेना मुश्किल था पर उसने किया वो सब -
--हड़बड़ी और नाउम्मीद सी इस दुनिया में रौशनी में झिलमिल उन दिनों में अपने लिए और वो खुश थी ,वो ऐसा ही सोचती थी उसने सोचा भी ---लेकिन सच सजगताएं आदमी को असहज और निकम्मा बना देती है अनुभव तो यही है --फिर भी एक निरीह सपाट आतंक उसके दिल दिमाग पर छाता गया उसका यही भय उसके सामने कभी निराशा तो कभी अतिशय प्रेम और कभी विवशता की तरह सामने आने लगता --जिसका खामियाजा भी उसे  बेतरतीब तरीकों से भुगतान कर  करना पड़ता --आखिर खींचतान के बाद सलवटों भरा ही तो बचाया जा सकता था बाद में उन्ही सलवटों में खुद को समेट सिकोड़ लेना फिर वैसे ही रहना अनमने और कसैले से हिसाब लगाते रहना दोयम स्थिति से उबरने की कोशिशें, सस्ते और बेहूदा मोहों से बच निकलना -
निकलकर मुकम्मल उदासी और खालीपन से अपने को खूब खूब भर लेना उसे बखूबी आता है -फिर भटकना अज्ञात लोक नक्षत्रों में  ढून्ढ लेना कोई ठौर  हो जाना
निस्संग  आस-पास से --अरसे तक चलता, कई कहानियो उपन्यासों को बार बार पढ़ना --उनके अंत और घटना क्रम को मन मर्जी से बदल देना --और तसल्ली देना खुद को कोई भी उस जैसी मुश्किल में नहीं ये सोचना उसे खुश करता --आखिरकार अंत तो उसे अपना आप ही बनाना है --किरदारों को मोड़ दे देने से क्या होगा ---इस सब में अपने को जानबूझकर स्थितियों में तर रखना एक तरह की निर्ममता में जीवित रहना उसे रास आ जाता ---उसकी यादों बातों और वादों से ऊब की हद तक उक्ता जाना --ये सोचना किसी के लिए बेवकूफी में बिताये दिनों से फिर भी ये बेहतर है ---एक यही  सोच बस थोड़ी सोच की हद से उसे ऊपर ले जाती ----बावजूद कई चीजें और भी इतर चीजों से बड़ी थी जैसे परत उधेड़ती हवा का पीले पत्तों का लहराते  कुड़मुड़ाते हुए शाखों से नीचे गिरते देखना खूबसूरत था/, ख़ुशी  के खजाने की तरह कोई फूल खिला देखना भीगी चिड़िया का पंख झाड़ना बार बार आँख खुलते ही सिरहाने वाली  खिड़की की मुंडेर पर कबूतरों के जोड़े का गुटरगूं करना  बारिश में, नीली धूप  का निकलना छिपना देखना ---एक  द्वैत भाव ही तो था जो जिला देता था, बाकी दिनों में खुद को तटस्थ रख अपने लिए मृत्त घोषित हो जाना किसी परिणीति के बाद तलाश ख़त्म होगी भी या नहीं ---क्या चीजें छीन  लिए जाने के लिए नियति अक्सर चीजों को मिला देती है मिटटी सी चीजों को इतना प्यार करना भी तो ठीक नहीं हंसी आ जाती है एक बूँद आंसू भी --किसी ऐतिहासिक अद्भुत सीलन भरी गंध में सराबोर प्रेम अपनी जगह था जहाँ के तहाँ --इन्तजार एक हैरानी और मूर्खता से भरा पल ही है ,बीते पलों की मौजूदगी में आतुरता से स्पर्श में दर्ज ढाई आखर ---जैसे मधय सप्तक का निषाद स्वर एक ही सांस में मन्द्र  सप्तक के निषाद पर उत्तर आये --हैरानी यही थी इस साल वर्षा कम होने के बावजूद,शहर में हरियाली बहुत घनी थी  
]एक रात की नींद ---बारह हजार दिन के सपने --मन की आंशिक रिपोतार्ज ] 

सोमवार, 4 मई 2015

मन को एक मथ देने वाली उदासी टोहती है,और मुकम्मिल ब्यान दर्ज करती जाती है एक दो तीन एक लम्बी फेहरिस्त फिर सोचना की उसे भरोसा ही नहीं तो कोई क्या करे ? आपका ईमान ही आपका प्रहरी हो सकता है, यू सोच लो कोई माने या ना माने --बेहद कठिन हो जाता है,तुझसे मिलना फिर खोना ,पसीजना ---देर तक फिर सिसकना --वो ठौर पीछे दूर तक छूट जाता है--उदास उदास --लेकिन सब कुछ जल्दी ही धुल पुछ जाता है और फिर नेह की नीड बुनने में व्यस्त ,हल्दी पुते दिनों में तुम्हारी हल्दी हंसी, रेडियो में बजते संगीत से ताल मिलाती है ---दिनभर के बाद शाम देर से आती है और जल्दी लौट जाती है एक अपूर्व निजता मन को कस कर घेरती है उस डूबती दोपहर सी ,उस शाम देर तक देह का पोर पोर बजता रहा था एक हरियल पल --भी एक पल को उदास हो मुस्कुरा उठता है --फिर ऐसा भी होता ,जहाँ मन डूबता ,वहीँ किनारे हरी पत्ती के रंग में ,हर सिंगर के फूलों से गिरती खुश्बू से मन भर जाता तुम हो लगता है, कहीं आस -पास --वो तारीखें और वो भी जिसमें ऐसा कुछ नहीं हुआ वो तारीखें मुकम्मिल है अब भी , थी कम ज्यादा उन तारीखों में सोचे गए कई दिन रात गायब थे ---यूं हिसाबी -किताबी होना आपकी फितरत ना हो तो ,कहते हुए शर्मंदगी हो सकती है लेकिन वक़्त की फितरत अबूझ है यू पलटना और गिनना पल पल कभी मजबूरी हो जाती है और एक अजब करुणा में आद्र हो जाना ,अपने को स्मृतियों से गुणित कर लचल बना लेना तुम्हारी खातिर अच्छा ही लगता जाता है --पानी से गीलापन आग से ऊष्मा मिटटी से आकार लेता सौंधापन मेरे भीतर यही तो हो तुम बस तुम, सुनो ना सुनो में मिलूंगी इसी धरती और आकाश के भीतर कपिल धारा में नर्मदा के सबसे पहले सबसे ऊँचे जल प्रपात के पास अखंड कौमार्य लिए जहाँ नर्मदा, कुण्ड से निकल केवल सात किलोमीटर आगे तक ही तो चलती है,वहीँ जहँ धुप छनकर पानी में चक्राति हुई पैरों की बिछिया बन जाती है शाल वृक्ष से लिपटी हथेलियाँ में मेहँदी घुलती जाती है , पत्तों गुंथी हुई पगडण्डी घुमावदार सड़क के पार जहाँ सूखे शाल पत्र से पटा समतल मैदान है वहीँ, छल -छल पानी गूँज है, चार पग फेरों के बाद -तीन जन्मों के साथ उस गोलाकार सड़क पर जिसे मैंने सुना ही सुना है, का पूरा फेरा लूंगी ,हथेलियाँ मेहँदी रंग,और पायल की रुनझुन में आत्मा की सुवास से भर ,तुम्हारे पीले उत्तरीय वस्त्र के कोने से लिपटे बंधे मन से ,परकम्मपावासी का दृष्टी- आशीर्वाद लेते, में मिलूंगी वहीँ- किसी जनम में, दिन डूबने से पहले हल्दी काया में, केया रंग चूड़ियों भरे हाथ -पीले जरी के पाट वाली --लाल साड़ी में ---सूरज की बिंदी माथे लिए सकुचाई आँखों से ---तुम मिलोगे ना --

मन को एक मथ  देने वाली उदासी टोहती  है,और मुकम्मिल ब्यान दर्ज करती जाती है एक दो तीन एक लम्बी फेहरिस्त फिर सोचना की उसे भरोसा ही नहीं तो  कोई क्या करे ? आपका ईमान ही आपका प्रहरी हो सकता है, यू सोच लो कोई माने या ना माने  --बेहद कठिन हो जाता है,तुझसे मिलना फिर खोना  ,पसीजना ---देर तक फिर सिसकना --वो  ठौर पीछे दूर तक छूट जाता है--उदास उदास  --लेकिन सब कुछ जल्दी ही धुल पुछ  जाता है  और फिर नेह की नीड बुनने में व्यस्त 
,हल्दी पुते दिनों में तुम्हारी हल्दी हंसी, रेडियो में बजते संगीत से ताल मिलाती  है ---दिनभर के बाद शाम देर से आती है और  जल्दी लौट जाती है एक अपूर्व निजता मन को कस  कर घेरती है उस डूबती दोपहर सी ,उस शाम देर तक देह का पोर पोर बजता रहा था  एक हरियल पल --भी एक  पल को उदास हो मुस्कुरा उठता है --फिर ऐसा भी होता ,जहाँ मन डूबता ,वहीँ किनारे हरी पत्ती  के रंग में ,हर सिंगर के फूलों से गिरती खुश्बू से मन भर जाता तुम हो लगता है, कहीं आस -पास  --वो तारीखें और वो भी जिसमें ऐसा कुछ नहीं हुआ वो तारीखें मुकम्मिल है अब भी , थी कम ज्यादा उन तारीखों में सोचे गए कई दिन रात गायब थे ---यूं हिसाबी -किताबी होना आपकी फितरत ना हो तो ,कहते हुए शर्मंदगी हो सकती है लेकिन वक़्त की फितरत अबूझ है यू  पलटना और गिनना पल पल कभी मजबूरी हो जाती है और एक अजब करुणा में आद्र  हो जाना ,अपने को स्मृतियों से गुणित  कर लचल बना  लेना तुम्हारी खातिर अच्छा ही लगता जाता है --पानी से गीलापन आग से ऊष्मा मिटटी से आकार  लेता सौंधापन मेरे भीतर यही तो हो तुम बस तुम, सुनो ना सुनो में मिलूंगी इसी धरती और आकाश के भीतर कपिल धारा में नर्मदा के सबसे पहले सबसे ऊँचे जल प्रपात के पास अखंड कौमार्य लिए जहाँ नर्मदा, कुण्ड से निकल केवल सात किलोमीटर आगे तक ही तो चलती है,वहीँ जहँ धुप छनकर पानी में चक्राति हुई पैरों की बिछिया बन जाती है  शाल वृक्ष से लिपटी हथेलियाँ में मेहँदी घुलती जाती है , पत्तों गुंथी हुई पगडण्डी घुमावदार सड़क के पार जहाँ सूखे शाल पत्र  से पटा  समतल मैदान है वहीँ, छल -छल पानी गूँज है, चार पग फेरों के बाद -तीन जन्मों के साथ उस गोलाकार सड़क पर  जिसे मैंने सुना ही सुना है, का पूरा फेरा लूंगी ,हथेलियाँ मेहँदी रंग,और पायल की रुनझुन में आत्मा की सुवास से भर ,तुम्हारे पीले उत्तरीय वस्त्र के कोने से लिपटे बंधे मन से ,परकम्मपावासी का  दृष्टी- आशीर्वाद लेते,  में मिलूंगी वहीँ- किसी जनम में, दिन डूबने से पहले हल्दी काया में, केया रंग चूड़ियों भरे हाथ  -पीले जरी के पाट वाली --लाल साड़ी में ---सूरज की बिंदी माथे लिए सकुचाई आँखों से ---तुम मिलोगे ना --
अगर शरर है तो भड़के-जो फूल है तो खिले 
तरह तरह की तलब,  तेरे रंगे  लब  से    है  
सहर की बात --उम्मीदें -सहर की बात सुनो [फ़ैज़] 

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

जिनमे दर्ज है हमारा प्रेम /--बचे हुए खूबसूरत प्रेम की मानिंद---गिलहरियां

खिलंदड़ी --गिलहरियां बहुत आसानी से 
पीछा करती हें --एक दूसरे का 
--वहाँ प्रतियोगिता नहीं है /उनकी बेहिसाब दौड़ती-फुदकती दुनिया में /-
-एक आरामदायक सुरक्षा है /उजली सुबहों में घास के बीज कुतरती गिलहरियां मुझे पसंद हें /-बेहद पसंद है 
-उतरती दोपहर और शुरू होती शामों से पहले वाले सन्नाटे में /--
पत्तों की  हरी रौशनी में झुरमुटों के बीच /उनका होना एक हलचल है /-
-पत्तों के गिरते रहने में भी /
--तब भी ,जब सुकमा की झीरम घाटी में विस्फोट होता है /
और पत्तों की  नमी यकायक सूख जाती है
/--भरभराकर टूटते शब्द बौने होते जाते हें /
तब कड़क और कलफदार चेहरों वाली इस दुनिया को /-
-अपनी गोल किन्तु छोटी और चमकदार आँखों से ,
चौकन्ने कानों से,  पंजो के बल /पेड़ के तने को नन्हे पंजों से थामे / -खड़ी  हो देखती है 
,झांकती ,सुनती है गिलहरियां- अगल बगल -
---मेरी समझ से---लचीली गिलहरियां दुःख ताप  ईर्ष्या  से परे
 दुनियावी चीजों को एक से ,दूसरे सिरे तक  देखती मिलेंगी /-
-एक लम्बे विलाप को पूर्ण विराम देती सी /
-
-बांस की  दो चिपटियों  के बीच दबकर निकलती सी उनकी आवाज़ की  मिठास /-
-किसी लोकवाद्य यंत्र की  तरह बजती हुई  निष्कपट /
उस-- इस समय में /-जिनमे दर्ज है हमारा प्रेम /-
-प्रेम के उत्सव की  तरह ,मंगलगीत गाती बीतती  है /
--फिर आना तुम याद बहुत कहती--/शर्माती  शाख की सबसे ऊँची फुनगी तक दौड़ जाती है 
और तमाम तरक्कियों के बावजूद बदत्तर  होती जाती इस दुनिया में /
-बचे हुए खूबसूरत प्रेम की  मानिंद / हर सुबह -हर दिन 
 घास के एक  नन्हे तिनके के सहारे थाम लेती है, पूरा आकाश /-
उन्ही बहादुर  गिलहरियों से मुझे बेहद  प्रेम है 
---बेहद 
पिछले साल सुकमा के झीरम घाटी में नक्सली  हमले [विस्फोट ] के बाद



गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

किसी मुकम्मल स्पर्श से जीवित होती देह --फिर छूट जाने से डरती है तेज गले से रुलाई का भरभराना रोने से बदत्तर --कितना दम घुटता है कोई माप नहीं, एक तपिश देह में उतरती है --

दो आवाजों को अलगाना मुश्किल हो जाता है जब एक ही समय में एक ही सुर में वो सुनाई दे ---ठीक वैसे ही भीतर के दृश्य धूप  से छनकर बाहर की ओर एक बड़े से सेमल के पेड़ की झुकी हुई शाखाओं को भेद जमीन पर आते हैं, उनका दिखना ही अद्भुत है --सेमल की बड़ी बड़ी हरी गदबदी नरम रूई वाली कच्ची फलियों में अब दरारें पढ़ना ही चाहती हैं --इन्तजार तो धूप  को भी है, फलियों की छोटी बड़ी परछाइयाँ हवा संग संग जमीन पर पड़े आड़े तिरछे दृश्यों को दुलराती हुई अलसाई दिखलाई पड़ती है धूप  लम्बी शाखों पे चढ़ते -उतराते एक पतली कांच की लकीर की मानिंद लचीली डोलती है ---हतवाक'' समय में सब कुछ साफ होता है कुछ आवाजें भी, में तो कहीं गया ही नहीं था सच कहीं जाने के लिए ---तुम्ही बताओ तथागत  ऐसा कैसे चलेगा --एक सिरे पर आवाज कंपकपाती तो दूसरे सिरे पर स्थिर हो रह जाती है कबूतर का एक जोड़ा भरी दोपहर क्लॉक वाइज़ ,एंटी क्लॉकवाइज घूमता हुआ सोच को फिर वहीँ लौटाता  हुआ चकित करता है --कुछ चीजें जीते जी अश्मीभूत होती जाती हैं तो दूसरी तरफ फूलों की शिराओं में प्रतिध्वनियों की शक्ल में जी उठती है --सन्नाटे वाली दोपहर में दबी दबी हंसी वाली धूप थोड़ा आगे सरकती है ,बीतती  है आहिस्ता -पहुँचती है शाम तक सुस्त चाल से --लेकिन शाम देर नहीं करती  चुस्त चाल से लम्बूतरी हो पहुँच ही जाती है अँधेरे के निकट --अँधेरे में सुझाई नहीं देता कहाँ सुख है और कहाँ पीड़ा --
कोई उदासी कोई ,कोई कुंठा ,कोई याद कोई मोह ,कोई मुक्ति -और ऐसा ही कोई निश्छल दिन कोई रात में गड़मड़ होता है कोई ठौर नहीं ,बेस्वाद और तूरा सा  दिन दूर से नजदीक की चीजों को देखता हुआ ख़त्म होता है और रात पास आकर दूर सोचती है --हरमोड़ पर भटकाव --हर भटकाव में ढेर से रास्ते --ठिठक जाओ या एक चुन लो या लौट जाओ सब कुछ आपकी सोच पर निर्भर करेगा ---लौटो तो दस पांच खिड़कियों वाला घर भी अंदर से रोशन नहीं करता, लेकिन  क्या जरूरी है हर खिड़की से रौशनी भीतर आये --लेकिन इन्ही में से किसी दिन या रात तयशुदा मृत्यु  जरूर आएगी --मृत्यु  का भय घेरता है ---'कौन हो तुम ''पूछते ही वह धूप की परछाई में गुम  होता है किसी मुकम्मल स्पर्श से जीवित होती देह --फिर छूट जाने से डरती है तेज गले से रुलाई का भरभराना रोने से बदत्तर --कितना  दम घुटता  है कोई माप नहीं, एक तपिश देह में उतरती है --जल में उँगलियाँ डूबा देना एक सुकून एक ठंडक एक राहत --लेकिन कब तक ?  एक चुप्प सी रात भी बीत जाती है -बहुत उदास किया एक उदास दिन -रात ने जो बीत गया अभी अभी, डब डब  सी आवाज़ करता पानी में--
उसे डूबते देखना भी कितना अजीब है चलो रास्ता दिखाओ कोई आदेश सर माथे चढ़कर देता है -कहीं जाने के लिए नहीं -बस ज़रा टहलते हैं -वो रात ख़त्म होती है जिसका कोई जायज अंत नहीं होता 
कोई तो है, कोई सपर्श अब भी बचा है, कोई प्रेम में पगा बैठा है- कैसा दुःख -अँधेरा या डर ये एक आश्चर्य समय होता है जिसमें रहने का सुख -दुःख सपर्श राग विराग --सारे कुछ को मुठ्ठी में दबाये रहना और इसी सच बीच जीना --पंख ऊग आये तो कौन ना चाहेगा  उड़ना उसे तो वैसे भी पसंद नहीं, ठहर जाना गति से बचकर --अपनी ही इक्षाओं की नजर कैद से स्वाभाविक मुक्ति खुश भी तो करती है --कब लौटोगे ? लौटोगे तो जरूर --सवाल के जवाब का इन्तजार कौन करे --तुम्ही बताओ हे तथागत उस उजल और साफ दिन में जैसा आज यहाँ है ये दिन तब जब एक समरस समय में तालाब जल बीच में एक सौ आठ रक्त-चम्पा के फूलों से शिव का अभिषेक करुँगी --''एका दिवशी ये होणार'' --एक दिन ये होगा जरूर 
[समय और धीरे चलो --बुझ गई राह से छाँव --दूर है पि का गाँव --धीरे चलो ]

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

बचपन के डर हमेशा कमजोर नहीं होने देते समय के साथ वो आपके व्यक्तित्व को जिम्मेदार और मजबूत बनाते

व्हाट्स एप्प पर कुछ दिन पहले एक मैसेज कुछ इस शक्ल में था ,म sssssssssम -मी ईईईईईईई''सुनोsssनाsss  -वो एक लम्बी बात थी,बेटी ने जो  कहना चाहा,वो बाद में, इस संस्मरण के बाद ---
चार साल की बेटी को शाम अक्सर सामने वाले पार्क में जूते मोज़े फ्राक पहनाकर  घुमाने ले जाती थी वो भोपाल का पांच नंबर बस स्टॉप कहलाता है  उस पार्क में एक छोटा सा तालाब था जो आज भी है,जिसमें तब भी, आज भी ढेर से सुन्दर कमलफूल खिले रहते हैं, लगता था की बस उन्हें एक टक  देखते ही रहो, पार्क में ही एक साइड में मंदिर और दूसरी तरफ बच्चों के खेलने के लिए छोटे झूले और करीब छह फूट ऊँची एक फिसल पट्टी थी --मेरी बेटी आहिस्ता  अपने नन्हे क़दमों से ऊपर चढ़कर बैठ तो जाती थी लेकिन ऊपर से नीचे फिसल कर आने में उसे डर लगता था, तब ऊपर से नीचे आने में उसे मेरे सपोर्ट  की जरूरत होती और में उसका होंसला आफजाई करती उसे पुश करती और वो धीरे धीरे फिसलते हुए नीचे आती फिर उसके पैर रेत के ढेर में धंस जाते --वो जोर से हंसती मानो अपने ही बल पर कोई जंग जीत ली वो  समझ ही नहीं पाती कि उसकी इस बहादुरी में, माँ का कितना बड़ा सहारा है --वो रेत भरी हथेलियों को फ्राक से पोंछते हुए फिर से दुगने उत्साह से पीछे सीढ़ियों की तरफ दौड़ जाती,लेकिन हर बार ऊपर जाकर उसे माँ  के सहारे की जरूरत पड़ती ---एक बार मैंने उसे ऊपर चढ़ते हुए देखा, फिर मेरा ध्यान बंट गया में भूल गई की ऊपर जाकर उसे फिर मेरे सहारे की जरूरत होगी,  में तालाब के किनारे खिले कमल के फूलों को देखने में मग्न थी - तभी एक चीख सुनाई दी -म sssssमी ssईईइ  लगा जान निकल गई मैंने पलटे बिना ही बेटी के लहूलुहान होने की कल्पना कर डाली ---और उसकी  तरफ तकरीबन भागते हए देखा बेटी उसी पॉइंट पर ऊंचाई पर अटकी हुई थी --करीब पहुंची तो वो डरी हुई सी साफ साफ आवाज में बोली मम्मी आप उधर फूल देख रही हो मुझे देख ही नहीं रही हो --वो-रुआंसी सी-- थी मुझे यहाँ ऊपर से डर लग रहा है मम्मी  मैंने उसे आहिस्ता से ऊपर से नीचे की ओर फिसलने में मदद की --वाकई में,मैं उस दिन बेहद  शर्मिंदा थी --फिर मैंने कभी उसकी तरफ से इस जिंदगी में कभी  गफलत नहीं की ---सोचकर ही डर  जाती हूँ की ऊपर से वो गिर जाती तो ---?आज वो करोड़ों मील मुझसे दूर है लेकिन उसे मेरी ऐसी ही अब भी मानसिक सम्बल की जरूरत वक़्त -बेवक़्त पढ़ जाती है  समझती हूँ वो कहती नहीं लेकिन में जानती हूँ --उस वाक्यात के बाद  फिर मैंने कभी आज तक उसमें गिर जाने का भय तक पैदा नहीं होने दिया ना ही कहीं गिरने दिया ना डरने दिया वक़्त जरूरत जहाँ जरूरत हुई उसके लिए न्यायोचित लड़ाई भी लड़ी उसे बुलंद होना उसकी प्रिंसपल के सामने बोलना, सच और झूट में फर्क करना सिखाया दूसरों को अपनी मदद से ऊपर उठाना भी --हर हाल में जीना लेकिन मजबूर होकर नहीं थोड़ी मुश्किलें तो अब भी आती हैं लेकिन  वो खुश है और में भी
वाहट्स एप्प पर जो चार - पांच दिन पहले उसका[बुलबुल] जो मैसेज था वो ही बचपन वाली आवाज में, वो इस लिए की उस दिन सुबह से उसके कई मेसैजेस थे ,दो चार मिस्ड काल भी,, अमूमन मोबाईल मेरे आस पास ही रहता है लेकिन उसी दिन बैटरी डाउन थी चार्जर पर लगा कर में बाई के साथ घर की साप्ताहिक सफाई में लग गई --दोपहर में जब देखा तो वही मम्मी वाली लम्बी टोन में लिखा -हुआ --में परेशान हो गई कई फोन और मैसेजेस दिए लेकिन कुछ उत्तर नहीं मिला आखिरकार रात उसने फोन किया -बोली एग्जाम था ,आपकी याद आ रही थी सोचा आपसे बात कर लूँ -  लेकिन आप का तो फुरसत ही नहीं,मुझे उसका बचपन याद आया, ना बचपन के डर हमेशा कमजोर नहीं होने देते समय के साथ वो आपके व्यक्तित्व को जिम्मेदार और मजबूत बनाते [मेरी बेटी बुलबुल इस वक़्त कोलोराडो यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग के फोर्थ सेमेस्टर की पढाई कर रही है  और मुझे आज उसकी जोरदार याद आ रही है ]

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

उसका एक अव्यक्त दुःख , एक आर्तनाद रोजाना मुझे सुनाई देता है --मुझे रूकना पड़ता है उसके पास,सांत्वना देती हूँ - कहती हूँ कब तक ठूँठ रहोगे एक दिन यहीं से कोंपले फूटेंगी तब तुम चारों तरफ से लहराती शाखाओं वाले सुन्दर वृक्ष बन जाओगे --तब देखना किसी को भी याद ना रहेगा की तुम कभी इतने निरीह रहे होगे



  1. हमारी कालोनी के पार्क में  एक पलाश के पेड़  ने ,आज फिर दिल दुखाया पार्क के एक सिरे से, थोड़े पहले ये  टेसू का पेड़ अपने  सहोदरों से बिछड़ा महसूस होता है मेरे ख्याल से --न्यू भोपाल की बस्ती बनने के क्रम  में छोटे जंगलों को काटा छांटा  गया होगा --कुछ पेड़ काटे गए होंगे --कुछ को जड़ से उखाड़ा गया होगा, पता नहीं ये किस  कर्मचारी की दयालुता की वजह से बच गया  या अपनी  कमसिन फूलों की खिली हुई  डालियों की वजह से, ये तो पता नहीं ,किन्तु ये पार्क की हद में है लेकिन इसका आधा तना सड़क के बहार तक फैला  हुआ है जो बाउंड्री वाल के सहारे बहार की ओर सड़क तक अपनी शाखाओं के साथ फूलों से लदे - फदे  होने के बावजूद ,उदास नजर आता है 
  2. इसके  ढेरों पत्तों और उनकी उपयोगिता को भी आज भुला दिया गया है कभी जन्म मरण आयोजनो कथा पाठ तो प्रसाद में इसके बने दोनों पत्तलों के बिना काम ही नहीं चलता था और आज किसी को जरूरत ही नहीं ,मनुष्य ने सभ्य होकर हर चीज का विक्लप ढूंढ लिया है हाँ बस कहावतों में याद रखा है --फिर वही  ढाक के तीन पात ---
  3. --जमीन से थोड़ा  ऊपर ही इसकी  दो विभाजित भुजाओं में से किसी ने एक भुजा को काट दिया है लगता है जैसे कोई हादसा हुआ है --पलाश वहीँ से ठूँठ नजर आता है --विकलांग भी दुःख होता है उसे यूं देख कर , नजदीक जाने पर --लगता है इस हादसे के जिमेदार लोगों की शिकायत करना चाहता है -लेकिन  कोई सुने तब ना -किसे फुरसत क्षण भर रुके उसके पास। -अपनी एक ही भुजा से ऊपर की और जाता हुआ ये टेसू मुझे निरीह युवा पुत्र  की तरह दिखाई पड़ता है ---
  4. उसका एक अव्यक्त दुःख , एक आर्तनाद रोजाना मुझे सुनाई देता है --मुझे रूकना पड़ता है उसके पास,सांत्वना देती हूँ -  कहती हूँ कब तक ठूँठ रहोगे एक दिन यहीं से कोंपले फूटेंगी तब तुम चारों तरफ से लहराती शाखाओं वाले सुन्दर वृक्ष बन जाओगे --तब देखना किसी को भी याद ना रहेगा की तुम कभी इतने निरीह रहे होगे बस खुश् रहा  करो और इन्तजार करो उस दिन का जब लोग ठिठक कर तुम्हारे पास रूकेंगे तुम्हे निहारेंगे तब तुम अपनी डाल  पर खिले सैकड़ों फूलों संग दुलार प्यार में ही व्यस्त होगे 
  5. टेसू  के खुरदुरे तने पर काली चीटियों की कतार ऊपर तक जाती दिखाई पड़ती है जो फूलों के गुच्छों के पास जाकर खो जाती है ---चीटियों की मीठी प्यास बुझाता --खुद टेसू कितना प्यासा है, कौन जनता है --उदासी में भी मुस्कुराता हुआ , इसके ठीक सामने --डा मित्रा का बँगला  है जो आजकल अपनी चमचमाती बड़ी सी  सफेद गाडी  को इसकी शाखाओं के नीचे  खड़ा कर देते हैं --सुबह देखो तो लगता है किसी युवती के सफेद दुपट्टे पर रेशमी  सिंदूरी टेसू फूल कढ़े  हो --यहाँ वहां ये एक अद्भुत नजारा होता है --लेकिन कारवाश वाला बड़ी बेरहमी से उन्हें बुहारता हुआ यहाँ  वहां बिखेर देता है --फूल गिरते हुए टायरों के नीचे  बिखरते -कुचलने को अभिशप्त होते जाते हैं, डा मित्राका  परिवार शायद ही कभी इसको अपनी प्यार दुलार भरी नजरों से देख पाया हो ---काश ये मेरे घर के सामने होता  --इसके दहकते फूलों में कितनी ऊर्जा है इसके रंगों में कितनी प्रियता है वो समझ पाते --जिंदगी में वो सब आपके पास नहीं होता जिसकी आपको दरकार होती है ---देवताओं  के प्यार से अभिशप्त टेसू के फूलों को इन दिनों मंदिर में देवी देवताओं की मूर्ति पर भी अर्पित कर आती हूँ शायद कभीये शाप मुक्त हों और इन्हे भी चौतीस करोड़ देवी देवताओं का पवित्र और असीम दुलार -प्रेम मिल सके अन्य फूलों की तरह और इसके पेड़ को भी वो ही मान्यता मिले जो बरगद और नीम पीपल की है --कोशिष्टो कर ही सकती हूँ 

  6. [व्यक्ति एवं अन्य द्वारा निर्मित ऐसी कई स्थितियों के अलावा भी संसार में बहुत कुछ है जिनके अस्तित्व से  जुड़कर हमारे विचार नवीन ऊर्जा से भर जाते हैं --जैसे वृक्ष नदी पर्वत पहाड़ पशु पक्षी --जो जीवन की गहरी जड़ों तक ले जाते हैं हमारी स्मृतियाँ ताज़ी करते हैं  और सबसे ज्यादा आसानी से याद रखने वाली बात को याद रखने और भूल जाने वाली बात को भूल जाने में सहायक बनते हैं --मेरा अनुभव तो यही है ---]

शनिवार, 7 मार्च 2015

सोचते ही पहुँच जाना भीतरी हदों तक --बेछोर आसमान में ,बियाबान जंगलों में पुराने अस्त्रों से बार बार मुश्किलों को, काट छांट कर पहुंचना तुम तक, एक राग, एक प्रियता का बुलाना।

जब तुम्हारी लय टूटती है,असंगत होती जाती है -अच्छा नहीं लगता एक छोटी सी जगह में छोटे-छोटे शब्द अनुत्तरित हो घायल कबूतरों की तरह लौटते हैं,--सुरमई शाम में, अपने मौन में अपनी यात्रा से ऊबा हुआ  थोड़ा- थका सा ,दिन डूब ही जाता है ,तारीखें बदलती जाती हैं लेकिन कुछ चिन्हित पल रूक रूक दस्तक देते ही जाते हैं उस तरफ से कोई आहट  ही नहीं जैसे कोई बीहड़ शुरू हो -दूर तक- देखो तो कुछ सुझाई नहीं देता -किसी पल को तो सन्नाटा अपनी जद  में लेने की जिद्द भी करता है निजी वजहों से बिछुड़ते पल धूसर हो रह जाते हैं यकीन जानो दिल भी दुखता है बेहद तकलीफ भी होती है ये टोकरी भर लोग मेरे तुम्हारे बीच मन भर पहाड़ कैसे बन जाते हैं, नहीं जान पाती --ये तो मानोगे मुझे सब रंग अच्छे लगते हैं --बस यही धूसर रंग नहीं, सन्नाटे का चुप्पी का ये रंग, हद दर्जे तक इससे मुझे नफ़रत है --बाकी सब रंग मुझे लुभाते हैं-अपने खुश रंग में --फिर भी रंगो से मुझे डर  लगता है--तुम भी जानते हो -सफेद सुबह जीवन से भरा और शाम काला श्याम सा बस ये दो रंग ही अपनी सपाट बयानी में ज्यादा आकर्षित करते हैं-हालाँकि रंगो को ढोंगी होना नहीं आता,तुम्हारी कविताओं के रंगों को तो बिलकुल भी नहीं, कितनी सरलता से लिपट जाते हैं मुझसे-फिर दिनों हफ़्तों महीनो लिपटे लिपटे ही मुझमें समा जाते हैं।   लेकिन पिछले कई सालों से जबसे तुम्हे जाना है --कच्चे पीले फूलों से लदा -फदा एक प्रौढ़ टेबुआइन मेरे सिरहाने वाली खिड़की की चौखट  तक आकर अपनी भव्यता के साथ खिल-खिल करता,खुश करता है उसके रूई जैसे नर्म गोलगोल फूल  हवा चलते ही अंदर सिरहाने तक फैल  जाते हैं 

 सिरहाने खुशियां हो तो भरपूर नींद का आना लाज़िमी है--किन्तु  हर दिन तो ऐसा नहीं होता -खुशियों और उदासियों के सामानांतर स्मृतियाँ चलती है मन को मथती  हुई. उस दिन तुम्हारी हथेलियों में कच्चे आम्रबौर की खुशबू थी वो हथेलियाँ मेरे हाथों में थी और उड़ती ख़ुश्बू आँखों से भर एक दूसरे पर उलीचते हुए हम दोनों -तुम्हे जाना था,मैंने बस जाते हुए महसूस किया तुम्हे,देखा नहीं,देख ही नहीं सकती थी दर्द आँखों में घुलता है बहता नहीं - उस शाम के बाद देर तक रात भी जागी रही संग-घर से लगे उजाड़ पार्क को नगर निगम वाले देर रात तक रेट गिट्टी, मिटटी से-पूरते रहे स्मृतियों की आवाजें भी आती रही --भरती  रही सुबह तक , कहते हैं, जिस साल आम्र ज्यादा फलता है , वो साल शुभ शुभ होता है एक हठ भरी कोशिश --अब ना छूटेगी ना घटेगी वो शुभ महक ,दिन बढ़ते हैं तपे हुए दिनों के साथ  धत्त'' हठात ये सोचना की ऐसा भी होता है --और सोचते ही पहुँच जाना भीतरी हदों तक --बेछोर आसमान में ,बियाबान जंगलों में पुराने अस्त्रों से बार बार मुश्किलों को, काट छांट कर पहुंचना तुम तक, एक राग, एक प्रियता का बुलाना। सजीव स्मृतियों का चलना कोई समृति भूलती नहीं कोई सपर्श छूटता नहीं ---बिना सलवटों वाला शांत समुद्री हरा हरा रंग - मन को सजल बनाय रखता है --लेकिन सृष्टि का क्रम टूटता है एक दुनियादार औरत अंदर बैठी डराती है अपनी जिरह मुश्किल में डालती है सच और सच के सिवा कुछ नहीं वर्जित क्षेत्र में अपनी पहचान मत खोना ?--उसकी बातों से दूर निर्भीक बन सोचती हूँ तुम्हे, बस तुम्हे सोचना ही तो जिलाता है भीतरी कोई अभाव, जिसे लबालब भरता है अपने एकांत और बाहरी शोर से उपजी एक तरंग एक घटना जिसके तारतम्य में विनिर्माण को गूंथना और फिर देखना देर तक उजालों में दर्ज होती तुम्हारी उपस्थिति --एक नैतिक अन्वेषण की मानिंद जिसे में आखिर खोज ही लेती हूँ अपनी पनीली खोजी आँखों से एक कच्ची महक बजती है --डूब जाने को आतुर 
 
[तनहा उसे अपने दिले तंग में पहचान हर बाग़ में हर दश्त में हर संग  में पहचान 
हर आन में हर बात में हर डग में पहचान,आशिक़ है तो दिलबर को हर रंग में पहचान ]


[नज़ीर]  

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

-देह अद्भुत शान्ति की खोज में अपने से ही नितांत अलग थलग चल पड़ती है ---चरम उपलब्धि से कुछ कदम पीछे ही, राग -विराग ,आसक्ति -अनासक्ति ,मिलन--बिछोह और समय की क्रूरताओं में हमारी समिल्लित अनुभूतियों के बीच आकार लेता

में कहना चाहती थी,और नहीं कह पाई,उस दिन --उसका मिलना मतलब अक्सर कुछ ना कुछ छूट जाना--और चले जाने के बाद सैकड़ों बातों से मन भर लेना --येभी- वोभी जाने क्या क्या कहना, रह जाना   
दो चीजें ही हमें एक जुट,जुड़े हुए और एक रखती है --तुम्हारा शिद्दत से लौटना और मेरा इन्तजार --भीतरी  और बाहरी-और फिर लौटकर --मेरा पुकारा गया नाम, जब --आवाज फकत आवाज नहीं होती है उस वक्त वो --एक आख्यान होता है - 
समय के  अजनबी रंगो ,रोशनियों  शब्दों की बाढ़ में --बहुत भटकन और अंतराल के बाद मिलने वाला चेहरा सचमुच अपना है, संशय से मन कुलबुलाता है ---तुम्हारे चेहरे पर टिकी मेरी आँखें बस मूंद सकती है ----उधेड़बुन में भटकते शब्द कुछ अर्थ बुन पाते तभी ये सोच कि - जानती हूँ भटकाव जिंदगी को गहराई देते हैं -कितना अच्छा होता --आदमी किताब की तरह खुल  तो  पाता। 
अक्सर  दुःख निराशाओं के मायने ढूँढ़ते हैं --मेरे प्रयत्नो में मुक्ति की कामना नहीं होती वहां -कारण और परिणामों का विश्लेषण भी नहीं होता --इसलिए दुःख भी नहीं , 

जानते हो- जिस समय में तुम नहीं होते, भीतरी अनुभव संसार खाली सा अपने अधूरे आपे के साथ विकलांग हो कर रह जाता है --एक बेसुरी चुप्पी -जिसमें -फरियाद की कोई लय  नहीं रूखा सूखा सा-- 
एक ध्यानाकर्षण की सूचना की तरह --दूसरे छोर के शोर गुल में अनसुनी -गुम हो रह जाती है --क्या कहूँ बस अपना वास्ता ही दे सकती हूँ कितनी जकड़न -सिहरन एक रात बिन सोये बीतने की थकान -भरम हो जाता है --इस सत्य के साथ की में बस वो हिस्सा हूँ --जहां  भय और इक्षा का एक सा चेहरा है, जिसे तुम्हारी भीतर वाली आवाज पहचानती है ये --सोच कि  -तुम्हारे लिए इस कदर जरूरी क्यों है  दुःख का अपने साथ बनाय रखना  ? दूर दराज के ठिकानो में ढूंढ  आना फिर  बेहाल होना ---और नहीं मिलना खोई हुई चीजों की तरह एक बैचैनी --थोड़े संदेह की तरह की, मिलोगे भी या नहीं शंका-कुशंका के कुहासे में चीजें साफ नहीं होती एक अहसास की, इतनी आवाजों में से कौनसी पद चाप देर तक सुनाई देती रहेगी ,सुख तो सापेक्ष है --वसंत आते आते रूक जाता है एक हद के बाद -
-देह अद्भुत शान्ति की खोज में अपने से ही नितांत अलग थलग चल पड़ती है ---चरम उपलब्धि से कुछ कदम पीछे ही, राग -विराग ,आसक्ति -अनासक्ति ,मिलन--बिछोह और समय की क्रूरताओं में हमारी समिल्लित अनुभूतियों के बीच आकार लेता --हमारा बचा हुआ प्रेम,इसी उम्मीद पर तो बाढ़ को तैर कर --तूफान को पार कर --इस दुनिया को तुम्हारी ही आँखों से देखते हुए,कोई अगर बची हो उन अधूरी इक्षाओं को पूरा करना, जीना चाहती हूँ, असंभव में कुछ संभव जोड़ते हुए -उन -सारे सपर्शों को गंध में लपेट--झिलमिलाते हुए 
अधीर दिन की तरह,  दो शब्दों में बोला गया एक शब्द, शहद में गूंथा हुआ नाम , देह की परिचित भाषा में - दिनों हफ़्तों महीनो सालों जिसमें तुम उजाले की शक्ल में दिखाई देते रहते हो हरदम , अपने लिए, तुम्हारे लिए बचाये गए जीवन में, अपने वासन्ती आँचल के बालूचरि ताने- बाने में,एक भरा पूरा सच, जिसे  इस जीवन में  तुम्हारे सिवा कोई कुछ नहीं जानता
 [''एक संभव दिन'' ---अपनी एक लम्बी कहानी का अंश ]

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

शब्द उसे ढाढ़स बांधते हैं ---वो उस आवाज की धुंध से बहार आती है -चुनी हुई नियति को तो एकबारगी स्वीकार किया जा सकता है थोंपी हुई को नहीं

कभी  तो क्या, अक्सर ही- निचाट दुपहरी को --खुमरी --की तरह सर पर ओढ़ लेना मजबूरी हो जाती  है 
अच्छा भी लगता है लेकिन बोझ भी लगता है ऐसी बिन बुलाई बरसात में चौक चौरस्ते लहराती गीली हवा से शहर को भिगोते हुए दौड़ लगाते हैं--तेज आंधी कड़क बिजली कलेजा फटता तो नहीं डर  से बैठ  जरूर जाता है इस लम्बे चौड़े जीवन में कई शब्द सीखें --कई बिना अर्थ के शब्द, खिलौने की तरह खूब जुटाए --मुझे प्यार आता है ऐसी ही निचाट दुपहरी में जब बारिश गुजर जाती है और हर तरफ वनस्पतियों --वाली खुशबू के साथ यही गीली हवा थोड़ा थोड़ा रूक रूक कर ठिठुरती है --याद आती है वो शाम --जायज अंत था उसदिन की उस  शाम का शब्द मोहताज थे जिसे जहाँ तर्कों और इक्षाओं के बल पर नहीं परम्पराओं और संस्कारों  के बल पर सोचा गया था, समय की किल्लत थी ---ना ट्रेन के लिए कोई अनाउसमेंट  था की फलाँ अपने निर्धारित समय से दो घंटा विलम्ब से पहुंचेगी या पहुँच रही है ,अक्सर तो मुठ्ठी भर सपने भी मुठ्ठी में ही चकना चूर हो जाते हैं ----कई सवालों से खीज़ पैदा होती है कई के जवाबों से सुकून मिलता है मगर वो अधूरे रह जाते हैं ---कॉफी की  गर्म भाप में सपनीली आँखों का विस्तार रेतीला हो रह जाता है ----उसका उठना गहरी आँखों से झांकना बिछी हुई बिसात पर सधे  क़दमों से चलते हुए चले जाना ---कल्पना से बाहर  हो,छूट  जाता है समीकरण ना गड़बड़ायें -चलो फिर मिलते हैं ---शब्द उसे ढाढ़स बांधते हैं ---वो उस आवाज की धुंध से बहार आती है -चुनी हुई नियति को तो एकबारगी स्वीकार किया जा सकता है थोंपी हुई को नहीं --वक़्त नहीं रूकता कई बातों  चीजों से ---सोच का सिरा फिर रेंगता सा आगे दिशा में बढ़ जाता है ---और बहुत कुछ आँखों में उतरता है ,भरम नहीं मुझे साथ का विश्वास चाहिए वसंत चाहिए -आँखें फिर मूँदती है थक कर एक दुपहरी सन्नाटा पेड़ों पर लटका आँखों के अंधेरों में अटक जाता है ---ज़रा सब्र करो --अपने को समझाती  हूँ --वो पुराना शहर तुम्हारे सपनो में आएगा ---तुम ये सोच के तिल से --ताड़-पहाड़ क्यों बना डालती हो ---ऐसा कुछ नहीं होगा अपने से आश्वस्त होना सबसे अच्छी स्थिति है --अक्सर उसके लिए सर झटक कर कई दृश्यों को विछिन्न कर देना   भी उसी के बूते की बात है वरना तो 
कल परसों और आज जो अच्छी खासी बारिश हुई --शाम इंद्रधनुष निकल आया, रंगो संग विशवास के शब्दों ,रिश्तों और जीवन साथ उसकी दैनिक कार्यसूची में शामिल था उसे सोचना --देर रात सितारों की बातें सुनना  अंतरिक्ष में विचरना --वो तो रास्तों की निश्चिंतता रहती है --कभी कभार हताश  खाली हाथ भी घर वापसी होती है --देर रात नींद नहीं आती --आती है तो --आँखे  जागी रहती है --अपनी ही धड़कन प्रत्यारोपित दिल सी अजनबी सी --एक धुकधुकी अक्सर कलेजें में --हथेलियाँ थाम  लेती है --नाप लेती है धड़कनो में बसी आवाजों को ---नदियों बियाबानो पहाड़ों  कचरों में घूम घूम कर अपने अर्थ खोजो तो अर्थ भरे रंग मिल ही जाते हैं ----जी लेते हैं --अपनी मिटटी अपनी वनस्पति से भर लेते हैं खुद को, शुक्रगुजार हो जाती हूँ तुम्हारे साथ जाने किस किस की, धूप  हवा पानी आकाश इस उदासी इस प्रेम की भी ऐसे जीना कि  दिन महीना साल दर साल प्रेम की अबोध प्रार्थनाओं  में --बीत जाना फिर याद आता है छीजना भी --अपना आप ---जैसे कोई   पोखर गर्मियां आते आते कैसे छीजता  जाता है 
 किनारों की मिटटी से सूखता दरकता वैसे ही --और वहीँ किनारे पीले पड़ते पत्तों  से लदे  अमरक के
पेड़ों से  कुछ पत्ते गिरते सूखी जमीन की दरारों में धंसते  ही जाते हैं  आगे आकर चीजें पीछे रहती हैं --पीछा नहीं छोड़ती---बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है अपनी उपस्थिति दर्ज करने से बाज नहीं आती  टूटकर गिरते पत्तों की उदासी में से एक पल ख़ुशी  का जब एक नाम उभरता हैमोबाईल की  नियॉन लाइट में ,एक साधारण से दिन और  निरुपाय दिन में, खोई ख़ुशी  मिलने की ख़ुशी शामिल हो जाती है 

  •    उम्रे     --रफ़्त --पे  अश्कबार     न  हो 
  • अह्दे -गम  की हिकायतें मत पूछ [फ़ैज़ ]