शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

मध्यप्रदेश की बाघ कला के ये हुनरमंद कलाकार... "अब इन्हें अपनी जिन्दगी में कोई बड़े चमत्कार की दरकार भी नहीं" //-



यूं तो हर दिन महीनो सालों दर साल वो काम करते रह्ते हेँ,कपड़ों को रंगना धुलाई करना उन पर भिन्न आकार-प्रकार के छोटे बड़े पारंपरिक फूलों या अन्य डिजाइन की छपाई करना उनका पेशा है...और उनकी आजीविका का एक मात्र साधन भी अपने पेशे में पारंगत होने के बावजूद उन्हें वे सुविधाएं -खुशियाँ हांसिल नहीं है जिसके वो ज्यादा से ज्यादा हकदार है..मुश्किल हालातों में रात-दिन खटते हुए अपना काम करना इनकी आदत में शुमार हो चुका है ,और अब इन्हें अपनी जिन्दगी में कोई बड़े चमत्कार की दरकार भी नहीं रही दूसरों के चेहरे पर रंगत लाने की खातिर खुद इनके चेहरे बेनूर हो चले हैं जब किसी खरीददार को अपने हाथ की छपाई की तारीफ करते देखतें हैं तो उनकी ख़ुशी से चौड़ी होती आँखों में आप सातों आसमान झिलमिलाते हुए पा सकतें हैं
इस बात से कोई इनकार नहीं करेगा की..पूंजीवादी ताकतें हमेशा से ही ज़रा से फेर बदल के साथ सही और मेहनतकश व्यक्ति के जीवन मूल्यों से खिलवाड़ करती रही है बावजूद कलाकार की अपनी एक नैतिक जिद्द होती है जो किसी भी हालात में घुटने नहीं टेकती
मध्यप्रदेश के पश्चिमी निमाड़ के जिला खरगोन में तथा महेश्वर जिला धार के कुक्षी सहित अनेक गांवों में तकरीबन पूरा का पूरा परिवार रंगाई,छपाई और बुनाई का काम करता है जिनमे अधिकतर खत्री,बलाई और मोमिन समाज के लोग हैं ....मध्यप्रदेश के वस्त्र उधोग में अब तो पारंपरिक महेश्वरी और चंदेरी के सिल्क सूती वस्त्रों पर भी बाघ प्रिंट का तेजी से प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है ,देश के हर हिस्से में ही नहीं वरन विदेशों में भी इन भारतीय पारम्परिक डिजाइन के वस्त्र लोकप्रिय है ,बाघप्रिंट भी एक कला है जिसमे पहले कपड़ों को रंगना फिर धोना और फिर मन मुताबिक़ उन पर बाघ प्रिंट करना ...बाद इसके उन्हें सहकारी समितियों के माध्यम से बाजार में बिक्री के लिए उतारना ...बाघ प्रिंट की छपाई में उपयोग आने वाले रंग वेजी टेबिल्स डाय होते हैं..इसलिए ये सिंथेटिक डाय के मुकाबले ये महत्वपूर्ण और महंगे होते हैंये एक कठिन और धैर्य से इजाद करने वाली कला है .. ये छपाई सिल्क-खादी और पौली वस्त्रों में भी उतने ही मनमोहक और लुभावने लगते हैं जितने की सूती वस्त्रों पर.वर्तमान में साड़ियों ,ड्रेस मटेरियल ,चादरें,रनिंग मटेरियल ,और अब दरियां भी इस प्रिंट में बतौर फैशन में प्रचलन में है
बाघ नामक स्थान इंदौर [म प्र ] के नजदीक अहिल्या बाई होलकर की राजधानी महेश्वर से करीब ११० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है.बाघ में इस वक़्त रंगाई-छपाई के २४ कारखाने है ...ये सही है की म. प्र.सरकार ने पिछले १० सालों में इन पारम्परिक वस्त्रों को निर्यात करने और उनकी लोकप्रियता में इजाफा करने के लिए भरसक प्रयास किये हैं ..जहाँ-जहां ये काम हो रहा है वहाँ सहकारी समितियों के माध्यम से इनकी बिक्री की व्यवस्था है उन्हें कच्चा माल, सूत, जरी, रंग भी मुहैया होता है लेकिन इस काम में सर्वाधिक पानी का इस्तेमाल होता है .हम रूबरू होते हैं यहाँ के निवासी नूर मोहमद खत्री और उनकी पत्नी जुबैदा और बेटे इदरिस से .....उनका कहना है यहाँ से ५ किलोमीटर की दूरी पर'' मनावर '' में पानी है लेकिन बाघ में पानी की कमी है साथ ही उनका ये भी कहना है की काम के लिए ऋण नहीं मिलता...खुद अपना ही पैसा बैंक से लेने में मुश्किलें आती है...किराए की जगह लेकर काम करते हैं कहने को सरकार सब कुछ कर रही है लेकिन सब कुछ सब के लिए नहीं है दूसरी और मोहमद हुसैन मूसाजी खत्री और जमाल उद्दीन खत्री'' कुक्षी'''रहवासी जिला धार म .प्र....इनका पूरा परिवार मिलकर बाघ प्रिंट का काम करता है करीब ५० हजार की आबादी वाली इस तहसील ''कुक्षी '' में भी पानी की कमी है उनकी तो मांग ही यही है की यदि नजदीक के फाटा डेम का पानी यदि कुक्षी में छोड़ दिया जाय तो हमारी थोड़ी मुश्किलें कम हो जायेंगी ,,,चूँकि जो भी पानी हने मिलता है वो अधि कांश त सिंचाई के काम में खर्च हो जाता है जो भी हमें मिलता है उससे काम ठीक से नहीं हो पाता है ....इसके अलावा भी इतर मुश्किलें इन कलाकारों के जीवन में है ...लेकिन बुनियादी मुश्किलों को दूर किये बिना इन लोगों के चेहरे पर कोई रंग नहीं आ पायेगा ..सरकार को इसमें पहल करने की जरूरत है ....

मध्यप्रदेश में रंगाई-छपाई और बुनाई, कला और कलाकार पर केन्द्रित शीघ्र प्रकाशित अपनी पुस्तक - "रंगारा" से एक अंश...