मंगलवार, 31 मार्च 2009

यूँ किसी को हाथ पकड़ कर इस दुनिया के कबाड़ से अलग किसी ऊंचाई पर बैठा देना.....और एक मुकम्मल सच में बासी होते दिन... उससे ना पूछिए...

क्या अपने तर्कों से दूसरो के दुखों की शिनाख्त की जा सकती है नए होने के लिए प्रतिपल मरना जरूरी था .और अपने दुःख को रूक कर देखना भी इसलिए अनिवार्य हो गया ..तर्क के नियमों का अतिक्रमण किए बगैर ,औरकुछ ऐसा जानना -खोजना भीतर से बाहर की तरफ जो उसके सुख का कारण होता अपनी सामर्थ्य पर उसे भरोसा था ,ये एक तर्क ही था अपने आप से....आखी र नए मौसमों की खुमारी भी तो उतरती ,वो खुश थी या नही ये ठीक से जान पाना मुश्किल था ,लम्बी यात्राओं पर जाने और लौटने के बाद ताजगी के साथ शामिल दुखों का नए सिरे से खुल जाना ....सावधान आगे खतरनाक मोड़ है.के हर आधा किलोमीटर की दूरी पर लिखे बोर्ड को पढ़ते-डरते पोर्ट पर पहुँच ही गई ...मौसम की खराबी की वजह से फ्लाईट चार घंटे लेट थी ...मुश्किल यही की पिछली मुश्किलों और स्म्रतियों मैं जाने का मतलब ...आसान नही था बाद मैं लौटना .....कई दिनों तक दुनिया दारी के बीच इंटेंसिव केयर से उबर पाया मन ,तब घर के पेड़ पौधों के पत्तों पर खिली धुप मैं धूल की पर्त थी बोनसाई की जड़ें हद से बाहर जारही थी ,छंटाई की जरूरत थी ,नए सिरे से घर की सफाई की भी, -किताबों को करीने से रखना विषय नुसार रखना, टेग लगाना,चलता रहा फिश टैंक में मछलियां लगातार मर रही थी हर दिन एक मरी मछली को किसी पेड़ की जड़ में रखना और उनकी चमकीली देह को चींटियों को खाते हुए देखना बर्दाश्त के बाहर हो चला था ,एक पसंदीदा ब्लेक फिश बची थी ...जल्द ही और रंगीन मछलियाँ खरीदना तय था ,वार्ड रौब मैं सब कुछ उलट-पुलट था काटन -सिल्क साडियां बेतरतीब तरीके से मिक्स हो चुकी थी उन्हें छांटना ड्राई क्लीन को देना -किचिन मैं इकठ्ठा हुए डिब्बे बोतलें, जार, रद्दी को फेकना ,परदों को बदलना सब कुछ चलता रहा ....उसके बाद कुछ दिन सूकून रहा ग्रीन टी वाली खुशबु ...से दिल दिमाग तरोताजा रहा ,लेकिन एक स्थाई अंतरा मन में खुश मिजाज होने का ढोंग रचता रहा ....ये भी जल्दी ही समझ आ गया, सर्दियों के दिनों में ढेरों मौलश्री के फूल बटोरना फिर उन्हें हथेलियों में भर जोरों से साँस लेना ...छोटे और तेज खुशबू वाले मौलश्री एक अज्ञात खुशी में भीग जाने वाले अहसास को लिए होते थे,एक नर्म आहट ,चाशनी जल में भीगती आवाजें ..तो क्या सब कुछ झूट था वो मैत्री वात्सल्य ,वो यूँ किसीका हाथ पकड़ कर इस दुनिया के कबाड़ से अलग -थलग किसी ऊंचाई पर बैठा देना ...कुछ गुमने-पाने का अहसास स्थिर हो जाए ....ऊंचाई से उसका डर ही शायद उसे किसी गहरी खाई मैं फ़ेंक गया, शिलोंग की सबसे ऊँची पहाडी से नीचे अतल में अपने को देखना जिन्दगी खुश है आग से भरी नदी को पार कर लेना बिना झुलसे ...और फिर ठेल दिया जाना की देखें फिर झुलसती हो या नही वो आँखे बंद कर लेती है ...होल्ड मी टाईट...उसी गर्माहट में ..देखते -देखते चटख -पलाश खिलने का मौसम आपहुंचा .धीरे-धीरे पलाश भी मुरझा गए --रंग उड़ गया उनका तेज धूप में, पेड़ों के नीचेबिखर कर, मौसम की क्रूरता बे आवाज़ ...एक्सक्लूसिव होकर रह गई.....उसने एक लय ईजाद कर कर ली थी इस बीच ,एक चक्कर घिन्नी में इक्च्छा,इर्द-गिर्द सपनों के, जिनका कोई सिरा नही था ,और सारी गड्ड-मड्ड यहीं से शुरू होती थी ,अपने को लानत भेजने के अलावा कोई चारा नही बचता ..एक मुकम्मल सच में बासी होते दिन, फिर भी उन दिनों की ताजगी में लौटना -मायूस होना जरूरी हो जाता उससे शिकायत थी, लंबे अरसे से ख़त ना लिखने की -यूँ ख़त तो उसने कभी लिखा भी नही जो कहा वो ही बस ख़त की शक्ल में अमिट-अक्षय था ..सीने में, करिश्मे के इन्तजार में उम्र का बीतना इलियट की कोफी के चमच्चों के साथ वो सोचती रह गई जो झूट था.. सामने था, सच था तिलस्मी ...घर दूर बहुत पीछे छूट गया ,बातें टल गई,ख़त्म नही हुई ...उसकी हथेलियों में सौ प्रतिशत सन्यासी हो जाने के चांस थे...जब पूछा तो यही कहा सच कोई हाथ-वाथ देखना नही आता ,अंक ज्योतिष पर तो भरोसा है लेकिन लकीरों का फरेब....एक हँसी ...आंखों मैं मुक्ति की पीडा के साथ छटपटाहट ,रुलाई ना फूटे और रोना आए तो... साथ चलते ना कोई काँटा गडा ना तो..कोई तिनका आँख तले अडा..ना कोई चोट लगी ना ठोकर ..हर चीज को शब्द दे देने में माहिर जल में घुलते हुए शब्द ...डूबते हुए ,उससे ना पूछिये अपने साहिल की दूरियां ....बुद्ध के शब्द... एक साँस ,एक शब्द ,एक वाक्य ,के बाद हम वो नही हो सकते जो उसके पहले थे,हर क्षण अलग....कोई हाथ हिला कर बिदा देता है...खीचकर माथा चूम लेता है आंखों की नमी माथे पर देर तक ठंडक देती ,असुआई आंखों से पीछे, सब कुछ धुंधला जाता है ..उसकी फलाईट का नंबर अनाउंस होता है... ।
कैसे-कैसे मरहले सर तेरी खातिर से किए ,कैसे-कैसे लोग तेरे नाम पर अच्छे लगे...शैदा रोमानी .चित्र एलिफेंट फाल्स ..शिलोंग,