रविवार, 28 मार्च 2010

देखना लौटती डोंगियों को जिनके आवारा मस्तूलों पर हवा के थपेड़ों ने जर्जर शब्दों में कुछ लिख दिया है .इस मायावी-दुनियावी का शायद कोई गीत ...

पतझर कि उमस भरी सुबह में एकाध दिन ऐसा भी होता है ,...यही की एक छोटी सी जगह में दो तीन शब्दों से बना एक नाम अपने तपे हुए रंग में घटित होता हुआ दिखाई देता है,एकदम अनुतरित ,गुपचुप अपने मौन में ,अपनी यात्रा से उबा हुआ,थका सा ,आरोह-अवरोह में लेकिन किसी पूर्व राग के अनहद में गूंजता हुआ.उन्मुक्त इक्छाओं के आकर्षण से विमुक्त -----बंद खिडकियों के खुलने का इन्तजार करता सा मानो एक भी खिड़की खुली नहीं की वो झट से चोंच में तिनका लिए चिरैया की तरह खिड़की की मुंडेर पर जा बैठेगा ....सोच ही काफी है ,थोड़ा ठंडी हवा,थोड़ा ख़ुशी का कतरा नजदीक होकर गुजरता है तारीखें बदलती है ,दस्तकें देती है ,कुछ पल को, पल भर का सन्नाटा अपनी जद में लेने की जिद्द करता है ..निजी वजहों से बिछुड़ते पल तहखानो/तिलिस्म में कैद हो जाते हेँ, एक इतिहास की यात्रा में ,स्मृति में एक हंसी गूंजती है... ढेर से खिलने वाले फूलों के दिन मामूली ख़ुशी दे पातें हेँ पीले फूलों की भव्यता के साथ लदा-फदा तेबुआइन खिलखिलाता है ...खुशियों के समानांतर और स्मृतियाँ मथती हेँ ,आम के कच्चे पत्तों की तूरी सी खुशबू पोर-पोर में बजती सी सन्नाटे को चीरती है बेखौफ चटकता है बहत कुछ,और कुछ घुलता भी है,कुछ मिलता भी है कुछ निरस्त तो कुछ को विलोपित करना होता है .....हाथों की नमी लकीरों में छिपने का ठिकाना ढूँढ लेती है आद्रता की लम्बी लकीर सी उनींदी प्रार्थना सुन ली जाती है ...खुशी कुछ पल को ठहर जाती है ...तट पर बंधी डोंगियाँ कसमसाती है तट छोड़ लहर संग बीच भंवर डूब जाने को आतुर अब ये जानना जरूरी तो नहीं की कुछ मिल जाए तो कुछ ना कुछ छूट भी जाएगा ...अपनी ही जिरह मुश्किल में डालती है --सच और सच के सिवा कुछ नहीं ....स्मृतियों के भरोसे यातना शिविर से बाहर आना ..वर्जित क्षेत्र में अपनी पहचान खोना --एक हठ भरी कोशिश जीत के भरोसे हारी गई लड़ाई ..एक पार्थिवता गलती ही जाती है,पहुंचाती है भीतरी हदों तक, सुनो कहती हूँ,बची हूँ बेछोर आसमान में -बियाँबान जंगलों में, हर, सुनवाई स्थगित है एक राग, एक रंग, एक प्रियता हरदम बुलाती रहती है फूले-खिले टेसू के रंगों में ...जहाँ अभी-अभी पेड़ों की टहनियों पर थोड़ा कोमल नन्हे पत्ते उगना शुरू हुए हेँ कुनमुनाती इक्छाओं से एक रूंधता हुआ शब्द बाहर आता है ,जिससे दूर है बहुत कुछ मसलन मन्त्र -म्रत्यु तर्पण हार जीत स्मर्ति और बहुत कुछ टूटना-जुड़ना अचिन्हित ...कोई स्मृति भूलती नहीं, कोई स्पर्श छूटता नहीं.. बिना सलवटों सारा क्रम टूटता जाता है एक दस्तावेजी द्वैत भाव अक्सर जिला देता है, इस उमस में भी कोई खिला फूल देखना किसी भीगी चिड़िया को बार-बार पंख झाड़ते हुए देखना स्मृति कक्ष में दर्ज हो जाता है, ढेर से तर्कों के उष्मा भरे उजलेपन के साथ , बावजूद ये मौसम बीतेगा जरूर अपने एकांत और बाहरी शौर से उपजी एक तरंग एक घटना जिसके तारतम्य में विनिर्माण को गूंथना ,और देखना लौटती डोंगियों को जिनके आवारा मस्तूलों पर हवा के थपेड़ों ने जर्जर शब्दों में कुछ लिख दिया है .इस मायावी-दुनियावी का शायद कोई गीत...

अक्स ऐ खुशबू हूँ बिखरने से ना रोके कोई,और बिखर जाऊं तो मुझको ना समेटे कोई
यह क्या की में तेरी खुशबू का जिक्र सुनू,तू अक्स ऐ मौजे गुल है तो जिस्म ओ जाँ में उतर ...
(स्व.परवीन शाकिर मेरी पसंदीदा मशहूर शायरा)