पतझर कि उमस भरी सुबह में एकाध दिन ऐसा भी होता है ,...यही की एक छोटी सी जगह में दो तीन शब्दों से बना एक नाम अपने तपे हुए रंग में घटित होता हुआ दिखाई देता है,एकदम अनुतरित ,गुपचुप अपने मौन में ,अपनी यात्रा से उबा हुआ,थका सा ,आरोह-अवरोह में लेकिन किसी पूर्व राग के अनहद में गूंजता हुआ.उन्मुक्त इक्छाओं के आकर्षण से विमुक्त -----बंद खिडकियों के खुलने का इन्तजार करता सा मानो एक भी खिड़की खुली नहीं की वो झट से चोंच में तिनका लिए चिरैया की तरह खिड़की की मुंडेर पर जा बैठेगा ....सोच ही काफी है ,थोड़ा ठंडी हवा,थोड़ा ख़ुशी का कतरा नजदीक होकर गुजरता है तारीखें बदलती है ,दस्तकें देती है ,कुछ पल को, पल भर का सन्नाटा अपनी जद में लेने की जिद्द करता है ..निजी वजहों से बिछुड़ते पल तहखानो/तिलिस्म में कैद हो जाते हेँ, एक इतिहास की यात्रा में ,स्मृति में एक हंसी गूंजती है... ढेर से खिलने वाले फूलों के दिन मामूली ख़ुशी दे पातें हेँ पीले फूलों की भव्यता के साथ लदा-फदा तेबुआइन खिलखिलाता है ...खुशियों के समानांतर और स्मृतियाँ मथती हेँ ,आम के कच्चे पत्तों की तूरी सी खुशबू पोर-पोर में बजती सी सन्नाटे को चीरती है बेखौफ चटकता है बहत कुछ,और कुछ घुलता भी है,कुछ मिलता भी है कुछ निरस्त तो कुछ को विलोपित करना होता है .....हाथों की नमी लकीरों में छिपने का ठिकाना ढूँढ लेती है आद्रता की लम्बी लकीर सी उनींदी प्रार्थना सुन ली जाती है ...खुशी कुछ पल को ठहर जाती है ...तट पर बंधी डोंगियाँ कसमसाती है तट छोड़ लहर संग बीच भंवर डूब जाने को आतुर अब ये जानना जरूरी तो नहीं की कुछ मिल जाए तो कुछ ना कुछ छूट भी जाएगा ...अपनी ही जिरह मुश्किल में डालती है --सच और सच के सिवा कुछ नहीं ....स्मृतियों के भरोसे यातना शिविर से बाहर आना ..वर्जित क्षेत्र में अपनी पहचान खोना --एक हठ भरी कोशिश जीत के भरोसे हारी गई लड़ाई ..एक पार्थिवता गलती ही जाती है,पहुंचाती है भीतरी हदों तक, सुनो कहती हूँ,बची हूँ बेछोर आसमान में -बियाँबान जंगलों में, हर, सुनवाई स्थगित है एक राग, एक रंग, एक प्रियता हरदम बुलाती रहती है फूले-खिले टेसू के रंगों में ...जहाँ अभी-अभी पेड़ों की टहनियों पर थोड़ा कोमल नन्हे पत्ते उगना शुरू हुए हेँ कुनमुनाती इक्छाओं से एक रूंधता हुआ शब्द बाहर आता है ,जिससे दूर है बहुत कुछ मसलन मन्त्र -म्रत्यु तर्पण हार जीत स्मर्ति और बहुत कुछ टूटना-जुड़ना अचिन्हित ...कोई स्मृति भूलती नहीं, कोई स्पर्श छूटता नहीं.. बिना सलवटों सारा क्रम टूटता जाता है एक दस्तावेजी द्वैत भाव अक्सर जिला देता है, इस उमस में भी कोई खिला फूल देखना किसी भीगी चिड़िया को बार-बार पंख झाड़ते हुए देखना स्मृति कक्ष में दर्ज हो जाता है, ढेर से तर्कों के उष्मा भरे उजलेपन के साथ , बावजूद ये मौसम बीतेगा जरूर अपने एकांत और बाहरी शौर से उपजी एक तरंग एक घटना जिसके तारतम्य में विनिर्माण को गूंथना ,और देखना लौटती डोंगियों को जिनके आवारा मस्तूलों पर हवा के थपेड़ों ने जर्जर शब्दों में कुछ लिख दिया है .इस मायावी-दुनियावी का शायद कोई गीत...
अक्स ऐ खुशबू हूँ बिखरने से ना रोके कोई,और बिखर जाऊं तो मुझको ना समेटे कोई
यह क्या की में तेरी खुशबू का जिक्र सुनू,तू अक्स ऐ मौजे गुल है तो जिस्म ओ जाँ में उतर ...
(स्व.परवीन शाकिर मेरी पसंदीदा मशहूर शायरा)
11 टिप्पणियां:
एक इतिहास की यात्रा में ,स्मृति में एक हंसी गूंजती है... ढेर से खिलने वाले फूलों के दिन मामूली ख़ुशी दे पातें हेँ पीले फूलों की भव्यता के साथ लदा-फदा तेबुआइन खिलखिलाता है ...
Sundar chitramay prastuti ...
Man mein atardhwand ko chtra ke madhyam se bahut hi khoobsurat dhang se aapne jiwan ke satya ko udghatit kiya hai...
Bahut shubhkamyen
हम तो सदा से आपकी लेखनी के दीवाने हैं
हमेशा की तरह से सुंदर लेख.
धन्यवाद
पूरा सफहा एक बहती रौ है ....जिसमे कई बार डूबता उतरता हूँ...सच्ची...
बीच में कई बार अटकता भी हूँ....सिर्फ इसलिए के कुछ अहसास पकड़ सकूँ....
अहसासों का यह कोलाज निजी वजहों से बिछुड़ते पलों का सेलाब आँखों में भर लाता है और दस्तक देता है आत्मा के कोने में ...
बहुत सुन्दर शब्द-चित्र.., पूर्ण विराम के बगैर ढेर से कोमाओं के सहारे रचा गया, आखिर ज़िन्दगी कभी रूकती नहीं......"
amitraghat.blogspot.com
पोस्ट की शुरुआत अपने आप में किसी गीत से कम नहीं , उस पर शायरा परवीन शाकिर की नज़्म .. अपने आप में किसी मायावी दुनिया से कम है क्या ... लगता है मै खुद इस मायावी दुनिया का हिस्सा बनकर मौसम की नदी के किनारे बैठी इन डोंगियों को देख रही हूँ ... वल्लाह क्या नज़ारा है ..
badhiya lekh sath me koobsurat shayari bhi.gahara chintan.
डोंगियों के मस्तूलों पर सबाओं के जीर्ण गीत .....गुपचुप , मौन ....थका सा कोई अनहद गूंजता है ....जैसे किसी बंद खिड़की का बरसों से खुलने का इन्तजार हो ....
तट पर बंधी डोंगियाँ कसमसाती है तट छोड़ लहर संग बीच भंवर डूब जाने को आतुर ....उफ्फ्फ......कहीं भीतर तक आहत करते हुए जुमले .....एक पार्थिवता अन्दर कहीं गलती जाती है ....एक रूंधता हुआ शब्द बाहर आना चाहता है .....
सच कहूँ..... आज शब्दों के इस भंवर में बहुत देर डूबना चाहती हूँ ...उलझना चाहती हूँ.....अपने आप को खो देना चाहती हूँ .....बेखौफ घुलना चाहती हूँ .....शायद डोंगियाँ अब न लौटें ..... .शायद चिड़िया के पंख हमेशा के लिए झड़ जायें .....बस बिखर जाऊं तो मुझको ना समेटे कोई ......
hum to kayal ho gaye is sher ke aur rachna bhi achchhi lagi ,pahli baar aai aur man ko khus kar diya ye blog ,
दैनिक जनसत्ता दिनांक 19 मई 2010 के संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में लौटती हुई डोंगियां शीर्षक से आपकी यह पोस्ट प्रकाशित हुई है, बधाइ्र।
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