शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

कुछ चीजों के साथ समय का फेरा था /औरइतिहास के जीवाश्म मैं परिवर्तित होने से /बचा हुआ समय ही है-/ और था /हमारे पास


कुछ चीजों के साथ समय का फेरा था /औरइतिहास के जीवाश्म मैं परिवर्तित होने से /बचा हुआ समय ही है-/ और था /हमारे पास / तुम कभी नही जान पाओगे /पानी मैं घुलती/मौसमों मैं डूबती/एक सघन सात्विक मौन शाम/तुम्हारे ओझल होने तक /किस कदर निरंतर पीछे छूटती है/लौटती है/और इस छूटे के साथ /किस तरह और कितना कुछ भरता जाता है/ये भी कभी जान पाओ या नही / नही जानती /लेकिन सच कहती हूँ, चाहती हूँ / सारे प्रतीक अपनी रहस्यता छोड़ /प्रतिध्वनित होने लगे, /ध्वनित बार-बार /शहर से दूर/बहुत दूर-दूर तक फैले /खामोश तालाब /किनारे खडे अलसाए खजूर /और उनकी सतही थरथराती परछाई यां/स्याह पत्ते /जंगली मेहँदी की खुशबू /बे शब्द करती हुई /जिसके सहारे ना जाने कितने शब्द सांत्वना देते हें/ कुछ सवाल निरस्त होतें हें/ हों भी तो?/जानती हूँ तुम अनुत्तरित रहोगे/मुमकिन सम्भव खोज लोगे /मेरे लिए कोई विकल्प/और मैं दूर सही /आकाश का नीलापन /देखूंगी तुम्हारी आंखों मैं /या शायद ये भी सम्भव हो /हम तुम इस बरसात मैं /किसी दिन -किसी पुल के नीचे भीगते,/मटमैले पानी मैं पैर डाले /तिनके-घांस ,फूल -पत्तियों -डोंगियों को /देखें एक साथ बहते हुए
[कई बार जो मन, कहना चाहता है ..उसके लिए शब्द दुर्लभ हो जाते हें ,भाषा नही मिलती सिफर होकर भाव गुम हो `जातें हें जो लिखा होता है उस हर लिखे शब्दों के चेहरों पर सफेदी पुत जाती है साक्षी भी कोई नही,कुछ नही ...मनचेतना की गहराई से -नए सिरे से सोचती हूँ -जतन से फिर लिखे को छूना -जीना ,वो ही सामने आता है]