शनिवार, 9 जून 2018

इस अभेद में भेद को जान लेना तुम, पहाड़ों पर बारिशों के बाद जब कांस के फूल खिलेंगे तुम खुश होना-

मैंने तय किये थे रास्ते और उन रास्तों पर सोचा था  तुम्हे ,जिनसे होकर तुम गुजरे होंगे ,सोचती हूँ तय तो  था तुमसे बिछुड़ना भी बिना मिले ही ---उन घुमाव दार सड़कों की  स्मृतियों में ,उनके हर मोड़ पर ठन्डे पहाड़ों की निर्मल गुनगुन थी कौन सुनता होगा जिन्हे पहाड़ सुनना/सुनाना  चाहे उसे ही ना ?जो सुनना चाहे --तब लौटना, लौटना नहीं था लेकिन पीछे मुड़कर देखना सच था पहाड़ मुस्कुराते हुए बिना चले ही साथ चल पड़े थे दूर तक ,बिदा देते से -समूचे पहाड़ आँखों में भर लाई  हूँ ---अब लौटी हूँ तो रोना चाहती हूँ ,कितने शिकवे थे इस दुनियावी लोगों के ,--इस तपते शहर के सुर्खरू गुलमोहर मुँह चिढ़ाते हैं ,कहते हैं तुम लौट आई --रोका नहीं तुम्हे किसी ने तुमसे अनुनय नहीं की ?किसी ने ----क्या कहती इन सर चढ़े गुलमोहर से --सनातन जिंदगी कम मौके देती है मनमुताबिक जीने के, एक की लापरवाही दूसरे के दुःख का सबब  बन जाती है अनजाने ,तय था ये सब भी जिसे तय किया था किसी ओर  पल ने --उस शाम वेज लजीज मोमोज़ खाते बारिश हुई --और भीग गई उसी सड़क पर जिसका नाम मुझे बाद में पता चला ,तुम्हारी ताक़ीद को सुना था,जानते हो  सालों से एक सफ़ेद ट्रांसपेरेंट छाता  खरीदना तय था--हर बारिश में सफेद छाता ढूँढ़ते जाने कितने हरे नील पीले छाते इकठ्ठा होते गए नीली पीली स्मृतियों संग --सफेद छाता उस दिन भी नहीं मिला, मिलता तो बारिश बादल एक साथ देख लेती ऊपर सर उठाकर ---फिर एक बमुश्किल हरा छाता  पसंद आया --जो उस दिन जाने कितनी ह्री पहाड़ी  यादों संग बारिश से भर गया --सोचती तो हूँ सोचने से ही इच्छाएं पूरी हो जाती तो ?--पर नहीं जो इच्छाएं पूरी नहीं होती दुःख देती हैं ---जानते हो ना दुःख अलाव है हरदम जलाता है,जिस होटल में रुकी थी वहां विंडो कर्टेंस एकदम नीरस रूखे बूढ़े भूरे रंग के थे उन्हें देखना गवारा नहीं था क पल भी , तो बस जब तक वहाँ होती पीछे बालकनी से पहाड़ की ऊंचाई में बसी घनी हरियाली गर्म कॉफी की प्याली हाथ लिए निहारती रहती ,मेरा बस चलता   तो आकाश की नीलाई और पहाड़ों की हरियाली खींच लाती और पर्दों  पर स्प्रेड कर  देती --
ब लौटकर जब एक पूरा दिन बीत गया है तो दूर तक पसरी इच्छाएं पहाड़ों की शाममें टिमटिम जगमग हो उन जगहों पर  उदास मुस्कान लिए सामने आती है रुलाई आँखों में भरभराई हुई  है --पेड़ों के चेहरे साफ़ दिखलाई पड़ते हैं पत्ते अब भी उड़ते हुए दुपट्टे में पनाह लेते से हैं अनाम फूलों की खुशबू तरबतर करती है कुछ भी नहीं भूल पाती हूँ सनातन --जिंदगी अक्सर तेज़ चलने के बावजूद पीछे धकेलती है --आगे उनींदे दिन बीतेंगे जानती हूँ बेबसियों की उदासी भरी शामें आँखे नम करती रहेंगी --इस अभेद में भेद को जान लेना तुम, पहाड़ों पर बारिशों के बाद जब कांस के फूल खिलेंगे तुम खुश  होना-- इस बरस साल भर इकठ्ठा करुँगी आम नीम गुलमोहर,आकाश चमेली चम्पा  जामुन अमरुद के बीज और उन्हें बिखेर  दूँगी तुम्हारी मनपसंद  पहाड़ों की घाटियों में कुछ तो लगेंगे ,फलेंगे उम्मीद से ज्यादा उम्मीद रखती हूँ जीवन रहा तो देखूंगी कभी उन्हें बढ़ते खिलते फूलते संग संग तुम संग वो ख़ुशी कितनी मीठी होगी सनातन --कोई नहीं जान पायेगा इस गोपनीय ख़ुशी को --
-मन कसकता रहेगा फिर भी -- क्योंकि में बुरांश से भरी पहाड़ी देखना चाहती थी ,बुरांश के गहरे  लाल गुलाबी फूलों को बालों में सजाना चाहती थी -तुम्हारी आँखों में झांकते हुए-चेलिया गाँव के नुक्कड़ पर बनी  किसी गुमठी की  चाय पीना चाहती थी --पहाड़ी आलू का देशज परांठा खाना चाहती थी --और बुरांश की चाय पिलाने  का तो वादा है ही --भूल मत जाना --उस कच्ची पुलिया के कांधों पर गहरी आसक्ति में डूबे झुके उस अनाम पेड़ के कानो में तुम्हारा नाम --सनातन कह आई हूँ कभी गुजरो तो वो आवाज़ लगाएगा --सुन लेना जानते हो पेड़ बहुत जल्दी बुरा मान जाते हैं और फिर उदास भी  हो जाते हैं , बस पेड़ों की उदासी में बर्दाश्त नहीं कर पाती हूँ ,मेरी ख़ुशी इतनी ही है इसलिए  ख्याल ---रखना 
अपना भी 
-इसी बरस जब बुरांश के फूलों का मौसम आएगा और टोकरा भर बुरांश लिए तुम मेरा इन्तजार करोगे किसी बुरांश के पेड़ों और फूलों से लदी भरी पहाड़ी के किनारेअपनी  मनपसंद पुलिया   पर 
जल्दी ही -में उस पुलिया के[कि]नार मिलूंगी ----
# पहाड़ भर यादें --पहाड़ों की- 9 / 6/ 2018 
[पहाड़ों की यातनाएं हमारे पीछे हेँ ..मैदानों की यातनाएं हमारे आगे हेँ [ब्रेतोल्ट ब्रेख्त ].