बुधवार, 7 नवंबर 2012

बहुत कुछ छूट जाता हैअक्सर,जैसे कुछ भले लोग, और बेरहमी से छूट जाता है बरसों का साथ


बहुत कुछ छूट जाता हैअक्सर  
जैसे बचपन ,जैसे जवानी ,जैसे कुछ भले लोग,
और बेरहमी से छूट जाता है बरसों का साथ 
वक्त से पहलेटूटकर गिर जाती है हंसी 
सन्दर्भों के बदलते ही प्राथमिकताओं की सूचि में कहाँ से कहाँ पहुंचा दिए जाते हें लोग 
कुछ लोगों से अपने गाँव की मिटटी छूट जाती है 
छूट जाते हें खेत खलिहान अमराई कुआं बावड़ी 
हाथों से हाथ ,नाते रिश्तेदार ,यात्रा के बीच पेड़ फूल पहाड़ 
बहुत से लोग जाते हें यात्राओं पर सभी कहाँ पहुँच पाते  हें
कुछ बीच में ही हो जाते हें दुर्घटना ग्रस्त 
तमाम शुभकामनाओं के बावजूद .
.कुछ चीजें छूट जाती अकस्मात और कुछ आहिस्ता आहिस्ता
 कुछ पहले और कुछ बाद में 
एक दिन खुद से ही छूट जाती अपनी मिटटी सी देह 
और अपनी ही आँखों में भरे जल को देखना
 अपनी ही आँखों से देखना भी नहीं रहता शेष
 लेकिन इससे पहले कभी कभी या अक्सर
 ये  छूटना अखरता है बेहद ...
लेकिन जो छूटता है वो छूटता तो है ही  


आज पहली दफे महसूस हुआ शब्दों के पार जाने मे सहायक होते हें शब्द ही  [ कैलाश पचौरी ] 

सोमवार, 10 सितंबर 2012

एक सफेद कनेर का फूल उसके नाम ..जीत लेना खुद को उसके लिए..खैरियत ओर राजी ख़ुशी का सम्बन्ध वक्त ओर मेरे- उसके बीच वजह बन जाता है .


  •  फिर से लिखा है आज हरे कागज़ के टुकड़े पर ,साथ,ख़ुशी,ओर भरोसा ,  अरसे बाद इक्का - दुक्का विस्मृत कोनो को,वो भरोसा जो मिला था, बिना मांगे ओर याद किया एक नीला सा धुंआ छाया हुआ बेवजही चुप्पी पर   एक गुलदाउदी चेहरा ..फिर से बादल, बारिश ओर उदासी.. ओर लौट कर जाती हुई....ना आती हुई बमुश्किल चंद सांसे. उसका चेहरा कभी कभी यूँ ही उचाट नजर आने लगता है आइना भी अक्सर झूट बोल जाता है, पर आईने से कोई  शिकायत नहीं जब दुनिया की हर चीज मनमानी पर उतारू हो जाये ...कुछ दुश्वारियां थी ..एक लम्बी फेहरिश्त थी,तेजी से गुजरती उम्र थी, संसार की इस आवाजाही में बसी स्मृतियाँ ,क्या सब कुछ याद रख पाऊं बस इसलिए भूल जाना होगा लेकिन कितना ओर क्या ...अपने हरेपन में मौसम की मन मर्जी के आगे हार जाना होता है ..खैरियत ओर राजी ख़ुशी का सम्बन्ध वक्त ओर मेरे- उसके बीच वजह बन जाता है ..आश्रम रोड पर ट्रेफिक में फँसी कार के शीशे को थपथपाते दो हाथ ...पानी की बूंदों से भीगी दो रजनी गंधा की टहनियां,जाने क्या सोच कर ले लेती हूँ,उस रात खूब महकी रजनीगंधा,ओर देर रात तक माय एफ एम पर ''जाने क्या बात है नींद नहीं आती.. गीत बजता रहा...मानों पांच साल से यूँ ही बज रहा हो .. .शायद इसी में बेहतरी होगी लेकिन ..क्या बेहतर होगा ओर क्या नहीं आपकी बेहतरी इश्वर से ज्यादा कौन सोच सकता है ..कनाटप्लेस के मंदिर समूह में बनी ब्लेक मार्बल की गणपति की मूर्ति के  आगे सर झुकता है एक आत्मीय  सूची में उसका नाम नए सिरे से फिर जुड़ जाता है, मंदिर की परिक्रमा एक गुच्छा फूलों का हाथ में लिए, एक सफेद कनेर का फूल उसके नाम ..जीत लेना खुद को उसके लिए ..कुछ चीजें ओर पसंद नहीं बदलती शाम हो आई थी, हर बार मेसेज अलर्ट ने निराश किया लेकिन उस  शाम का रवा डोसा बेहद लजीज था तो दूसरी ओर .शाम के समाचार में बारिश बाबत हाय अलर्ट ...
  •  उसने  ऐसा तो नहीं चाहा था,  आसमान स्लेटी अंधेरों में गुमसुम हो जाता है तमाम साजिशें यकीन को पुख्ता करती हेँ  .आज फिर लिखा है लौटकर अपने शहर में  तुम्हारे शहर के बादल को बारिश के लिए, पहाड़ों को नदिया के लिए, इन थरथराते शब्दों को चुम्बन के लिए ...सच उस रात सुबह तक नींद नहीं आई सुबह बारिश की नमीओर ठंडक थी दो घंटे यूँ ही एक ही जगह लेटे रहने का अपना सूकून था .कोई दुःख कोई ताप कोई खालीपन भी नहीं था...पूरा शहर पानी पानी था..मेरी जमीन भी डूब में थी ओर मुडे -तुडे सपने भी,,सीने में धडकते हुए  बस इक नाम भीगने से बच गया था ..दूसरे दिन हल्की धूप थी बड़ी उम्मीदों से नाउम्मीद होना तय था दिल ने कहा था ये  सच नहीं होगा वो जैसा तुमने चाहा ओर वही हुआ वैसा ही खैर .... उसे नहीं मालूम था,उसके  किस हथेली में धूप  थी ओर किसमें चांदनी ..जाने किसमें में कौन सा सपना रख दिया ..जल गया ...76 घंटे बाद दोपहर का सुनहरा ओर डूबती शाम की हल्की नीलाई- आसमानी मिलकर धूप-छाहीं हो जाते हेँ उसे बाएं हाथ की बीच वाली अंगुली पर भरपूर लपेट लेती हूँ ,थोड़ी ठंडक की उम्मीद ..राहत मिले ..शायद ..पहले ही दिन .कार के गेट में जल्दी बाजी में फँसी रह गई अंगुली .एक नीला सा दर्द ..आँख झिलमिला जाती है लोधी स्टेट की उस बिल्डिंग की नौवीं मंजिल तक लिफ्ट .बर्लिन के चार्ली स्कवेयर में तब्दील हो जाती है उस दिन भी यही हुआ था ..लापरवाही की भी हद है ...अपने को कोसने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं ..तब पचास हजार मील की दूरी भी तय हो गई थी ओर आज  महज पचास मील पर कोई विस्थापित हो  कर  रह  जाता  है ...उसकी डायरी में दर्ज ओर फाड़ दिए गए दिन ओर तारीखों में संयोगों से  सिमट जाते हेँ..कल -परसों आज -कल ...  जो उस तक नहीं पहुंचे ...ओर आज भी निश्चिंत नहीं हूँ कि लड़ने सुलह करने हंसने -रोने या राजी ख़ुशी जीने या डूब कर मर जाने के लिए क्या बचेगा मेरे पास ..आज फिर लिखने का मन है... कि एक छिला हुआ दिन, नील पड़ी वो अंगुली वो धूप छाहीं.. वो मौसम, वो शहर उसका, उनमें से गुजरते दिन रात उसके,  ओर बारिश में भीगा सफेद दुपट्टे का वो कोना ओर उसमें अटका बारिश में  रेशा-रेशा हुआ टूटा ओर उधड़ा सा  एक पीपल का पत्ता उसके शहर का देखो ना, साथ चला आया है अनायास एक जिद्द में ..जिसमें हम थे ओर जिसमें उलझी हमारी एक पूरी दुनिया ...कोई इस्तरी कोई शब्द कोई  लगन ओर जतन से .इन उलझनों पर करूँ .....वो पत्ता सफर करता है एक रात का सफर महज दो घंटों में आश्चर्य एयरपोर्ट से घर तक...मुझे सुनते देखते चुपचाप ..जिसने मुझे एक बूँद तक रोने ना दिया ..एक अकेलेपन में अपने आप से कठोर होना ..वाकई एक दूसरी ही तरह की नरमी में घुलमिल जाना भी था 

  • अजनबी शहर के अजनबी रास्ते मेरी तन्हाई पर मुस्कराते रहे 
  • में अकेला बहुत देर चलता रहा तुम याद बहुत देर तक आते रहे 
  • [राही मासूम रजा ]



 




मंगलवार, 14 अगस्त 2012

..सब कुछ उंचाई से नीचे की ओर धंसता ही जाता है ,९० डिग्री के कोण से नीचे देखना देह को थरथरा जाता है हवा के साथ बजते हुए कुछ शब्द दिल में घुसपैठ करते हेँ, बुध्धम शरणम गच्छामि

  • देर रात की अंतिम सौ  ख़बरों की आखरी खबर में मौसम विशेषज्ञों ने फिर तेज बारिश ओर तूफान की घोषणा की थी -हालाँकि झूटा निकला मौसम विभाग का अनुमान ,पिछले महीने ओर हफ्ते भर से मूसलाधार बारिश की वजह से अब कोई फर्क नहीं पड रहा था इस तरह के वेदर फॉर कास्ट से ..ओर मौसम की मासूमियत में घुली थी हर चीज रेशा-रेशा ,उसे मानों पता ही नहीं था की कितनी तबाही ओर तूफान आकर चले गये थे इस बीच ..फिर धूप भी निकली बड़ी मिन्नतों ओर मन्नतों के बाद, साथ ही उमीदों की खुली खिड़कियाँ से  सोच का गुब्बार बह निकला बाहर के मटमैले पानी संग ओर अन्दर सब कुछ पारदर्शी हो गया ..ऐसे में आसमान खुलता है पर लगता है ये सब थोड़े समय के लिए ही है ..ओर फिर एक मनमौजी बादल के साथ सफर की शुरुआत ,ख़ुश हो जाओ ..आश्वस्त करना अपने को ...जहाँ हम हेँ वहाँ से रौशनी कुछ ऐसे ही आएगी लगता है पीछे एक गरीब सूनापन ,पसरी हुई जड़ता एक बेगानापन अपने से निजात पाना चाहता है मुक्त होने का सवाल ही नहीं ,कोई दुःख है जो छीजता ही जाता है तुम्ही  बताओ? नहीं तो लिखो एक कागज़ पर लार्ज साइज़ में उसकी नाव बनाओ ओर छोड़ दो पानी की तरलता में कोई ठौर तो लगेगी, ना हो तो रफ्ता-रफ्ता गलते दुःख शायद राहत दे ...बस सोच ही काफी है, बेचैनियों की तरल छूअन उसे छू कर लौट आती है तब तक अस्सी करोड़ से ज्यादा बार उसे सोचा जा सकता है ..बहुत कुछ ऐसा था जिसे नहीं समझा जा सका ,कितनी आहटें ओर दस्तकें थी पर वही नहीं था, जो उसके लिए था किसी ओर के लिए संभव ही नहीं था एक ऐसा सच जो पानी में घुल मिल गये की तरह था ,इस बार भी लगा वह लौट आयेगा कई बार की तरह...बीते सालों में उसका इन्तजार मौसमों की तरह ही तो किया था  ओर सोचा  जियेगा बीते कल को फिर से ..एक छोटे से जीवन में नामालूम से रंग भी बुरे मौसम की आशंका से फीके हुए जाते हेँ एक धूसर दुःख चुप्पी साध लेता है जिसके पीछे का सुख एक धनात्मक उम्मीद जगाता है ..बेहद निस्संग ओर उदास शाम भी आखिर खींच-तान के, दिन के साथ बीत ही जाती है, इस बारिशी नमी में भी कुछ शब्दों को सुखा लेने का सुख अन्दर ही अन्दर शोर बरपाता है ,कतई नहीं हो सकता  --क्या? वो ,जो तुम सोचती हो, वैसा -हाँ क्यों नहीं ...अपने को भरमाने के अलावा हो ही क्या सकता है फिर भी सब कुछ उंचाई से नीचे की ओर धंसता ही जाता है ,९० डिग्री के कोण से नीचे देखना देह को थरथरा जाता है हवा के साथ  बजते हुए कुछ शब्द दिल में घुसपैठ करते हेँ, बुध्धम शरणम गच्छामि ...की आवाज..कानो से टकराकर लौटती है    शरीर  के साथ उंचाई से नीचे का डर,ओर डर के साथ धडाम से नीचे  गिर जाने  वाला डर होता है ,वरना तो ऐसा कुछ भी नहीं है ..ओर फिर आँखें मुंद जाती है,बजाय सामना करने का,  मुंदी आँखों से एक ठंडी साँस के साथ फिर से जीने की कोशिश --बस बचा लिया उसने वरना तो मर ही जाती --थैंक्स ,एक दिली थकान जुबां से बहार निकलती है उबड़-खाबड़ पहाड़ों से, दुःख से उबरना ,हमें लौटना होगा अपनी आबो- हवा में जहाँ हमारी चुप्पियाँ रहती हेँ जिनके बेहद करीब उसकी नर्म अँगुलियों ने खोज ली थी [लामायुरु]की सफेद पगडंडियाँ बस संग साथ की सोच से  उमीदों को  बल मिलता था,ओर कोशिशों से ,जहाँ अनाम  जंगली पेड़ों  की कंटीली गीली ओर चमकदार पत्तियों में धंसी धूप खिलखिल करती अचंभित करती है अब भी ...
  • लामायुरु लदाख की समृद्ध विरासत का सबसे प्राचीन ओर सर्वाधिक महत्वपूर्ण बौद्ध मठ....

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

.है ना हैरानी? तेज रफ्तार वक्त का, गति निरपेक्ष हो जाना ..इस समय में पिछले समय का ठहर जाना स्लेटी शाम का हँसते ही जाना. बाहरी अँधेरे में एक सनातन भिक्षु मन की बंटी हुई दुनिया में डोलता है


  • उसकी आवाज़ पिघल कर बारबार  गीली होती जाती है.लेकिन कोई सुनने वाला नहीं अपनी ही आवाज़ उसे छिली हुई लगती है .यूकेलिप्टस की नुकीली पत्तियों से छनकर आती लहराती गीली हवा राहत देती है विक्स वेपोरब सी ठंडक ओर खुशबू दोनों . लगातार  होती हुई बारिश में पत्ते जमीन पर फैली काई  के साथ सड़ जाते हेँ ओर उनकी मामूली कसैली गंध जुबान की सतह से होती हुई  दिमाग पर छा जाती है पूरे घर में इन दिनों गीलापन है दीवारों की नमी दिमाग पर भी निशान छोडती है,चीजों में वो बात नहीं जो अक्सर खुशक मौसम में हुआ करती है एक तो मौसम की मार दूसरे वैसे भी इन दिनों दिल दिमाग का सुकून छीना हुआ है ...लगता है मेरे शहर की बारिश उसके शहर पहुँच जाए दिल से दुआ करती हूँ आजकल वहाँ वैसे भी सूखा है एक चमकीला चेहरा दिमाग पर असर करता है टैरेस पर  खड़े होकर देखो दूर तक जहाँ नजर जाती है एक शमी का पेड़ झूम झूम कर लहराता ख़ुशी जाहिर करता दिखाई देता है रात हुई मुसलाधार बारिश के बाद पत्ता-पत्ता धुला ओर साफ.. उन के सर से काले सिलेटी बादल गुर्राते गुजरते हेँ तेजी से... उनका शोर कानो को दुखाता है, डराता भी है. बारिश की बूंदे चेहरे पर पड़ती है आंसू ओर रोना मानों पानी के साथ घुल-मिल जाते हेँ चलो कोई जवाब तलब नहीं करेगा  नीचे की तरफ देखो पानी की मोटी सी लहर दूसरे किनारे से बहती हुई सड़क पार करती दिखाई देती है ..जिसमे तेजी से घास  तिनके मरे हुए पत्ते एक दूसरे से उलझते से बहते ओझल होते जाते हेँ, ये कल्पना ही तो है ...कुछ किसी बड़े से पेड़ के तने- तले  वहीँ खाद हो जाने को मजबूर हो जायेंगे ओर कुछ किसी बड़े नाले या तालाब के मुहाने पर जाकर ठिठक कर पीछे मूड कर सोचेंगे ...एक जीवन था,जो  कैसे बीता ...साथ छोडती लहर सी टूटती इक्षाएं मुंडेर पर इधर-उधर फैल जाती है शाम उतरने को है दोपहर से लगातार हुई बारिश शाम होते होते अपने पीछे एक गीली उदासी का इंतजाम कर जाती है ..कोई अन्दर के धुंधलके को पछारता है,ओर बाहर की ओर बुहारता है शाम को आखिर बीतना है ओर वो बीत जाती है यूं कुछ ना कुछ को तो बीतना ही है बस एक मुकम्मिल स्मर्ति ठहरी रहती है रात शुरू होना चाहती है ...नींद में डूबे शहर के अँधेरे में जहाँ पिछले आठ घंटे से बिजली गुल है ,एक कोने में सिमटा सिकुड़ा रौशनी का टुकडा पानी में सराबोर चमकता है .
  •  .है ना हैरानी? तेज रफ्तार वक्त का, गति निरपेक्ष हो जाना ..इस समय में पिछले समय का ठहर जाना स्लेटी शाम का हँसते ही  जाना. बाहरी अँधेरे में एक सनातन भिक्षु मन की बंटी हुई दुनिया में डोलता है  कई डर सताते हेँ  एक साथ .दरवाजों पर नीले परदे कांपते हेँ सचमुच सच सा लगता था वो साथ अब छूट जाता है ओर फिर ..इस घटाटोप में कोई हाथ थाम लेता है .कहने को बहुत कुछ था तब भी अब भी दरअसल एक पूरा भाषा विज्ञान था ओर कहने के खतरे भी नहीं थे, उँगलियों में गंध का टुकडा लिए, लेकिन हम सोचते रहे संबंधों की बड़ी डोर से धरती ओर आकाश को बाँध लेना एक ही संवाद को दुहराते जाना ओर यह सोचते जाना की डूबने से पहले पानी के बीच किसी स्निग्ध  फूल की तरह खिला था वो वक्त.. वो पानी पर घर उसकी ख्वाहिशों का घर था ....बारिश फिर बरसना शुरू करती है कुछ बूंदे बालों पर कुछ गालों पर हथेलियों से उन्हें रगड़ कर वो चेहरे पर फैला देती है एक ठंडक स्पर्श से दिल में पहुँचती है  पार्क के दूसरी ओर की कालोनी में स्ट्रीट लाईट जल उठी है ....यहाँ भी पल दो पल में सब कुछ रोशन हो जाएगा पर लेकिन चमकदार पानी का चेहरा फिर भी स्याह ही रहेगा धूप निकलेगी कई दिनों की बारिश के बाद ..शायद कल 
नदी नहीं पीती अपना जल ,पहाड़  नहीं खाते कभी अपनी हरियाली,कोयल नहीं कूकती कभी अपने लिए तब हम किसके लिए जीते हें[रमेश अनुपम ] 

सोमवार, 14 मई 2012

.जैसे बीच यात्रा में छूटा हुआ मौन ,जैसे किसी निगूढ राह से मानों बीती हुई एक शाम ,बीत गई माँ ...हर दिन मुझमें शेष रह जाती हो ''माँ''

इंद्र धनुष के जितने रंग माँ के उतने शेड्स ,जब माँ थी तो जीवन में जल की तरह घुली हुई थी ...तब कोई जलन ना थी,वर्षों पीछे छूटे हुए समय को देखती हूँ तो इस समय से कुट्टी कर लेने को जी चाहता है --जहाँ तक पंख ले जाएँ बचपन से तब तक, जब तक माँ साथ थी ,लौट जाने को भी मन करता है ,माँ के साथ  बीता जीवन ..पल पल को शब्द देने का भी मन, कितनी बातें हेँ याद करूँ तो जीवन कम पड जाए ,,,माँ थी तो हरियाली अपने हरियाली पन में उनका प्रेम अपने प्रेमपन में उत्कट था ओर जिसकी कोई सानी नहीं.. तुम्हारी चिठ्ठी, लिखावट आवाज इश्वर से मांगी हुई प्रार्थनाएं हमारी  खातिर मांगी हुई शुभकामनाएं सब ज्यों की त्यों सुरक्षित है मुझमें लेकिन शर्मिन्दा हूँ जब तुम थी तो अपने संसार में गुम थे हम तुम हंसती थी, कहती थी.. संसार ऐसे ही चलता है ओर अब  ...अब तुम अपने संसार में हो  लेकिन सन्नाटे के स्वर में ..जैसे बीच यात्रा में छूटा हुआ मौन ,जैसे किसी निगूढ राह से मानों बीती हुई एक शाम ,बीत गई माँ ...हर दिन मुझमें शेष रह जाती हो ''माँ''यूं तुम्हारी स्मृति ताज़ी ही बनी रहती है रास्तों के उंच-नीच से आगाह करती ऐसा नहीं वैसा करो यूं नहीं ऐसा, रूको -चलो ---कितनी बातें कितने आदेश कितनी डांटें-फटकार ..कितना दुलार कितना प्यार माँ के ''बेटा '' बोले हुए शब्द का कोई मोल नहीं जब भी ठोकरें खाती हूँ इस उबड़-खाबड़ में तुम्हारी अनमोल सौगातें सीखें कानों में गूंजती हेँ बस लगता है यहीं पास ही तो हो कभी सपनो में तो कभी किसी अन्य की शक्ल में कभी किसी की आवाज में ओर कभी कच्ची कैरी की सुगंध में तुम अटी पड़ी रहती हो .माँ तुम्हारी देह गंध अक्सर दाल के छोंके में, तो कभी आम की लौंजी में, मेथीभाजी में. पोंड्स क्रीम में, बेडशीट्स के फूलों के तारों  में गमकती है. ढेर से शब्दों के बावजूद में अवाक हूँ अपनी पूरी रागात्मकता पूरी लय के साथ बात करना चाहती हूँ.. तुमसे ..ओ इन दिनों तो मोगरा बहुत खिला है उसकी खुशबू में तुम याद से भर जाती हो तुम्हे पसंद था मोगरा माँ बस इस लिए इन दिनों गाहे -बगाहे टांक लेती हूँ में भी बालों में मोगरे का गजरा ...तुम्हारी याद आती है तो बस आती ही चली जाती है, कितने ही दिन बीतते जाते हेँ रास्तों से गुजरते हेँ, मोड़ आते ...मुड़ते हेँ हर सुख में हर उपलब्धि पर ..पीठ पर तो माथे पर तो अक्सर ही सीने पर तुम्हारे  स्पर्श जीवंत हो उठते हेँ 
 हर ठोकर पर हर दुःख में बस, माँ माँ माँ अनहद नाद की तरह एक आवाज बजती है भीतर-बाहर ..कुछ नहीं अच्छा लगता माँ जब तुम याद आती हो .ये .टी वी ना बक झक करते रेडियो ना संगीत ,ना सारी दुनिया से जोड़कर रखने वाला कंप्यूटर ....काश तुम्हारी दुनिया से भी जोड़ देता, ना मिलती तुम कोई बात नहीं..एक क्लिक पर  तुमसे बातें ही हो जाती. कोई ऐसी लिस्ट होती जिसमें तुम्हे ढूँढ ही लेती ..समय के साथ बदलती चीजों ,रिश्तों, प्रेम से भी तब कहाँ फर्क पड़ता ..देखो माँ- में तो तुम्हे बेहद याद करती हूँ ओर आज सुबह अखबारों में, कंप्यूटर में, मोबाईल में आये  ढेरों मेंसेजेस में ...''माँ'' शब्द दुखी कर गया तुम ज्यादा शिद्दत से याद आती गई ...माँ तुम याद आती हो तो बस आती हो ..सुनो माँ मुझे यकीन है तुम मुझे सुन रही हो.. एक लड़की के लिए माँ क्या होती है  माँ ही जान सकती है ..आज तुम्हारे जैसा पोटली पुलाव बनाया देसी घी में भुने हुए चांवलों की खीर पूरे घर की डस्टिंग की, धूल से तुम्हे नफरत थी ,तुम्हारी दी हुई सुनहरी पाट की जामुनी हरी जामदानी  साढ़ी पहनी तुमने उसे पहना था जब ओर मुझे अच्छी लगी तो, तुमने उसे मुझे दे दी थी यह कह कर बहुत भारी है ...तुम पहनो बहुत जतन से संभाल कर रखा है उसे . तुम्हारी देह गंध अब तक ज्यों की त्यों उसमें बसी है .माँ तुम जैसा ही बनने की कोशिश करती हूँ पर नहीं बन पाती अब अपनी कामनाओं भरे संसार में अपने ही भीतर निमग्न होते आकाश में तुम दिखलाई पड़ती हो जहाँ बीच में खड़ा चतुर्थी का गोल चाँद टोक देता है, रोक लेता है.. रूको आज तुमसे बात करने को जी चाहता है.आज उपवास है तुम्हारा वो पूछता है पूजा ठीक से की .कोई गलती ती नहीं की ...वो प्रतिनिधितत्व करता है तुम्हारा ..उत्सव से हफ्ता दस दिन पहले शुरू हो जाते थे उत्सव घर में ओर अब कितने फीके-फीके से हेँ सब त्यौहार. कितना व्यापक उत्साह था तुममें माँ,ना कभी थकती ना रूकती ना शिकायत,बस दौड़ी दौड़ी हम लोगों की खातिर कुछ भी तो नहीं लौटा पाए तुम्हे .....आज का दिन उदास ओर चुपचाप है रात बीतने में वक्त है तुम्हारी आहटें इस भीढ़ में भी सुन पाती हूँ तुम्हे कौन ले गया हमसे दूर ...ओर छोड़ गया यहाँ एक निर्मम तटस्थता...बुक शेल्फ में तुम्हारा फोटो रखा है तुम्हे किताबें पसंद थी ,देखती हूँ जब जब तुम्हे, यकीन हो जाता है तुम पास ही हो ...बीते कितने बरस तुम्हारी देह के चारों ओर समवेत प्रार्थना के वे शब्द कानो में गूंजते हेँ साँसे रूक रूक कर चलती है .मोमबत्ती की लो की तरह जलती-पिघलती देह हमारे सामने देखते-देखते ही गुम हो गई 
दो सितम्बर २००५ की वो दोपहर गणपति अथर्व शीर्ष ओर  विष्णु सह्श्त्र नाम का पाठ करते करते आवाज छिल गईथी उस दिन,  तुम्हारा चेहरा ओर मुंदी आँखें ओर काया रह रह कर काँप उठती थी तुम्हारे निष्ठुर देवी देवता ..ओर हम बस देखते रह गये बीच रात माँ तुम चली गई ...तुम्हारे सामने उस दुनिया के बहुत से जरूरी  काम थे शायद,...तुम्हारे जाने के बाद कई दुःख आये -गए, कई सुख आये ओर रह गये पास... ओर अब उन्ही शेष सुखों में शेष हो मेरे भीतर,[अभी भी रह गई हेँ कई बातें.].

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

मुख्त्सिर सी बात है




मुख्त्सिर सी बात है वो गर्दन को थोड़ा उंचा करके ओर आँखों को कुछ ज्यादा ही सिकोड़कर फिर पलकों को जोड़कर थोड़ा खुला रखकर पूरे चेहरे का मुआयना करता है उसकी आँख नाक माथा ठुड्डी होंठ  ओर होंठों के बायीं तरफ गोल तिल फिर गर्दन को छोटे-छोटे टुकड़ों  में फोकस करता है अपनी पनीली नजरों से वो चेहरे के हर अक्स को दिल में उतार लेना चाहता है उसकी डायरी में दर्ज वक्त समानांतर नहीं चलता उसकी कोहनी के ऊपर खरोंच का निशान, वो रूकता है..जाने क्या सोचता होगा अपनी नजरों को वो निशान पर ले जाती है पूछे तो बताऊँ कैसे मोबाईल की रिंग बजते हुए वो दौड़ी थी उस दिन इस उम्मीद में के उसका  ही फ़ोन होगा ओर दरवाजे से कोहनी जा टक राई सीधे- -सीधे कोहनी की हड्डी में चोट ओर घसीटते हुए अपने को बचाने में ये खरोंच लम्बी सी ओर फोन भी अननोन उसका भी होता तो चोट सार्थक हो जाती ,वो असहज होती है... जाने क्या दिल में उतरता है ..ओर फिर आहिस्ता नजर उसके हाथों ,उसकी अँगुलियों पर जाते हुए डायमंड रिंग पर ठहरती है ..अनामिका में मोती पर ओर यहीं उसकी नजरें यकायक रूक जाती है ओर अपना हाथ वो उसकी अँगुलियों में फंसा देता है...आसमान में उडती उडती कोई पतंग स्थिर हो गई हो  जैसे ,अब उसकी आँखें मुस्कराती है वो यकीन कर लेना चाहता है अपनी खुशी का लेकिन उसकी चुप्पी से एक कोफ्त महसूस होती है वो, वो सब कहना चाहती है पर नहीं कह पाती..क्योंकि कहे का कोई फायदा भी नहीं  उसका बहुत कुछ जाने बिना भी काम चल जाता है, पर वो ऐसा नहीं कर पाती..चाह कर भी ..वो अपनी काली टी शर्ट की कॉलर को उंचा उठाकर अंगूठे ओर तर्जनी से मोड़ देकर छोड़ देता है ..हाथ से हाथ छूट जाता हैउसकी सुनहरी  हथेलियाँ आँखों में बस जाती है, आँखे फिर जाने क्या खोजती सी अब उसका ध्यान शायद रंगों की तरफ है.एक सरसरी तौर से  वो रंग चुनता है.. नजरें बचाकर, हम दोनों के बीच कोई नहीं.. ब्लेक-रेड प्रिंटेड शिफोन साडी पर उसकी सतही नजर दौडती है- लेकिन दिल में उतरती है ब्लेक कोफी  की एक चुस्की रेड ब्लाउज  के भीतर तक नर्म थोड़े गर्म  अहसास की तरह फैल जाती है ....
 ओर बाहरी दुनिया से टूटा ये रिश्ता अकथ की गहरे के दो छोर बन जाते हेँ, सहसा लगता है वो अकेला पड गया है .सामने दो लड़के काफी की चुस्कियों के साथ लगातार बहस करते हुए ..एक उडती सी नजर उस लड़के से मिलती है ..एक अनजाना भाव ..शीशे के पास कोने की दीवार के वो सामने हेँ कैफे काफी में दोपहर की धूप शाम की धूप में तब्दील हो रही है लड़के की पीठ पर टी शर्ट पर लिखा सेव वाटर ...पढ़ना ओर उस पर  नजरें दौडाना मजबूरी बन जाता है पानी से याद आता है उसके लिखें में पानी की सूरत कितनी अलग कितनी जुदा कितनी मीठी..उसकी कविता याद आती है जिसमें पानी का ज़िक्र है यकीन करना मुश्किल होता जाता है की वो ऐसा भी लिख सकता है ...शीशे के दूसरी ओर एक खूबसूरत कम उम्र  लड़की अपने बॉय फ्रेंड के साथ चहकती ही जाती है कभी ख़त्म ना होने वाली हंसी. वो भी कहना चाहती है,चहकना चाहती..हंसना चाहती है उसके स्पेस में ..पर ये मुमकिन नहीं ..उसके मूड पर डिपेंड करेगा ...ओर उसका मूड जान पाना कोई आसान नहीं  उस लड़की की तरह..हंसना... लेकिन एक मुहाने पर आकर रूक जाता  है एक  वाक्य, जिन्दगी के सारे रास्ते उस तक आकर ही क्यों ख़त्म हो गये एक अनवरत अनुभव अपने सपने तोड़ने का ...वो निश्चल निगाहें गडाए उसे देखता है मानो कहेगा  अभी वो सारी उम्र प्रतीक्षा करेगा .लेकिन कहता नहीं ..वो आँखों में उभर  आये पानी को रोक लेना चाहती है अब कहाँ देखूं ,उसकी तरफ या सडक पर गाड़ियों की आवा-जाही, वो गाड़ियों पर भी ज्यादा से ज्यादा फोकस नहीं कर पाती अब उसका ओर मेरा साथ अधिक से अधिक दस मिनिट का ही है ...उंह ठीक है जो वक्त जो साथ मिला है वही सही ..वो मोबाइल की जलती बुझती रौशनी में कहीं गुम है..मोबाईल को थोड़ा झुकाकर बात करना प्रायवेसी रखना उसकी आदत है जब तक ना पूछो जवाब नहीं मिलेगा उसे पसंद भी नहीं कोई दखलंदाजी  .क्या बात करूँ ..बातों का सिरा फिर से पकड़ने की कोशिश --पूछती हूँ --जवाब मिलता है ..हाँ लेकिन इतनी जल्दी नहीं ..तो आधा घंटा वो साथ को सूकून से बिताना चाहता है और वो रोना चाहती है ..लगातार जमते हुए तलछत्त में जमते ही  जाना..अँधेरे का काला घोल उसकी आवाज में जम जाता है शब्दों में धवनि  भी नहीं बस पल-पल बीतता है अपने पूरे पन के साथ क्या यहूदियों की कहावत कारगार साबित होगी इश्वर के सामने रोओ ओर मनुष्य के सामने हंसो पर कैसे -किस तरतीब से ...सोचते ही एक गहरी ऊब से उसका मन भर जाता है ओर छोटे-छोटे सूत्रात्मक संवाद उनके बीच शुरू फिर --ख़त्म होते जाते हेँ अब फिर उसकी आँखें छोटी होती जाती है ..वो कुछ खोजता है -जोगी से उसके चेहरे में क्या है ? नहीं मालूम लेकिन कुछ जरूरहै.. जो  उसकी समझ से परे ..लगा मानो वो झुका ओर झुक कर पानी की सतह पर झांका .उसका  ये झांकना ही तो अजीब सा है 
त्वचा के भीतर तक..उत्फुल्ल आवाज में'' कोशिश करता हूँ कल मिलतें हेँ'' .जो वो कहता है कितना सच होगा कौन जाने ...लेकिन हर सच, सच कहाँ हो पाता है .रगों में भरती...जाती आवाज.लेकिन .फिर भी  वो सोचता होगा इस पर विश्वास करूँ ,ये मासूम है या बस यूँ ही... फिर वो अपनी सोच  को आधा-अधूरा छोड़कर कांच से  परे गौसिप  करती कमसिन लड़कियों की ओर लौटा लाता है --लेकिन नहीं, ये वो कतई नहीं सोच रहा शाम का प्रोग्राम..अब  उसके होंठ  स्थिर से लगते हेँ .जो पहले बुदबुदाते से थे ..सडक की तरफ से एक कार तेजी से निकलती है उसके खुले से शीशों से शाम का उदास गीत बजता हुआ सुनाई देता..एक शोर  सा गायब हो जाता है ''मुख्त्सिर सी बात है'' ... राग भरी पीड़ा हवा में फैल जाती है उस पीड़ा से उस गीत से, कार चालक को कोई लेना देना नहीं लगता ..एक उचटी सी नजर उसपर ..उसने सुना ही नहीं यकीन हो जाता है. उसी एक ही समय में ढ़ेरसी चीजों-वीजों..का एक साथ भीतर-बाहर होना अटपटे पन  की हद में --कुछ कहने के पहले का सोचना ओर भीग जाना खाली पन में खाली मन का दौड़ पडना..जब याद आयें तुम्हे हम --नहीं-नहीं  कौन याद करता है..एक बार छूट जाने के बाद किसे फुरसत है इस आपा -धापी वाले समय में, वो नाराज ना हो जाए ये डर भी तो अक्सर साथ ही रहता है उसके पूर्व अनुभव चेताते हेँ ..नहीं ये मत बोलो ,वो नहीं,ऐसे नहीं.वैसे नहीं --वो रूक जाती है  
वो हर जगह कुछ खोजता है एकदम बे- मतलबी ..खोज लगती है उसकी ..अरे यार कितना वक्त कम है हमारे पास ये क्या कहाँ  ध्यान है तुम्हारा...कहना चाहती है वो  नहीं कह पाती ...कैसे शब्द ठूठ हो जाते हेँ एक सर्द ना गर्म हवा का झोंका रोक लेता है टोक देता है ..पल्लू को सीधे हाथ से बाँई ओर  बेवजह कन्धों की ओर तरतीब से ठीक करना ..सब कुछ ठीक-ठाक है बस एक आदत के तहत हाथ वहीँ पहुँच जाता है ...जो जरूरी भी नहीं ..जरूरी तो ये शाम भी नहीं थी जो गुजर रही है उनके बीच ...ओर उसकी उपस्थिति दर्ज हो रही है सालों में...वो लेवेंडर कलर के एक फूल को याद करती है ...जो उन दोनों की आँखों ने देखा था एक साथ  क्या वो दिन वो फूल वो वक्त याद आयेगा उसे ..इस शाम के साथ ...यादों की फेहरिश्त  में जुड़ेगा उसकी क्या?ये लम्हा ...उसकी जिद्द उसकी आँखों से  झांकती है ओर हाथ से छूटी अंगुलियाँ सिगरेट थाम लेती है..सिगरेट से कुछ चिंतित कश वो लेता है होटों को गोल करके उसकी वो शक्ल जीरोक्स हो जाती है अन्दर ओर हर दिन उसकी कमसकम बीस पचीस कापियां बाहर आती जाती है ना चाहते हुए भी जीरोक्स तो ओर भी बहुत कुछ हुआ था किस-किस का हिसाब दूं  उसका हाथ , हाथों में था ओर नजरे झुकी हुई .एक साहसी पल कंपकपाता हुआ ..
.कितना धुआं फैल रहा है.. वो आँखों ही आँखों से लापरवाह बने  रहने का भ्रम फैलाना चाहता है ..ओर वो ..वो अन्दर ही अन्दर सतर्क रह कर अपने समर्थन में बुलंद होना चाहती है ..नाउमीदी की सूरत में उसने उसी वक्त सोच लिया था जो नहीं कह पाई वो एक लम्बी चिठ्ठी में कह देगी... इतिफाकन उसकी आवाज उस दिन सर्द थी. ओर उसे अपने हिस्से की पीड़ा मिली थी, कुछ सालों पहले तक अपनी जड़हीनता  में वो कितना ख़ुश थी ...शाम हो चली है सपाट सा लगता जागता वक्त दौड़ रहा है चुप्पी कड़े -गहरे अँधेरे से भी ज्यादा कड़ी लग रही थी उस वक्त उसका  दिल  डूब जाता है ..अक्सर होता यही है की एक से, दूसरा नाखुश नाराज़ होने का अधिकारी हो जाता है एक सुबकी मन से बाहर आते आते रूक जाती है ..उसे रोकना ही होता है ...रोने से उसे नफरत है ओर रुलाने के सारे उपक्रम उसे आते हेँ ..जीवन से विरक्त ग्यानी की तरह किसी  टूटन को मन ही मन छुपाते हुए .वो मुस्कराता है आस -पास की तमाम चीजों में अपने को खपाते ..आने वाले दिन का दवाब वो शायद महसूस कर रहा हो ओर चाक हुआ जाता सारा वक्त ..बेरहम हो छूट जाता है... ओर वो क्या करे? निरुपाय .चाहती है .धीरे-धीरे बटोर लेना उसकी दुनिया,संभावना ख़त्म और  घंटे भर में रात उतर आएगी ..उस दिन उसकी हथेलियाँ पनीली थी ओर आँखों में एक जंगल ,बातों में एक बेतरतीब उंचा-नीचा पहाड़. लगा उसकी हथेलियों पर हाथ रख कर कोई वादा ले ले, या रोक ले ..या अपने उमड़े हुए आंसुओं से उसकी हथेलियाँ भर दे ..पर सोच ओर चाह में कोई ताल-मेल नहीं हो पाता... मन में उसके  ...किसी बात को लेकर लगातार जिद्द थी हवा चुप,रौशनी चुप,पेड़ चुप सिर्फ उतरती धूप के साथ कॉफी  की कड़क महक अपनी उपस्थिति के साथ मौन ओर हतप्रभ थी ...अडतालीस महीने बीस दिन बाद.. मुसीबत जदा वक्त से बाहर आने में कितनी मुश्किल हुई होगी अब उसे कौन बताये...भीतर कोई शीशा चकनाचूर होता है उसे आवाज तक सुनाई नहीं देती ...उसकी कॉफी  ख़त्म वो अपनी दोनों बाहों को समेट कर एक दूसरे में लपेट कर इत्मीनान से बैठ जाता है ...एक खालीपन की पूर्ति सी करता हुआ , सामने कोई हडबड़ी नहीं वो अब अपने पांवों को भी फैला लेता है ...मानो जिन्दगी यही गुजार देगा संग .बसा लेगा एक घर... हवा पानी रौशनी से भरा ..स्मृति के गलियारे से गुजर कर बारह साल गुजर जाते हेँ खोजना पाना खोना ,,साँसों के अन्दर तक उसका नाम धूप  छाँव सा झिलमिल होता जाता रहा ..क्या वो जान पायेगा कभी ?शायद नहीं, समय का फैसला मन तो करता है कह दूं  तुम ही  जीते क्या हांसिल हुआ इतने साल यूं बेखबर रह कर.. पर इतना छोटा समय था इतना कम की कोई ओर गुंजाइश ही नहीं थी ...आत्मा के पार तक उससे मिलकर हर बार पुनर्जनम हुआ हो ऐसा ही तो लगता  रहा .लगता है उससे कह दिया जाय पर ये एक कोरा ओर लिजलिजा वाक्य बन कर रह जाएगा उसके लिए वो जानती है ..कुछ बातें रुकते-रुकते भी हो जाती है..लेकिन इस छोटी सी बची खुची जिन्दगी में कुछ बातें ..ना रुके हुए ..होते-होते ही  हो जाये तो ..लेकिन हो तो सही अब कॉफी  ख़त्म...अलसाया सा वो उठता है ..अब आप क्या कर सकतें हेँ ..उठना ही होगा वो अपनी कार की तरफ सिर्फ दस कदम . कैफे काओफी  के .आहते में एक ताजा सा हरा पत्ता  शाख से बिछुड़ा  गुडी-मुड़ी होकर उसके क़दमों तले लहराता हुआ दिखता है लेकिन वो देख भी नहीं पाता बेखबर सा ..ओर लगातार मोबाईल पर उसकी आवाज़, अपना हाथ हवा में,मेरी ओर  फैला कर वो  गेट बंद कर लेता है  
ओर ..एक गुब्बार सा सड़क पर .है ,ड्रायवर  की आवाज़ भी दूर से आती सुनाई देती हेँ ..किस तरफ गाडी लूं ...कोई जवाब तक देने का मन नहीं..विपरीत दिशा में  दूर तक उसकी कार की पीछे की लाईट ओझल होते-होते आँखों में रह जाती  है . ध्यानाकर्षण की सूचना गुप चुप सी रह जाती है 

....,उसकी सोच बस किसी नदी के गहरे जीवन में उतर जाने की मानिंद ...उतरती ही जाती है ..तारांकित प्रश्नों के जवाब भी नहीं मिलते उसका कसूर नहीं .. जो उसके संज्ञान में ही नहीं ...दिल्ली की वो शाम दिल में उतरती है ...
''.वो अपनी आँखों में समुद्र भरकर आती है..ओर हँसते हुए बूँद भर रोती है [ बसंत त्रिपाठी  ]
[कहानी की शक्ल में ये कहानी .कितनी मुख्त्सिर है ..नहीं मालूम ..] 

मंगलवार, 6 मार्च 2012

.सात्र का अस्तित्ववाद इसी सिद्धांत पर है कि जिन घटनाओं के लिए आप उत्तरदाई नहीं उनका बोझ भी आपके ही माथे पर है.फिर जिन्दगी का हिसाब -किताब कैसे करें कि सारे जोड़ सही हो जाए बिना किसी को घटाए ,उनके सुख चैन छीने बिना ...रोने से कुछ हांसिल नहीं

सूरज को टोहता अन्धेरा आगे-आगे चलता है.रात की अगुवाई करता,इन दिनों चीजें अपनी तरह से अलग और अलस ढंग से दूसरी तरह से  पसरी हुई है.एक आत्म निवेदन उनसे लगातार सुनाई देता है मुझे रहने दो ऐसे ही -पेड़ पत्ते कपड़ों के ढेर फ्रीज  में सुस्त सी सब्जियां पेन कागज कांच पर जमी धूल और यहाँ तक आंसू भी छलके रहने के लिए बरबस...सात्र का अस्तित्ववाद इसी सिद्धांत पर है कि जिन घटनाओं के लिए आप उत्तरदाई नहीं उनका बोझ भी आपके ही माथे पर है.फिर जिन्दगी का हिसाब -किताब कैसे करें कि सारे जोड़ सही हो जाए बिना किसी को घटाए ,उनके सुख चैन छीने बिना ...रोने से कुछ हांसिल नहीं... दर्द को दफा करने का इरादा और मौसम के बदलने का इन्तजार करो,हवाओं के चलन पर भरोसा रखो नहीं तो इस जंगल में सपने मूह फेर लेंगे स्मृतियाँ पीली पड़कर झड जायेगी ...पल-छिन्न में बीता निर्मम होकर रह जाएगा क्या हो गया है उसको वो वक्त जिसे दुहाई देकर जिया उसके- अपने लिए वो बिछुड़ गया ..उसके बाद सारे स्पर्श खुरदुरे हो कर रह गये, कैसे भूलना होता है,-ना भूलने वाली बातें अस्वाभाविक था शब्दों का अर्थ बदलना उनका विपरित हो जाना .
..एक लम्बी यात्रा से ऊबा हुआ मन और  उसमे ना सुस्ताया हुआ दिन था वो ..बस हरा भरा मन हार गया था उसी दिन जरूरी सवालों का ना मिला हुआ जवाब -----मन भी कैसी-कैसी ख़बरें गढ़ लेता है,और उतनी ही सरलता  से अचाहे को विलोपित भी..ना कह पाने के दुःख में रिसता सा मन ...अपने हिस्से कि रौशनी में, सुख में ठहरी-ठहरी सांसे,पीठ पर थमे दो हाथ ,आँखों में पलाश के फूलों कि रंगत लिए खुशबू का गीत ,जहाँ एक अलसाई दोपहर ठहर सी गई थी ,..ठंडक थोड़ा कम थी वहाँ...एक कम गहरी नदी पर पुल तैरते दिखलाई पड़ते हेँ ..डूब जाने के खतरों के साथ ..यात्राएं अधूरी और त्रस्त होकर रह जाती है ..किनारे खो जाते हेँ तिनके भी छूट जाते हेँ और दूर तक फैली धुंद मानो सब कुछ निगल जाना,चुप्पी साधे हुए .कम में अतिरिक्त हांसिल कर लेना भी अपनी इमानदारी में अपने साथ किसी और को भी देखना ..एक हिचकी आ जाती है ..दो तीन चार और लगातार कौन याद करता है ..लेकिन कौन ?पानी गले को तर करता है फिर भी बेअसर ...उस दिन ऐसा ही लगा कहीं दूर भाग जाने का मन एक लम्बी उड़ान ..नीले आसमां में बस जाने का मन बस आसमान और मेरे बीच कोई ना हो ..एक असंभव इक्षा ..फिर लगा पलक झपकते ही ये शहर दूसरे शहर में तब्दील होजाए लेकिन वो भी हो ना सका,पूरे 48 घंटे थे सब कुछ छोड़ देने के लिए ..कोई पहाड़ काट लेता पर वो पल नहीं कटे ..
उस दिन .मौसम खुशगवार था, जिसमें गैर इरादत्तन किया गया कत्ल फिर एक निरीह सपाट आतंक उसके दिल-दिमाग पर छा गया ..एक खालीपन और एक निर्मम बेवकूफी के बीच अपने को मृत्त घोषित कर देने में ही सुकून मिलना था ...वो जिन्दगी की  सबसे खुशनुमा दोपहर थी तब लगा उड़ना सचमुच ऐसा ही होता होगा अपना ही वजूद ढूँढ पाना मुश्किल था ...संगमरमरी चट्टानों से सूरज ओट हो जाता है ...आँखों का मौन आँखों में ही रह जाता है पलकों से उठते गिरते पल-पल का हिसाब जरूर होगा वहाँ , दिन बीत जाता है रात भी, और बीतती है सुबह ..थक जाती हूँ बहुत दूर तक जाने पर पलटना फिर देखना घर पीछे छूट जाता है ..लौटती हूँ क्या मांगा था ,मुठ्ठी भर धूप ही तो, वो दोपहर दिल में उतरती है सांसों में रूकती है बीच राह कोई रोक लेता है चलते-चलते टोक देता है,आहिस्ता छू लेता है आँखे खुलती है फिर कोई पीछे छूट जाता है पकड़ से परे और वहीँ मरना होता है अचाहे दुःख घसीटते से पीछा करते हेँ और फिर एक जामुनी सफर शुरू होता है अपनी ढेर सी गलतियों का कन्फेस ..तलाश का अंत... ना बोले शब्दों की आंच झुलसा जाती है,एक अकथ पीड़ा बड़े-बड़े दावों -दलीलों बौने हो रह जाते हेँ ,और अब लौटती हूँ तो सब कुछ ठहर गया है शहर के तालाबों पर धुंद,पहाड़ों पर हवाएं पेड़ों पर पत्तियां और नीले बादल सिकुड़ कर आँखों में बस जाते हेँ ,जैसे कहीं कुछ बदला ही नहीं जैसा उन्हें छोड़ा था वैसा ही ,बरसों बाद आज देखा बादलों में उड़ता हुआ एरोप्लेन बचपन की खुशी की तरह बयान ना हो सके ऐसी गंध की छुवन अब भी बरकरार है खिड़की के शीशे से लिपटी धूल को हटाने पर अंगुली कसमसाती है एक शब्द लिखा नहीं जाता ..सीधी लकीर बीच में थोड़ी आड़ी फिर ऊपर की ओर सीधी ..उसके नाम का पहला अक्षर अंगुली की पोर में धंसा रह जाता है,पूरा नाम जैसे एक पूरी यात्रा कर ली हो...क्या वो दिन वो यात्रा वो समय,स्मृतियों में इतना ही ताजा रहेगा ..गहराती शाम में उदासी घूल जाती है सुख में दुखाती शाम पीड़ा की तरह घुलती जाती है ,कोई बात नहीं सपने रहेंगे तो जियेंगे -संग,पार्क की एक बेंच पर बैठे सोचा जाना सामने,एक सेमल का बूढा पेड़ है जिसके तने में गहरी खोह दिखाई दे रही है ...... नारंगी फूलों से भरा, कुछ फूल खोह में धंस जाते हैं कुछ क़दमों में.. ओर आस-पास बिखर जाते हेँ शाम टूटती सी बीतती है थोड़ा कुछ भुलाने की कोशिश में बहुत कुछ याद आता है ..गुजरता है मन से, अपने आस पास की दुनिया ओर वे तमाम लोग जो हमारे बीच हेँ उनसे लड़ने का कोई बहाना ढूँढू ..लगता है... कहानी का एक हिस्सा पूरा होता है ,कहानी नहीं ..जिन्दगी भी नहीं 
[पहाड़ों की यातनाएं हमारे पीछे हेँ ..मैदानों की यातनाएं हमारे आगे हेँ [ब्रेतोल्ट ब्रेख्त ]..]ओर ये भी सच है की अस्तित्ववादी गंभीर होतें हेँ ओर उन्हें मजाक करना भी पसंद नहीं आता ...                   

बुधवार, 25 जनवरी 2012

..,तमाम शोरगुल में एक सिरा जो बीच-बीच में छूट या खो जाता है ,,,, तब ''मिलारेपा ''के शब्दों से बनती कविताओं में उसे ढूँढना दुधिया रौशनी में भी मुश्किल होगा ....

कुछ चीजों तक हम बार-बार पहुँचते हें कब कैसे और ये भी नहीं जानते कि वो हमारी खुशियों भरी  नियति क्यों बनती जाती है ..और हमेशा उन खुशियों का अकेलापन ---एक बनी बनाई चौखट से आर-पार आता-लेजाता रहता है चकित करता सा,शामे ढलती हें सुबहें होती हें दिल-दिमाग पर जमा सोच कि परतें उतरती हें कुछ तो ऐसी कि  ताउम्र नहीं उतरे तमाम कोशिशों के बाद भी  और कुछ...तेजी से पीछा छुड़ाने के अंदाज में भारी गडगडाहट के साथ भागती हें  मानो बरसों पुराने किसी पुल से ट्रेन गुजरती जा रही हो .एसे में   साथ-साथ -पीछे अपने पत्थरों ,पहाड़ों ,ऊँचे गठीले टेढ़े-मेढ़े पेड़ों जंगलों हरी सुखी झाड़ियों को विपरीत दिशा में भागते देखना होता है ओझल होने तक ...कभी-कभार किसी लम्बी अँधेरी सुरंग से गुजरना जहाँ काले गाढे घोल में घटनाओं का एक दुसरे पर तेजी से गिरना,सुख में सिझना,दुःख में भीगना अपने अटपटेपन की हद तक और फिर हलकी रौशनी के साथ जंगल शुरू जो  छोटी मोटी चीजों तक तो रुकता ही नहीं ये सिलसिला....एसा ही एक जंगल मुझे अपनी छत्त से दिखाई पड़ता है ..पिछले पांच-सात सालों से अपना सब कुछ साझा करता स्थिर सा एक छोटा सा जंगलनुमा पार्क हमेशा अपनी उदासी में मुझे खुश नजर आता है ...लेकिन पिछले सात दिनों से वहां से आती कुदाली-फावड़ों कि ठक-ठक  की आवाजें मेरे दिल को परेशान करती हें ..इस पार्क के चारों ओर मजबूत फेंस के लिए बनाए गए गढ्ढे, कटे पेड़ों की टहनियां छोटे-छोटे जड़ से उखड़े पेड़ सूखे मुरझाये सड़क पर दम तोड़ते नजर आते हें जाहिर सी बात है इस जंगल का काया-कल्प किया जारहा है ,ओर ये काम जोर शोर से अपने पूरे अंजाम पर है..एक दिन इसका स्वरूप बदलेगा जरूर ...किसे पता कितने दावे ,दलीलें ऊब खीज,सुलझन-उलझनों का गवाह रहा है मेरा ये छोटा सा जंगल जिसके दोनों ओर जंग लगे टूटे फूटे दरवाजे अन्दर टूटी हुई सीमेंट उखड़ी बेंच, बेतरतीब अनगिन जातियों-प्रजातियों के पेड़ पौधे मेरी अलसाई शामों में सराहते से लगते रहें हें.... सूखी हरी पत्तियों-पक्षियों गिलहरियों की फूदकन से हरदम चौकन्ना ओर गर्मियों में सदा सुसताता सा  लगता है ये जंगल थोड़ा हरा थोड़ा सूखा बरस भर रहता है इसके तकरीबन सभी कोनो में लम्बे ओर बड़े-बड़े उम्रदराज  तेबूआइन साक्षात दंडवत मुद्रा में सड़क पर  झुक आयें हें मानो उनकी अरज सुनली जाये,जो वासंती पीले गुच्छों में अब फूलने ही वाले हें हाँ उत्तर दिशा में जंगल जलेबी का काँटों भरा तने वाला पेड़ थोड़ी गुलाबी हरी फलियों की हलकी ख्श्बू में मगन लहराता सा रहता है जिसके नीचे सलोनी शाम की दूर से आती  गमक में एक सूत्र शब्द- संवाद अपने पूरेपन के साथ दोहराता है ''जब  तुम्हे याद आये हम ''घरों से छन कर आती मद्धम रौशनी में पेड़ पार्क बेंच जंगली घास रात की ठिठूरण अलबत्ता सब कुछ अच्छा लगता है यहाँ हमेशा बने रहने वाला कौतूहल हमेशा एक संभावना बने रहने की तर्ज पर महसूस होता है ...जैसे में आज सुनती हूँ दूर तक देखती हूँ टाइटन आई से जंगल से तैर कर आती मेरी छत्त तक मोईनुद्दीन डागर की शिष्या का ध्रुपद अँधेरे की हवा में अँधेरे की ख्श्बू की तरह ना सुझाई देने वाले घुप्प में शब्दों की धवन्या से परे ....एक समय में चीजें एक साथ भीतर-बाहर होती हें तब हमारे हंसने -रोने से फर्क नहीं पड़ता ..गहरी ऊब-तो कभी गहरी खुशफहमी के साथ सर उठाकर देखो तो निरभ्र आकाश बेताबी ओर बेचैनी से चक्कर लगाता नजर आता है उसे फर्क भी  नहीं पड़ता उसके दुपट्टे में कढ़े हुए बेंगनी-गुलाबी फूलों को हँसते हुए देखते ...क्या होगा बेनकाबी के बाद का मंजर ..इस छत्त इस जंगल, इस आसमान ,इस ठंडी शाम ओर रात  के बीच के समय का ..मन कई-कई पोस्टर चस्पां करना चाहता है बेतरतीब से दो करीब-करीब पेड़ पर,सिंदूरी फूल वाले एक ऊँचे पेड़ की खोह में कि- यहीं कहीं आम रास्ता हुआ करता था''  जंगल एक पेंटिंग में तब्दील हो जाएगा जिसमे एक काठ का पुल होगा जिसके आस-पास हरी पीली घास होगी जहाँ अंखुआते बीज तरतीब से फूटेंगे तितलियाँ उडती दिखेंगी एक जंगली पक्षी आसमान में स्यापा करता सा होगा मोबाइल हाथों में लिए इसका एक लंबा चक्कर भी नहीं लिया जा सकेगा,,,तमाम शोरगुल में एक सिरा जो बीच-बीच में छूट या खो जाता है ,,,, तब ''मिलारेपा ''के शब्दों से बनती कविताओं में उसे ढूँढना दुधिया रौशनी में भी मुश्किल होगा .......[''मिलारेपा'' बारहवीं सदी के तिब्बत के लामा कवि]