कुछ चीजों तक हम बार-बार पहुँचते हें कब कैसे और ये भी नहीं जानते कि वो हमारी खुशियों भरी नियति क्यों बनती जाती है ..और हमेशा उन खुशियों का अकेलापन ---एक बनी बनाई चौखट से आर-पार आता-लेजाता रहता है चकित करता सा,शामे ढलती हें सुबहें होती हें दिल-दिमाग पर जमा सोच कि परतें उतरती हें कुछ तो ऐसी कि ताउम्र नहीं उतरे तमाम कोशिशों के बाद भी और कुछ...तेजी से पीछा छुड़ाने के अंदाज में भारी गडगडाहट के साथ भागती हें मानो बरसों पुराने किसी पुल से ट्रेन गुजरती जा रही हो .एसे में साथ-साथ -पीछे अपने पत्थरों ,पहाड़ों ,ऊँचे गठीले टेढ़े-मेढ़े पेड़ों जंगलों हरी सुखी झाड़ियों को विपरीत दिशा में भागते देखना होता है ओझल होने तक ...कभी-कभार किसी लम्बी अँधेरी सुरंग से गुजरना जहाँ काले गाढे घोल में घटनाओं का एक दुसरे पर तेजी से गिरना,सुख में सिझना,दुःख में भीगना अपने अटपटेपन की हद तक और फिर हलकी रौशनी के साथ जंगल शुरू जो छोटी मोटी चीजों तक तो रुकता ही नहीं ये सिलसिला....एसा ही एक जंगल मुझे अपनी छत्त से दिखाई पड़ता है ..पिछले पांच-सात सालों से अपना सब कुछ साझा करता स्थिर सा एक छोटा सा जंगलनुमा पार्क हमेशा अपनी उदासी में मुझे खुश नजर आता है ...लेकिन पिछले सात दिनों से वहां से आती कुदाली-फावड़ों कि ठक-ठक की आवाजें मेरे दिल को परेशान करती हें ..इस पार्क के चारों ओर मजबूत फेंस के लिए बनाए गए गढ्ढे, कटे पेड़ों की टहनियां छोटे-छोटे जड़ से उखड़े पेड़ सूखे मुरझाये सड़क पर दम तोड़ते नजर आते हें जाहिर सी बात है इस जंगल का काया-कल्प किया जारहा है ,ओर ये काम जोर शोर से अपने पूरे अंजाम पर है..एक दिन इसका स्वरूप बदलेगा जरूर ...किसे पता कितने दावे ,दलीलें ऊब खीज,सुलझन-उलझनों का गवाह रहा है मेरा ये छोटा सा जंगल जिसके दोनों ओर जंग लगे टूटे फूटे दरवाजे अन्दर टूटी हुई सीमेंट उखड़ी बेंच, बेतरतीब अनगिन जातियों-प्रजातियों के पेड़ पौधे मेरी अलसाई शामों में सराहते से लगते रहें हें.... सूखी हरी पत्तियों-पक्षियों गिलहरियों की फूदकन से हरदम चौकन्ना ओर गर्मियों में सदा सुसताता सा लगता है ये जंगल थोड़ा हरा थोड़ा सूखा बरस भर रहता है इसके तकरीबन सभी कोनो में लम्बे ओर बड़े-बड़े उम्रदराज तेबूआइन साक्षात दंडवत मुद्रा में सड़क पर झुक आयें हें मानो उनकी अरज सुनली जाये,जो वासंती पीले गुच्छों में अब फूलने ही वाले हें हाँ उत्तर दिशा में जंगल जलेबी का काँटों भरा तने वाला पेड़ थोड़ी गुलाबी हरी फलियों की हलकी ख्श्बू में मगन लहराता सा रहता है जिसके नीचे सलोनी शाम की दूर से आती गमक में एक सूत्र शब्द- संवाद अपने पूरेपन के साथ दोहराता है ''जब तुम्हे याद आये हम ''घरों से छन कर आती मद्धम रौशनी में पेड़ पार्क बेंच जंगली घास रात की ठिठूरण अलबत्ता सब कुछ अच्छा लगता है यहाँ हमेशा बने रहने वाला कौतूहल हमेशा एक संभावना बने रहने की तर्ज पर महसूस होता है ...जैसे में आज सुनती हूँ दूर तक देखती हूँ टाइटन आई से जंगल से तैर कर आती मेरी छत्त तक मोईनुद्दीन डागर की शिष्या का ध्रुपद अँधेरे की हवा में अँधेरे की ख्श्बू की तरह ना सुझाई देने वाले घुप्प में शब्दों की धवन्या से परे ....एक समय में चीजें एक साथ भीतर-बाहर होती हें तब हमारे हंसने -रोने से फर्क नहीं पड़ता ..गहरी ऊब-तो कभी गहरी खुशफहमी के साथ सर उठाकर देखो तो निरभ्र आकाश बेताबी ओर बेचैनी से चक्कर लगाता नजर आता है उसे फर्क भी नहीं पड़ता उसके दुपट्टे में कढ़े हुए बेंगनी-गुलाबी फूलों को हँसते हुए देखते ...क्या होगा बेनकाबी के बाद का मंजर ..इस छत्त इस जंगल, इस आसमान ,इस ठंडी शाम ओर रात के बीच के समय का ..मन कई-कई पोस्टर चस्पां करना चाहता है बेतरतीब से दो करीब-करीब पेड़ पर,सिंदूरी फूल वाले एक ऊँचे पेड़ की खोह में कि- यहीं कहीं आम रास्ता हुआ करता था'' जंगल एक पेंटिंग में तब्दील हो जाएगा जिसमे एक काठ का पुल होगा जिसके आस-पास हरी पीली घास होगी जहाँ अंखुआते बीज तरतीब से फूटेंगे तितलियाँ उडती दिखेंगी एक जंगली पक्षी आसमान में स्यापा करता सा होगा मोबाइल हाथों में लिए इसका एक लंबा चक्कर भी नहीं लिया जा सकेगा,,,तमाम शोरगुल में एक सिरा जो बीच-बीच में छूट या खो जाता है ,,,, तब ''मिलारेपा ''के शब्दों से बनती कविताओं में उसे ढूँढना दुधिया रौशनी में भी मुश्किल होगा .......[''मिलारेपा'' बारहवीं सदी के तिब्बत के लामा कवि]
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6 टिप्पणियां:
सुन्दर,सार्थक प्रस्तुति
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें
vikram7: कैसा,यह गणतंत्र हमारा.........
आपको भी गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
छोटी छोटी बातों का आनन्द, स्मृतियों का उमड़ना, जीवन यही तो है भरा हुआ..
बहुत ही सुन्दर, प्रस्तुति. आपको बसन्त पन्चमी की हार्दिक शुभकामनाएं!
Tourism In Bihar
आज वो जंगल आधा छंट गया है वहां का नजारा बे ठौर लगता है
captivating memoir!
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