बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

पतझर मैं बारिश- हालाँकि मौसम के टूटकर गिरते पत्तों में पुरानी उदासियाँ जज्ब है... प्रेम करते हुए चुप रहने की तरह...


कोई भीड़ मैं आसानी से कैसे गुम हो सकता है ,वो भी तब-जब प्रेम एक जरूरी ताक़त की तरह मौजूदा चीजों को नए सिरे से देख रहा हो चाहे ये रह रहकर खो जाना या मिलना कितना ही मुश्किल या आसन हो और,साथ ही अच्छी पुरानी से शुरुआत करना ,ये वक्त खुश होने के निर्णय लिए जाने की ही तरह था... अपनी नाव तूफान से बचा कर ले आने की मानिंद,और निराशा- उदासियों की तह लगा कर गठरी बनाकर सिरहाने रख दिए जाने की कठिन मेहनत...फिर भी रात गहराते जाने के साथ गठाने खुलती जाती है ,जाने कितने वसंत-पतझर झरते ही जाते है, एकाध सूखे पत्ते का नुकीला रेशा-तिनका आंखों मैं कुडमुडाता है ---तुम रो रही हो ,नही तो ,रोया तो अकेले मैं जाता है --वो गीला पन सूखे-पीले और कुछ-कुछ लाल ताम्बई रंग में पड़ गए पत्तों की खडखडाहट के साथ अनन्त मैं उड़ता ही जाता है, कोई कितना और कहाँ तक समेटे,-कोई पता -घर-ठिकाना तो मिले---रास्ते भी तो निरापद हो जातें हैं अक्सर जिन पर चलते-चलते सुनाई देते शब्द -दिल के जाने किस हिस्से में दब जातें हैं -दरारें भरने लगती हैं ,लेकिन एक बारिश होते ही उनसे फिर नई कोंपलें उमीदों से झाँकने लगती हैं ...वो मोड़ आज भी हर शाम मिल ही जाता है ,जब ऐसे ही किसी मौसम में उसके शहर में बारिश हुई थी मोबाइल पर गुनगुनी आवाज़ लहराई...जानती हो आज मेरे शहर में बारिश हुई,अभी भी हो रही है बारिश में भीगी खुशी...बारिश और खुशी दोनों उसकी आवाज़ में किस्से की तरह थी,उसके बाद सांवली मिटटी की सौंधी खुशबू सा ही घुलने-मिलने वाला असीम, कभी ना ख़त्म होने वाला आकाश था---एक वक्त होता है जब अपने में बदलाव की सारी गुंजाइशें ख़त्म हो जाती है चेहरे पर एक अचाही बेचारगी और एक लंबा फासला साफ दिखाई पड़ जाता है ,कभी उसी चेहरे पर नीला बादल शिद्दत से उतर आता था,साधारण और विशिष्ट को मजबूती से थाम लेने वाली आँखें ---दिमाग के दायरे से एक लम्बी सुरंग गुजरती है,अन्धेरें में इत्मीनान से पडा इन्तजार रौशनी की पतली लकीर सा झांकता है ।यूँ तो सारी चीजें अपनी जगह ठिकाने पर रहती थी॥फिर भी जाने कैसे ठोकर लगी और जरूरी चीजें बेठिकाने होकर रह गई जो कुछ बीच राह मिला --बीच राह इधर-उधर हो गया आई .एस आई मार्का रिश्ते भी प्रमाणित होने की सूचि की प्रतीक्षा में दर्ज हो कर रह गए ...अपने ही निंदक और प्रशंसक होते-होते एक असंगत समय की और लौटा ले चलने की कोशिश कभी सफल तो कभी असफल हो जाती है ,दिकत्त यही नही -उसके ना होने पर भी होने की है और जाने क्या हुआ ,कितने बादल गरजे ,कितनी बिजली चमकी ,कितनी बे मौसमी बारिश हुई ,नाजाने कितने नदी -ताल भर गएँ होंगे उस साल नही पता ,सारे सूखे पत्ते गीले होकर ,सिमट कर ,टूटकर ,तार-तार बह गए ...क्या ये याद दिलाना होगा अब ,अपने आप को कभी -कभी सहूलियत भी देना होता है ,जो आसान नहीहोता चीजों के प्रति आस्थाओं को पैना करना,मन ही मन तकलीफों और उमीदों को जहाँ जैसा हो वहीँ छोड़ना -पकड़ना... ये वसंत भी फीका ही गुजरेगा मान लेती हूँ ,कुछ सूखे पत्ते जिन्दगी में दर्ज हो-हर्ज ही क्या है ...जिन्दगी चाहे जितनी हरी हो,हालांकि मौसम के टूटकर गिरते पत्तों में पुरानी उदासियाँ जज्ब है प्रेम करते हुए चुप रहने की तरह जो हर शाम जरूरत -बेजरूरत गमकती ख़स की खुशबु के साथ तनी चली आती है,एक नीली उदासी सिरहाने फिर भी बची रहती है, उसकी गठान नही खुलती शायद किसी और जनम में खुले..मियाँ मल्लहार में निबद्ध बेगम अख्तर की पुरअसर आवाज़ मन ही मन सीमेंट गारे रेत की ईंट दर ईंट जमाती है ....छत से दिखलाई पड़ते पार्क में खडा सिंदूरी फूलों से टंका अलग -थलग नुकीला सेमल का पेड़ -पेड़ के तने पर नाखूनों से लिखा जाने किसका नाम ...सपर्श की बुनावट में हरा ही रहता है,क्रिकेट खेलते बच्चों की गेंद उपरी शाखाओं से टकरा कर नीचे आती है पेड़ की इक्का -दुक्का बची-खुची पत्तियां झडती हुई जमीन पर बिछती जाती है ,शायद अब- अभी इन पर कोई आहट हो उसके आने की .....
जो नही है उसके इन्तजार की तरह /जो नही/होगा उसकी /उमीदों की तरह........मंगलेश डबराल