रविवार, 14 जून 2009

इच्छाएं, सेकेण्ड की सुई की तरह अन्दर ही अन्दर एक ही वृत में गोल घूमती है... समुद्र किनारे फ़िर जंगल एक नए सिरे से जलता है, पीछे काली ज़मीन छोड़ता...

एक अशिष्ट बदलाव था अध् चटके फूल चटकीली धुप मैं खिले बिना ही सिरे से काले हो सूख कर झड़ रहे थे गर्म बजती हुई हवा सन्नाटे को चीरती, भरी दोपहरी अजीब तर्क जुटाती,...गले ना उतरने वाले ,एक पुर इत्मीनान समय का कोने मैं दुबके बैठे रहना ..किसी विस्मृत नाद का हवा मैं तैरना...कानो तक पहुंचना .किसी शहर मैं अपने को अधूरा छोड़ आना --जहाँ उसकी गिरफ्त से हाथ छूट गया एक निर्वासित नदी ने मूड कर पीछे देखा ,रास्ता बदल गया ..कोई अपना सलीब यू भी ढोताहै ..जैसे तुम?उसके सामने बहुत से सवाल ख़ुद अपने जवाब ढूँढ लेते मौन अनुभवों की अभिव्यक्ति और शब्दों की बेचारगी भी थी...तभी किसी फूल का नाम याद करना उसके रंग खुशबू से अपने को सराबोर करना और एक संभावना के बीच ना ख़त्म होने वाली भीतर की यात्रा करना .जिसका गंतव्य ना था ,कहाँ जीना-मरना होगा ये भी अनिश्चित था बहुत कुछ खोया हुआ छूटा हुआ पाने की भी जद्दो-जहद ना थी -बस बचे हुए हम मैं हमी ...मन की वृतियों और इच्छाओं से संचालित एक सुखद अभ्यास था,उनदिनो-हर दिन एक निर्णायक उतार -चढाव से भरा हुआ... बाद मैं कई दिन बीते -दिनों के भीतर बहुत भीतर उन दुखों के साथ जो सिर्फ अपने सहने और भोगने के लिए थे । ऐसे मैं हर दिन बेसब्र और झुंझलाए दिन की शुरुआत होती मन को भी आख़िर खुश रहने का कोई कारण तलाशना ही पड़ता ,मुख्य द्वार पर आकाश चमेली का पौधा एकदम से बड़ा दिखलाई पड़ता है पिछली बारिश मैं रौपा था--इस बारिश मैं फूल खिल उठे उसमें ..अद्भूत भीनी खुशबू वाले जिसकी लम्बी और नुकीली डंठल को क्रॉस स्टिच की तरह एक दुसरे पर रख कर वेणी गुंथी जा सके -बहुत कुछ बुना-गुना गया असीमित सोच के पार जो बस सोचा ही जा सकता था,सुबह के अखबार के साथ ताजा ठंडी हवा, चाय की केतली ,जामुनी रंगों के गुच्छे के गुच्छे खिले फूल कुछ अलग अंदाज से सम्मोहित करते ....फिर भी समय सोच और समझ के खुरदुरे तल पर बहुत सा काई सा फिसलन भरा जमा हो जाता है ...उचाट मन तिनका रेशा तक साफ कर देना चाहता है ताकि रचे गये सुख के साथ आने वाली सुबह नए दृश्य देखें जा सके ...लेकिन कल शाम मौसम की पहली बारिश मैं गर्मी के मारे झुलसे- मुरझाये पेड़ पत्तियों और सड़कों से धूल बहकर किनारे जा लगी सब कुछ साफ-चमकदार हो गया. रह गया हरियाली के बीच एक हैरान करता एक पत्ता ...जो कहने से बच गया याद रह गया एक तार वाली फेंस के पार से उसकी कविताओं के सन्दर्भ कभी रिक्त तो कभी तिक्त करते -तय से ठीक उलट -निपट अकेली मुफलिसी पर पर रुलाते ..हंसा भी तो नही जाता ..राग द्वेष से परे परमहंस सा जीना क्या सबके बूते की बात है ऐसा भी नही था समंदर भी तैरे थे,और परिंदों से ऊँची उड़ान भी, एक ही साँस मैं खो गया फिर भी जो सच में सच से ज्यादा था ...स्लेटी शाम मुँह ढँक कर सो जाती है -एक उदास जुगनू मुठ्ठी को उजाले से भर जाता है हाथ की नसों में रौशनी की लहर दौडती है मुठ्ठी खुलती है रौशनी आंखों की पकड़ से दूर भागती गायब होती जाती है ...अंधेर भरी टोने-टोटके सी रात डराती है कहीं दूर एक आत्मीयता ढाढस बंधाती है डर नही भागता ...बहुत कुछ स्वीकार ,बहुत कुछ के साथ डूबता है ,डूबने की अपनी दुश्वारियों के साथ डूबने के अपने अंदाज और आवाज के साथ-आपकी काबलियत यही तो नही ना की कब तक बगैर साँस के जी सकते हो ..सतह पर लौटे बिना और लौटना पड़ता है दुबई में होटल अल-कसर और सामने समुद्र... पैरों के नीचे धंसती रेत के साथ हवा में घुलता कोई सपना लहरों के साथ अपने में समेट लेने को बेकाबू उसकी तरफ़ तेज़ी से आता है...वो पीछे पलटती है,एक मात्र बचाने लायक सच बच जाता है... इच्छाएं, सेकेण्ड की सुई की तरह अन्दर ही अन्दर एक ही वृत में गोल घूमती है... समुद्र किनारे फ़िर जंगल एक नए सिरे से जलता है, पीछे काली ज़मीन छोड़ता...एक पत्ते का अरण्यरोदन नहीं रुकता।
"बचना था तुम्हे सपनो से/प्रेम से, एकांत से / तुममे जो एक झरना छिपा था/बचना था उसके शोर से/बचना थे आषाढ़, फाल्गुन और आश्विन से..." (मेरे प्रिय कवि *अलोक श्रीवास्तव* की कविता का अंश)