शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

"कई मौसम एक साथ चलते हैं" अमृता प्रीतम की किताब - दूसरे आदम की बेटी...मैं


अमृता प्रीतम की "दूसरे आदम की बेटी" पुस्तक २००२ में 'राजपाल एंड संस' ने समीक्षा के लिए मुझे भेजी थी। यह किताब पढ़ना शुरू करने के बाद ख़त्म किए बगैर छोड़ देना मुश्किल है, उनके लिए ही नहीं जिन्होंने गुज़रा ज़माना देखा है या जो किताबों के साथ जिए हैं, बल्कि उनके लिए भी जो इस टी.वी संस्कृति के मुरीद तो हैं साथ ही अपने वक्त की दुनिया का अपने पड़ोसियों का और दुनियाभर के अदीनो लिखने वालों का हाल जानना चाहते हैं। अमृता प्रीतम की नायाब कलम से, एक दूसरी नायाब कलम का, एक नायाब बयान है यह किताब।


तौसीफ ने कहा - "मैं कहानियो की शक्ल मैं कुछ लौटा रही हूँ, और ख्वाहिश रखती हूँ की और लिखूं ताकि दुनिया छोड़ने से पहले मेरा वजूद हल्का हो जाए..."

कौन है ये तौसीफ? अमृता प्रीतम ने लिखा वह आई थी/ शनाख्त के कागजों पर मोहरें लगवाती हुई/और सफर के लिए/ उँगलियों पर गिने जा सकने योग्य/ दिनों की मोहलत मांगकर... मुख्य बात यह नहीं है की तौसीफ कितनी ऊँची अदीन हस्ती है पाकिस्तान की बल्कि यह है की वह अमृता की रूह में जज्ब हो चुकी दोस्त भी है, और अमृता जैसी शायराना कलम जब अपनी रूह में बैठी दूसरे आदम की बेटी के लिए चलती है तो लफ्ज़ जैसे बहने लगते है। "कई मौसम एक साथ चलते हैं मजमून के" यह शब्द कभी लाहौर शहर के ऊँचे बुर्ज के नीचे से बहता दरिया बन जाते हैं और कभी पंजाब की मिटटी में खड़े दरख्त की सुर्ख-नर्म कोंपले... कभी करांची की शायरा सईदा गजदर का जलाया हुआ दीया बनते हैं तो कभी मिजोरम की जोयान पारी की जल्पई हुई आग की लपट... ।

ऐसे एक साथ कई मौसमों की ताजा बयार बहती है इसमे। तौसीफ पाकिस्तानी लेखिका है, बागी लेखिका है, सत्ताधीशों का चैन हराम करने वाली लेखिका भी जो महीनो पाकिस्तानी जेलों में बंद रही हैं। वे उस पंजाब में पैदा हुई थी जो अब भारत में है। अमृता उस लाहौर में पली-बड़ी जो अब पाकिस्तान में है। विभाजन की बेबसी, दोनों की कलम तीखी कर गई और दर्द से भर गई। तौसीफ ने अमृता जी को ख़त लिखने शुरू किए। उनका लिखा हुआ पढने के बाद - गुमनाम ख़त, जिसमे नीचे लिखा होता था - "एक बेटी पंजाब की"। किसी ख़त के नीचे कुछ और, और किसी के अंत में "एक कैदी शहजादी का ख़त" और इस कलम की शहजादी के गुमनाम खतों से हो पहचान शुरू हुई थी अमृता जी की उसी की परिणिति है दूसरे"आदम की बेटी"।

तौसीफ ने अमृता प्रीतम के लिए कहा था - "तुम खुदा के हाथ से गिरी हुई दुआ हो", और अमृता ने कहा तौसीफ को "तुम जैसी नियामत को कोई खुदा हाथों से गिरने न दे"। यह सच ही कहा था उन्होंने ।

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

जब गूंजता हुआ एकांत था...

जब गूंजता हुआ एकांत था,
और हर संकेत समुद्र सा गहरा,
हमारे समीप का कण कण वसंत था,
और उल्लास की हर बार,एक और सूर्योदय,
और तुम
की जैसे गीत की कोई एक पंक्ति, बार बार दोहराई जाती सी,
तब सब कुछ मुठ्ठी मैं था और मैं,
मुठ्ठी मैं से रिसने का अर्थ तक नही जान पाया।

आज पुरानी डायरी खोली तो इस कविता का अंश दर्ज था। जो समय, मौका, दुःख और सुख से परे है। यह कविता,भिक्खुमोग्ग्लायन की अद्भुत प्रेम कविताओं से है।

रविवार, 26 अक्तूबर 2008

मनाओगे क्या तुम अपने को मेरे साथ, त्यौहारों से ज्यादा... "


ना मिलने के मुकाबिल जो हमे मिल जाता है उसे ही हम जानते हैं. विभक्त हुए बिना का जीवन जाने बिना, सुख के बिना का पर्व, मृत्यु के बिना का जीवन और हमारा मन। कहते है संसार की तीन चीजें कभी अपनी पहचान नहीं खोती - आकाश, धरती और मन! यदि मन में राग नहीं तो जीवन का मूल तत्व निर्जीव हो जाता है। कोई इसे अपशकुन कह सकता है, राग से अनुराग होता है तभी घर में बिना दीप के भी प्रकाश होता है, बिना पर्व के उत्सवी वातावरण। यूँ देखे तो मनुष्य का जन्म ही प्रकाश की खोज के लिए हुआ है। उसकी ऑंखें गर्भ से बहार आकर खुलती है सिकुड़ती है रौशनी के लिए, वो दीपक से मिले सूर्य से या बादलों के बीच झिलमिलाते चाँद से उसे बस प्रकाश चाहिए, अपने साथी के भीतर भी वह अपना प्रकाश पाना चाहता है - उसके सहारे जीना।

पुरूष ने सूर्यास्त के पश्चात् अंधेरे के भय को दूर करने के लिए शरण-स्थली जैसे आवर्तित प्रकाश के स्वरुप में स्त्री की खोज की थी, साथ मिलकर अग्नि के प्रकाश का दहन किया था, संध्या का वंदन किया था - तब ना उसे अधो वस्त्र की जरूरत थी ना उत्तरीय (ऊपर के वस्त्र) की थी या तो मात्र मन का प्रकाश उसकी निर्मल छवि थी, मन के किसी भी प्रारूप को कभी भी तो स्थिर नहीं किया जा सका है, ना आकाश, ना धरती, ना क्षितिज में, ना उसका मापदंड बनाया जा सका है। सच है मन ही काल और कालांतरित व्यवस्था - दोनों का निरपेक्ष दृष्टा होता है। यह मन ही है जो कभी न प्राप्त होने वाले सुख की परिकल्पना को भी बेहद अपना बना छोड़ता है। इसीलिए 'भवानी प्रसाद मिश्र' की कविता की उक्त पंक्तियाँ - "मनाओगे क्या तुम अपने को मेरे साथ, त्यौहारों से ज़्यादा" - इस उत्सवी वातावरण में भी शून्य और बेनाम होते जाते रिश्तों को मूल्यवान बनने में जुट जाती है, अपनी, निहायत भोली संभावनाओं के साथ इस लचर, शुष्क, बोनी और लिजलिजी व्यवस्था में एक गहरे अविश्वास के बावजूद मन के साथ.
-दीप पर्व की शुभकामनाएं!