मंगलवार, 26 जनवरी 2010

जो कहा जाना है -वो जो कहने से छूट जाता है ... अक्सर वही सब कुछ कह देने को... जहां दहकने शुरू हुए हेँ अभी-अभी पलाश..//


यूं तो वसंत आया है
कहने को ---
ठिठुरते शिशिर की शीत के बाद ,
इस बार थोडा जल्दी ,
लेकिन यकीन है ..इस-बार खराब मौसम ,
और इतने खराब वक़्त में भी ,
उस छोर से बंधा होगा कोई गुनगुना पल
जैसे नाव बंधी होती है ,एक गहरी आश्व्शति में ,
दिखने वाली शांत सी सतह पर ,
बावजूद पानी पर डोलती ...
बार-बार शुरू करती हूँ सोचना ,
शुरू कहाँ से हुआ ,जिसका कोई अंत नहीं ,
चाहे जीतना छूटे पीछे.. उतना ही आगे भी ,
उलट कर ''अपनापन'' ताज़ी निलाई से लिखता है,
लिख-लिख फैलाता है कोई हुनरमंद हाथों से ....
उसके निरंकुश फैसले पढ़े नहीं जाते ,
घिस-घिस बीत ही जाते हेँ हजार दिन ,
कुछ रेशमी दिन पीछे और धूल सने दिन-रात आगे खड़े मिलतें हेँ
कितना झूटा है ये ,रोने-रोने को हो आता अभिमान बार-बार
और सुरक्षित रहतें हेँ अभाव के तकादे ,
सिरजा दिया वो सब...बूँद-बूँद छींट-छींट हरहरा आये थे जो,
निस्संग मन इन धूसर पीले दिनों से पूछ बैठता है..
कहाँ जाना था तुम्हे ?उस पहाड़ी पर ,
या किसी जंगल में --जहां दहकने शुरू हुए हेँ अभी-अभी पलाश
या वहां जहां सीखा तुमने ,
निपट अंधेरों से ऊपर आने का सफल अभ्यास,
सच एक-एक सीढ़ी ,
द्रश्य का बदलना
सवेंदी सूचकांक सूचित करता है ,
चीजों के लुढकने के संकेत ...
धैर्य खोता है ,धारणाएं टूटती है...
कुछ पल्ले नहीं पड़ता ,
कितना छोटा था मेरा सुख
इस बड़ी और गोल सी दुनिया में
बस समा जाए इस मौसम इस वक़्त में
उगते सूरज की रौशनी में, लहरों में पछाड़ खाता समंदर और ज़रा सा प्रेम
बंधा होगा उस छोर से जरूर बहुत कुछ अब भी ...
ताकि ,जो कहा जाना है -वो जो कहने से छूट जाता है ...
अक्सर वही सब कुछ कह देने को,
इस वसंत में ...

कहाँ से ढूँढ के लायें हम फन की सनद, तू अपने शब्द के पत्थर मेरे हिसाब में रख..! (-जमील कुरैशी)