रविवार, 25 जनवरी 2009

गुमी हुई चीजें मिल जाती हैं, कभी नही ,और कभी अप्रत्याशित खुशियों की तरह सामने आ जाती है..



अक्सर ही हम अपनी जिन्दगी मैं चीजें खो देतें हैं ,.कभी लापरवाही से और कभी भाग्य से वो हमारी हो करभी.... नही होती,कभी चोरी तो कभी नष्ट हो जाती है लेकिन हम उन्हें वहीँ तलाश नही करते जहाँ मिलने की उम्मीद होती है ,वरन एक सीमा तक हमारा मन चीजों की तलाश उन ठिकानो पर भी करता रहता है ,जहाँ से लौटने की उनकी कोई गुंजाइश नही होती... फिर भी चीजें कभी लौटती है और कभी स्मर्तियाँ ...और कभी ता उम्र नही ,पिंजरे से उड़ गए पाखी की तरह...गये हुए माता-पिता,भाई-बहन या किसी प्रिय की मानिंद.चाहे जितनी सतर्कताएँ हम बरतें निष्कपट सत्य यही है एक अजब संत्रास मैं कभी लिखकर,गा कर ,सुनकर,अन्य की कविता मैं खोजकर,कभी अपने ही आंसुओं मैं भीग कर ,तो भी....और हम वहीँ बाजी हार जातें हैं जहाँ हमारा सब कुछ दावं पर ,लगा होता है चीजें....भ्रामक सिद्ध होजाती है ..एक अचाहा नर्कभोगने की मजबूरी होती है ..खोई चीजों को चाहे ,पूरीनिष्ठा ,पूरीइमानदारी,,पूरे,विश्वाश के साथआव्हान किया गया हो तोभी क्या कोई लौटेगा ...कुछ वाकये हमारी जिन्दगी से ताल मेल बैठा लेतें हैं उनकी नियति बस हमारी ही होती है...बेटी के ६-७ वर्ष की उमर होने तक करीब ६०७० पुस्तकें इकठा हो गई थी जो उसे उपहार मैं मिलती रही थी...बचपन से ही किताबें पढने का उसे शौक भी था,सीलन से बचानेकी खातिर मैंने उन्हें एक दिन छत पर धूप मैं फैला दिया शाम उन्हें समेटने के वक्त देखा तो वो चोरी हो गई थी ...शायद कोई रद्दी -बेचने खरीदने वाला उन्हें ले गया था ,बेटी का रो,रो कर बुरा हाल हो गया,मैंने भरसक उन जगहों पर उन्हें तलाशा जहाँ वो मिल सकती थी ..कोई सुराग नही ,किताबें गुमने का दुःख एक सदमे की तरह था ..और उबरना मुश्किल ,जिन किताबों के नाम हमें याद थे और जो-जो मिल पाई हमने खरीद ली कुछ यहाँ वहाँ से इकठा की लेकिन बेटी संतुस्ट नही हुईउसकी अपनी किताबों से कुछ अलग तरह की आत्मीयता थी ..समय बीता और इस बात को तेरह साल हो गए,....अभी हाल ही मैं भोपाल पुस्तक मेला लगा था बेटी की जिद्द थी कुछ किताबें खरीदी जाएँ, उसके अपनी बचत के दो हजार रुपयों से ...हालांकि किताबों को देख कर जो एक लालच हावी हो जाता है दिल-दिमाग पर उस पर भी काबू पाना था ..सोचा शुरुआत पुरानी किताबों की किसी स्टाल से की,जाए ...एक जगह बेटी अपनी पसंद की किताबें उलट-पुलट कर उनके इंट्रो दक्शन पढ़कर और उनकी कीमत देख कर सलेक्ट कर थी ..अचानक एक पुस्तक पर मेरी नजर पढ़ गई मैंने कहा ये तो तुम बचपन मैं पढ़ चुकी हो,तुम्हारे पास थी यकायक हम दोनों के दिमाग मैं गुमी हुई किताबों के ढेर का ख्याल तेजी से एक साथ कौंधा किताब का नाम था ,स्वीट वैली ट्विन्स ..उसने किताब का फ्रंट पेज खोला,बचपन की स्म्रतियों के साथ ..इनर पेज पर नजर पढ़ते ही वो चीख पड़ीj यह किताब मेरी ही है,उसकी आँखेंअचरज और खुशी से फैल गई थी ये उसी की लिखावट थी जिस पर

पेंसिल से टेढे -मेढ़े तरिके से हैवन लिखा हुआ था यकीनन ये उसी की हेंड लिखावट थी .जिसमे लिखे स्वर्ग शब्द के लिए उसे बचपन मैं एक झापड़ पडा था ,क्योंकि उसे बताया गया था की किताबें स्वर्ग का रास्ता होती है ,,,उसे गंदा नही करना चाहिए,उसने किताब को सीने मैं भींच लिया क्या यह कोई इंसिडेंट था? क्या चीजें लौटती हैं? सालों बाद भी?कभी शक्ल बदल कर लेकिन लौटतीहै , मुझे तो कम स कम यही अनुभव हुआ है ,अभी इसी मकर संक्रांत पर माँ की दी हुई साड़ी पहनने का मन हुआ ..तह खोली तो २१०० रूपये फर्श पर गिर पड़े उन्होंने साड़ी के साथ दिए थे रख कर भूल गई थी ..समझ नही आया रो पडूं या आंसू जब्त कर लूँ माँ के बिना बेरौनक और फीके पड़ते जाते त्यौहार ...लगा माँ लौट आई है, उन्हें मैंने खोते हुए देखा ,म्रत्यु के १० घंटे पहले तक ..तीन साल पहले ..विष्णु सहस्त्र नाम ,महा म्रत्युन्जय का पाठ,गणपति अथर्व शीर्ष का पाठ सतत सुनते चली गई ..कहा करती थी वो...सूर्य मन्त्र का पाठ प्रति दिन किया करो ..किसी दिन सूरज नही निकले तो क्या करोगे ?.मोगरे के फूलों की खुशबू मे,उनकी सुगंध,किसी पुस्तक की पंक्तियों में उनकी जीवन द्रष्टि का साम्य जिन्दगी की जीत-हार में आशीर्वाद और आश्वाशन की तरह वो अक्सर दिखाई देती है बस मुश्किलों से यूही पार पा जाती हूँ जब जब आस-पास बनावटीपन में सधी हुई बेईमानियाँ और षड्यंत्री चुप्पियाँ पाती हूँ तब -तब...मीठी घाटी में बेटी की खोई किताब कीतरह.....

माँ मिल ही जाती है अप्रत्याशित खुशियों कीतरह...