गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

प्रेम में दर्ज चीजें अनुपस्थिति मैं,उपस्थित प्रवासी परिंदों की उड़ान के साथ जब वो एक तंग गली से गुजर रही थी


एक थरथराती गंध के साथ हथेलियों से आंखों तक फैली हेरानी,उतेजनाओं के साथ वो मुलाक़ात पहली ,फिर तो मुलाकातों के कई शेड्स....नई आस्थाओं के साथ पुराने लड़े गए युद्ध ,मुक्ति की प्रार्थना तक,इतिहास मैं शामिल होने को तैयार उन क्षणों पर आत्म मुग्ध..दग्ध..हताश होने के अलावा कुछ हो ही नही सकता था उसकी निश्छल साफगोई का कायल होना जरूरी हो गया था ,लेकिन चीजों को तह करना उसे खूब आता था,एक ऊंचाई पर जाकर अपने को नीचे गिरते हुए देखना वहम ही होगा, लेकिन लाइलाज ,जैसे लिफ्ट मैं अकेले होना लन्दन आय मैं बेठना ..हो या हंस प्लाजा की अठाहरवीं फ्लोर पर होना, एक मूर्खता भरी सोच देहली की उस बे मौसमी बारिश मैं किसी का याद आना,उसकी मुश्किलों से बेखबर ,उसकी रूममेट का ही प्रस्ताव था रूफ टॉप पर जाकर टहला जाए ,एक वर्कशॉप अटेंड करने एक ही शहर से दोनों साथ थी जहाँ उनके साथ हमपेशा कई विदेशी महिलायें भी थी प्रोग्राम कोआर्दिनेटर ने वैसे तो डिनर प्रगति मैदान के होटल बलूची मैं रखा था,लौटते वक्त भी हलकी बारिश थी सड़कें गीली और नम थी ,थोडी ठंडक भी थी ,,,उस सनातन मूर्खता भरे प्रेम का कोई सिरा क्या अब खोजने पर भी मिलेगा ?उसे काल करना ,उत्तर मिला निस्संग व्यस्त हूँ कई क्षण आए किसी की जिन्दगी मैं बिना दखल दिए उसे लगा उसकी हेसियत सिफर है ....बाद मैं कई तार्किक शिकायतों का रिजल्ट भी सिफर ही रहा ,एक भरथरी गायकी का विलाप अन्दर ही अन्दर गूंजता रहा ..देर रात शौक से पहनी पोचमपल्ली सिल्क की गहरी नीली कथई हरे ,काले और मस्टर्ड ,मिक्स रंगों वाली वो खुबसूरत साड़ी सलवटों भरी उस शाम के बाद फिर ना पहनी जा सकी ,एहसास की गहराई का इतना उथला होना बुलंद सोच का भरभरा कर गिरना और मुग्धा होने के कारण ...केया गंध मैं गुथा हुआ साथ जरूर था जाने क्या हुआ , उन दिनों ....कई दफे सोच और समय समाप्त हो जाता है फिर भी रास्ते बाकी रहतें हैं, एक चुप्पी के साथ उदासी वहीँ आकर ठहर जाती है ,निशब्द चीजें इतनी तरतीबी से कैसे रह सकती है , जी सकती हैं बावजूद अपमानित -आहात होने के इतने कारण उसके हिस्से ही क्यों आए ?कोई निहत्था हो तो भीतरी आस्था ही तो बचेगी दूसरी लडाइयों के लिए, दर्ज चीजे अनुपस्थिति मैं उपस्थित ,किनारों से पानी सूखने की कगार के साथ मौसम बदलने और प्रवासी परिंदों की उड़ान के साथ भी एक इनटूशं न रहा होगा जब वो एक तंग गली से गुज़र रही थी...

उन्होंने चिंदी -चिंदी किया प्रेम ,ताकि सुख से नफरत कर सके उन्होंने धज्जियाँ उडाई जीवन की ताकि सुख से मर सके

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

मेरे शहर मैं २ दिसम्बर १९८४,सूरज पे हमें विशवास है


बोलों पे जड़ दिए ताले
सूरज कैद कर लिया था किसीने
सन्नाटा था ,हवाए नाराज ,पेड़ उदास ,
मेरे शहर मैं ख़ास अर्थ होता है
धूपऔर हवा के निकलने बिखरने का
सिमट गए थे , तालाब,समीक्षित हो गया आकाश,
बदल गई थी जिंदगियां हिरोशिमा और नागासाकी के ढेर मैं
बीत गए साल दर साल,
बदलने- सँवारने-निखारने की तयारियों मैं ,
परछाइयां पकडती व्यवस्था घटा टौप अंधेरों मैं
रचती हर दिन एक नया षड़यंत्र ......
उन दिनों ,मेरे दोस्त
सुबह का इन्तजार बेहद जरूरी था
और मैं अपने शहर के तालाब पर फैली
सिर्फ स्याह काई देखती रही
सोचती रही
अपनी गोद से उछाल देगा आकाश
यकायक पीला सुनहरा सूरज
सूरज पे हमें विशवास है

गैस त्रासदी पे लिखने के लिए जो शब्द हो ,मेरे पास नही ,ये उसी वक्त लिखी और प्रकाशित एक लम्बी कविता थी जो थोड़े से बदलाव के साथ है...

रविवार, 30 नवंबर 2008

खिलेंगे फूल उस जगह की तू जहाँ शहीद हो ,...वतन की राह ....

ये गीत बचपन मैं बहुत सुना करते थे ,..और उसदिन भी खूब खूब याद आया,जिस दिन नाटकीय ढंग से डूबा सूरज ,और वे हमारे सामने से दूर जाते -जाते ,अंधेरों का हिस्सा बन गए लेकिन अपने दिव्य अन्धकार मैं भी चमकते सितारों की तरह हमारे उजालों की खातिर,...और हम बता सकें आसमान की और इंगित कर,देखो वो कितनी ऊंचाई पर हैं जिनकी स्मृति से मन पवित्र और सुगन्धित रहेगा ,किसने सोचा था,उनकी कर्मठ पवित्रता पे इश्वर भी मुग्ध हो जायेगा,इतना स्वार्थी बन जायेगा ,...अपनों से बिछुड़ अकेलापन स्वीकार कर चुकाई गई अमन और शांति की भारी कीमत, पिछले दो दिनों से शहीदों के लिए जयघोष ,एक ग्लानी ,छोब से बोझिल है समूचा देश ,स्तब्ध मन को समझाना पढता है ,शरीर दुखों का घर है ,और बचपन मैं बतौर समझाई गई बातें इश्वर जिन्हें प्यार करता है उन्हें अपने पास बुला लेता है ,यकीन करना पढ़ता है हलाँकि यकीन करना मुश्कील है ,उन्हें शताधिक नमन ,.....बस इतना ही की खिलेंगे फूल उस जगह के तू जहाँ शहीद हो ,...देश प्रेम का सबसे जीवंत गीत ,रफी जी की गहरी संवेदनाओं के साथ बेशकीमती शब्द रचना ,ज्यादातर इसे सुना गया होगा ,इसे दुबारा सुने, ,सर्च करने पर भी नही मिला शायद आनंदमठ या शहीद भगतसिंग दिलीप कुमार की पिक्चर से है मिले तो देखे /सुनवाएं
लो ये स्मृति /यह श्रध्धा /ये हँसी/ये आहूत स्पर्श -पूत भाव /यह मैं यह तुम /यह खिलना/यह ज्वार ,यह प्लवन /यह प्यार /यह अडूब उमड़ना/ सब तुम्हे दिया/यह सब-सब तुम्हे दिया .....अजेय