सोमवार, 28 जून 2010

ढेर से भय से दूर..जाना होगा कहना- एक प्रश्न का स्थिर होना ,एक खुशरंग परिद्रश्य के कुछ हिस्से जब दुनिया से कोई शिकायत नहीं होती ..//

हीं इस तरह नहीं होना था--एक असमंजस उन आँखों में अटक जाता है,तो फिर कैसे होता?..प्रश्न उलझाता है,..उस शाम का अंत. सोच की कई लहरें एक साथ किनारे आती हुई लौट जाती है, एक में अनेक सवालों की तरह तैरती सी....वो टकटकी बांधे देखता है ...मत सोचो ,मन को भी समझाता है --भला यूं भी कोई मन समझता है ,ये भी तो सोच में शामिल होता है, लेकिन अचाहे,गाहे-बगाहे सोच का बोझिल अंधड़ दिल-दिमाग पर सवार हो ही जाता है ,एक चुप्पी दिल में बजती है ---फिसलती सी उसकी नजरें दूसरे सिरे तक जा कर लौटती है,जहाँ तक आँखें द्रश्यों का पीछा कर सकती है ....इसके बीच खिड़की के शीशे ढलती धूप,और कन्नड़ हाउस की मुंडेर पर फडफडाते कबूतर क्षण भर को सोच के दरिया में कंकर की तरह हलचल मचाते हैं लहरों की छोटी भंवर, एंटीक्लॉक वाईस घुमती है ,फिर लौटना ..कहना ..''तुम्हे खुदा पर यकीन है'' नहीं हठात और जल्दबाजी में मिला जवाब सवाल के साथ ही लिपटा सा टेढा-मेढ़ा हो जाता है जवाब तो होना था '' हाँ ''लेकिन इतना अडिग और जमा हुआ जवाब कि सवाल ही हार मान ले...पिघलने लगे ...उसकी आँखे बोलती है अब कुछ नहीं कहा जाता है तो शब्द थोड़ा जगह बनाते हुए उसकी तरफ आते हेँ ''कहा ना नहीं जानता ''कि किस पर यकीन करूँ ---दोनों के बीच आबो हवा नर्म सी होकर गुजरती है शब्द अंधड़ में उड़ने से बच जाते हेँ ,खिड़की से परे टुकड़ों में छोटे-बड़े पल चक्करघिन्नी खाते हुए, मुझे माफ करें और रिहाई दें ,क्या ,क्या दुबारा कहना सुनना आसान होता ...अचकचा जाना गर्म मोम कि बूंदे दिल कि सतह पर गिरती जमती -उधडती जाती है त्वचा कि सात तहों से होकर नीचे तक जाकर ....तुम्हारी पुकार कानो तक नहीं पहुँचती ..ओह अब चौकने कि बारी उसकी थी,मुझे बख्श दें ,शब्द हेरा फेरी करतें हेँ ,वो काबू पाती है ..असमंजस ,पल, सवाल, समय एक अंधड़ की शक्ल में सतही हो अपरोक्ष से लरजते हेँ,तुम तो हम ख्याल थे ,शायद --पल की चुप्पी सालों में बहती है उसी अँधेरी चुप्पी का एक आइस क्यूब ठंडा, सफेद, पारदर्शी- दर सेकण्ड के हिसाब से पिघलता है,इतना छोटा अंतराल ऐसी जलन जैसी सोची ना गई हो --कोई असर नहीं,कोई ठंडक नहीं कोई राहत नहीं , एक जिद्द में कुछ लहराता है,ढेर सी प्रार्थनाएं चौखट पर खडी बुदबुदाती है...वो दालान वो मुंडेर वो कोना वो सीढियां आकाश ताकतें हेँ ,कोई किस मिटटी से बनता है कोई किस से ....चुप्पी घिसटती सी सर उठाती है ..कोई आतुरता नहीं वहां, कहे गये वाक्य जुड़ते से बड़े वाक्य में तब्दील होतें हेँ...फिर अपने ही बोझ तले किसी गहरी खाई में गिरते ...हुए फिर जादुई ढंग से ऊपर खींचते हुए...ध्यान टूटता है आकाश से एक तारा भी ठीक उसी वक्त मांग लो जो मांगना है----वो रूकती सी शब्दों को समेटती है ,ये क्या ?तारा तो तब तक धरती में समा जाता है... कभी पहले मिला जवाब आज में जोड़ लेना होता है ,एक बियाँबान को गुंजाना ..बांस के झुरमुटों से गुजरते-गुजरते शाम ओझल होना ही चाहती है लगता है उसे रोक लिया जाए,,,बहुत आसान था इस तरह उस शाम के साथ कुछ भी रोक लेना उसकी तरफ देखते हुए ....बाहर नीम की हरी शाखाएं कुडमुडाई उड़ान की कोशिश सतह से ऊपर थोड़ा सही, पैर जमीन टटोलतें हेँ, उठती बंद होती आँखों में चाशनी सी घुलती हुई हर तरह के भय से मुक्त, ढेर से भय से दूर.. मोबाइल में काल्पनिक मेसेज देखना, जाना होगा कहना- एक प्रश्न का स्थिर होना ,एक खुशरंग परिद्रश्य के कुछ हिस्से जब दुनिया से कोई शिकायत नहीं होती ..उस शाम का अंत ..बीतती है शाम चुपचाप ना गिनने में..आती हुई-- तारीखें हर दिन अखबारों की हेडलाइंस के ऊपर ब्लेक एंड व्हाइट फिल्मों की तर्ज पर फडफडाती हेँ

यह शब्द-चित्र जब लिखा गया मालूम नहीं था ... शाम का अंत इस सीलन भरे समय में, आईने से रूबरू शब्द होते हैं जैसे , वैसे ही... शब्दों की उर्ध्व गामी यात्राएं जिन्हें सोचा ही नहीं गया..