गुरुवार, 12 अगस्त 2010

एक अधूरी कहानी का पूरा ज़िक्र...

वो गलतफमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहता था ..उसके शब्द भरसक सहेजते हुए भी थरथरा रहे थे ,मानो उन पर तेजी से पानी फिसल रहा हो सब कुछ समझ आ रहा था ..पारदर्शी --पर अब कुछ नहीं हो सकता था उसने तो कहा जो नहीं कहना था ,और कुछ भी तो कहा जा सकता था ---सिवाय इसके जो कहा गया ....उसने उसका एक हाथ थाम लिया और चूम लिया कि मानो अपना सारा प्रेम ,सारा विशवास उस चूमने कि थरथराहट में पिरो दिया हो उसकी दुनिया बदल रही थी एक ना समझ सी समझ की गिरफ्त में था सब कुछ,ये सब कहने करने की भी कई कई रिहर्सल जो बखूबी था और नेपथ्य से लगातार तालियों की आवाजें ...वो समझदार था,समय की नब्ज पकड़ने में माहिर कैसे परिणाम उसके हक में हों ये भी ...सब  कुछ ..लेकिन ऐसे ही उसके सामने ना समझ आने वाली मूर्खता में आँखों को गीली करती हुई चुप सी खडी रह गई लड़की, अपने वजूद में रुई से भी हल्की...
किसी पत्रिका के लिए  कुछ लघु कथाएं  लिखी थी, आधी अधूरी थी, फिर समय निकल गया भेज भी नहीं पाई, इसलिए ताना -बाना पर ही सही ..