वो गलतफमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहता था ..उसके शब्द भरसक सहेजते हुए भी थरथरा रहे थे ,मानो उन पर तेजी से पानी फिसल रहा हो सब कुछ समझ आ रहा था ..पारदर्शी --पर अब कुछ नहीं हो सकता था उसने तो कहा जो नहीं कहना था ,और कुछ भी तो कहा जा सकता था ---सिवाय इसके जो कहा गया ....उसने उसका एक हाथ थाम लिया और चूम लिया कि मानो अपना सारा प्रेम ,सारा विशवास उस चूमने कि थरथराहट में पिरो दिया हो उसकी दुनिया बदल रही थी एक ना समझ सी समझ की गिरफ्त में था सब कुछ,ये सब कहने करने की भी कई कई रिहर्सल जो बखूबी था और नेपथ्य से लगातार तालियों की आवाजें ...वो समझदार था,समय की नब्ज पकड़ने में माहिर कैसे परिणाम उसके हक में हों ये भी ...सब कुछ ..लेकिन ऐसे ही उसके सामने ना समझ आने वाली मूर्खता में आँखों को गीली करती हुई चुप सी खडी रह गई लड़की, अपने वजूद में रुई से भी हल्की...
किसी पत्रिका के लिए कुछ लघु कथाएं लिखी थी, आधी अधूरी थी, फिर समय निकल गया भेज भी नहीं पाई, इसलिए ताना -बाना पर ही सही ..
12 टिप्पणियां:
Aah!
बहुत ही सुंदर रचना धन्यवाद
adhbhut sabd sayonjan..........
ताना बाना का कंटेंट अद्भुत होता है, आज आप इसे भले ही "इसलिए ताना -बाना पर ही सही .." कहती हैं मगर ये ब्लॉग सभी स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाओं से कहीं उन्नीस नहीं लगा मुझे ... आपकी कुछ कविताएं, कहानियों की शक्ल में और कुछ कहानिया कविताओं के रूप मैं पढ़ी है...
छोटी सी, सुन्दर सी, मधुर अभिव्यक्ति।
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बेहद सुन्दर और नाजुक रचना है
पढ़ कर अच्छा लगा
अपने अधूरेपन में भी नए आयाम को छू रही है , इसे कभी पूरा न करें ..कुछ फुन्दे उधडे रहने दो :)
Kahani ka sirshik hi parne ke liye betab kr deta hai
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