सोमवार, 23 नवंबर 2009

//-जो बार-बार मिलता-बिछड़ता है , -मन रूक सा जाता है.. उसका बोलना पानी के बीच घुलता जाता है.-एक नया मौसम इस मौसम के विरुद्ध हो जाता है...

लगातार होती बेमौसमी बारिश से आँगन की दीवारों से प्लास्टर छोटे-बड़े टुकड़ों की शक्ल में झड रहा-था,जिस दीवार से सटकर दोपहर की हलकी अप्रत्याशित धूप में थोड़ी देर बैठकर वो कुछ पढ़ना चाहती थी.लेकिन उसे इरादा बदलना पडा,खिड़की से आती मामूली धूप के लकीर नुमा टुकडे के साथ बाहर देखते हुए,---बारिश,धुंद,धूप,कोहरे की मिली-जुली ढलती दोपहर में पेड़ों के पत्ते नीले-नीले से दिखाई पड़ते हें ....अभी-अभी धूप थी ओर बस अभी बूंदा-बांदी शुरू ---पानी की हल्की बूंदों के पार खूबसूरत अंदाज में पिघलती कुछ सपाट आकृतियाँ आकार लेती है शाम की शुरुआत होना ही चाहती है,अध् पढ़ी कहानी का पृष्ट बिन मोड़े ही वो गोद में उलट देती है ..तुरंत ही गलती का अहसास ,अब फिर सिरा ढूँढना होगा दुबारा शुरू करने के पहले,-कहाँ छोड़ा था,क्या ये मुमकिन होगा शुरुआत से पहले छूटे हुए कथा सूत्र को पकड़ पाना,एक ख्याल गाथा नया सिरा पकड़ लेती है , उधेड़बुन के साथ -सच कुछ भ्रम भी जरूरी है अच्छे से जीने के लिए ..पर मन की तरह मौसम भी बेहद खराब है,यहाँ ..ओर वहां ?इस सवाल का जवाब उसे नहीं मिलना था जो नहीं होगा उस इक्छा की तरह ..मन की खिन्नता के बावजूद उसका इन्टेस चेहरा खिल उठा शायद मोबाईल के साइलेंट मोड़ में रौशनी जल-बुझ उठेगी बिन आहट सोचना ....लेकिन उम्मीद से थोड़ा ज्यादा किसी भी नतीजों पर ना पहुँचने वाले फैसले एक झिझके हुए दिन के साथ अनुनय करते समय के बरक्स .. उदास-निराश होकर रह जाते हेँ,ताज़ी यात्रा में देखे सागौन के पेड़ों पर कच्चे -हरे फल पिछली यात्रा की जरूरी घटनाओं की तरह याद आतें हेँ ...फिर नया कुछ ,पानी में निथरा हुआ -आधा तर -एक साफ चेहरा ओर कई रंगों की बे शुमार भीड़ में फबता सा उस पर काला रंग.. देखी -सोची चीजें आहिस्ता से करवटें लेती -धीरे-धीरे जागती है ,एक लम्बी खामोशी में पढ़ना- जीना ज्यादा सोचना ,कितना सजीव हो उठता है -जब परिंदे घर लौटने की तैयारी में होतें हेँ बिन भूले अपने ठौर -ठिकाने .ओर अपनी नन्ही आँखों से आकाश से नीचे छूटते घर ,पेड़ पत्तियां पहाड़ --चोंच में दबाये मूल्यवान स्मृतियाँ -ओर जोखिम भरी इक्छायें वैसी ही जो हमारी जरूरतों की तरह ठोस थी-सच थी,यकायक सुखों का फूलों में खिलना,दुखों का द्रश्य में तब्दील होना ...वो दायें हाथ को बाएं कंधे पर ओर बाएं हाथ को दायें कंधे पर रख ,दोनों को एक साथ मोड़कर उसमें अपना चेहरा धंसा लेती है वो समय कैसे तय हुआ वो समझ नहीं पाती ,कुछ जिद्दी पल कोहनी से टकराते हुए -झांकते से उसका चेहरा टटोलने की कोशिश करते हेँ ...बारिश की नमी वहां तब तक अपनी मौजूदगी दर्ज कर चुकी होती है, किसी खेल में सावधानी के बावजूद पिट जाना, भाग्य का खेल, नहीं...हानि -लाभ ,जीवन-मरण ,यश-अपयश ,जीत -हार,बिन बोला भी सच रह जाता है, ओर ज्यादा सच डायरी में दर्ज.प्रवंचनाये टूटती है ,समेटी खुशबू उड़ जाती है मौसम के रंग फीके पड जातें हेँ,स्मृतियाँ धुन्द में खोती जाती है ,चाँद से मन अघा जाता है गीतों का शौर कानो को रास नहीं आता, अविकल बहती हुई , किसी इबारत में ना समा पाने वाली इच्छाएं किसी अनासक्त लय का पीछा करती हेँ ओर निरंतर बदलती अपनी दुनिया के आकाश की निसीमता में नक्षत्रों के शब्द बनाना और मेहँदी भरी खुशबू की हथेलियों से उसका नाम लिखना ...दुखों के ढेर में एक बड़ा, असीम सुख ,एक अर्थ के करीब पहुँचते -पहुँचते दूसरे अर्थ का सामने आजाना --झुके -तने पेड़ों के बीच अवस्थित खपरैल के छत्त वाली झोपड़ियाँ काश की वहां दो क्षण सुस्ता पाते ,ओर नीले गुलाबी रेशमी बादलों के टुकड़े कार के शीशे के परे पीछे छूटते और इच्छाओं की प्रबलताओं ओर निर्बलताओं के के बीच बार-बार पढ़े गये दुर्लभ प्रसंग की तरह सामने आते हेँ जीवन के गाढे उन्माद - में रोज उग आने वाले नए दुखों के बीच ----जो नहीं कहा ,सुन लिया गया उधर ये क्या कम है, वो सर उठाती है बीच नर्मदा से महेश्वर घाट देखना ,घाट की सतह पर किला ,किले की सतह पर पत्थरों के बीच हरी नर्म घास ओर उसका चेहरा हर जगह यहाँ-वहां सुपर इम्पोज हो जाता है हमेशा यही चाहना क्यों जो सबसे अच्छा पल है सबसे मीठा -सबसे अधिक सुखद सबसे विस्मयकारी कोई और भी देखे ,सुने,संग संग ओर ये जो फूल दिन भर आँगन में गिरते रहते हेँ इनकी आहट भी,उनके रंगों के साथ पर ..-एक नया मौसम इस मौसम के विरुद्ध हो जाता है आजकल नवम्बर में भारी वर्षा ओर तूफान की चेतावनी ... अनेकों सुर्योदयों -सूर्यास्तों के बीच जो बार-बार मिलता-बिछड़ता है , -मन रूक सा जाता है उसका बोलना पानी के बीच घुलता जाता है.-एक नया मौसम इस मौसम के विरुद्ध हो जाता है आजकल नवम्बर में भारी वर्षा ओर तूफान की चेतावनी... बारिश में चेखव को पढ़ना ....ओर इस मौसम में जब ना ठंडक है ना गर्माहट - दुःख है ना सुख ,दोस्तोव्यस्की को ....दोस्तोव्यस्की की एक लम्बी कहानी ''दिल का कमजोर -कल ही ख़त्म की है वे कहतें हेँ जीवन की चेतना जीवन से बढ़कर है ओर सुख के नियमों की जानकारी सुखों से बढ़कर है ..शाम का अन्धेरा कमरे में इकठा होता है ,दरवाजे पर कुछ पल ठिठके हुए -एक धनात्मक उम्मीद के साथ ,गीतों किताबों ओर उनकी रौशनी में ......देर रात उसने न्यूज़ चेनल पर देखा समुद्र तटीय राज्यों महाराष्ट्र ओर गुजरात से फयान गुजार गया ,ख़तरा टल गया ..
कोई देता है दर -ए दिल से मुसल्सल आवाज,और फिर अपनी ही आवाज से घबराता है...अपने बदले हुए अंदाज का अहसास नहीं उसको ,मेरे बहके हुए अंदाज से घबराता है ..(- कैफी आजमी)