मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

आवाजें स्थिति सापेक्ष हो मौन हो जाती है,नियति एक नही कई शब्द, कई अर्थ जुडाती है --भावों को ताड़ती है कुछ भारी भरकम सा दिल-दिमाग पर शायद कोई बादल या पत

यूँ कहें कि जब कुछ घट रहा होता है तो वो सच होता है ,लेकिन कितना ..उस घटने के बाद ही पता चलता है चीजें और वक्त अपनी अर्थवत्ता साबित करती हें,और कभी कभी दलीलें कारगर नही होती ...उसने कैसे -कैसे बहाने किए अपने आप से ..तब एक अलग ढंग से पसरे सन्नाटे ने धूल और उमस भरी दोपहरी में उसकी आत्म तल्लीनता को ओर गहरा कर दिया,...बीच- बची उष्मा से तिक्त आवेग आनंद के साथ कौतुहल से लबालब क्षणों में ...फिर कहीं कोई हलचल नही ,फुरसत में ,जिसमें किसी ग़लत या तंग सीवन को उधेड़ना और उसी कवायद में किनारों का कुछ और फटना -छितरा जाना बस ऐसे कि दुबारा जोड़ने कि गुंजाइश ही ना रहे...
दर्ष्टि बाहर नही भीतर देखती है ..वही सब कुछ- वही दुहराव वही द्रश्य ऊपर से ढलान की और जहाँ धूप के साथ बारिश भी मौजूद होती है ..वो द्रश्य-समय थोडा हतप्रभ करता है ,चिडियांये बेखौफ पंख फड फडआती हुई नहाती हैं ,ना जान सको ऐसी खुशी में मौसम में बदलाव की महक महसूस होती है...कपास के कच्चे पीले फूलों से निकली अनन्य स्निग्ध रूई के गोलों को हवाओं में गूंथना और एक गोला बनाकर नील आकाश के माथे पर पोंछ देना ..मानो कोई स्लेट साफ की हो ,उसे तसल्ली मिलती,आकाश की नमी उसकी अँगुलियों को थाम लेती ,पेडों की नुकीली लम्बी टहनियों की बारीक पत्तियों की हरियल प्रतिध्वनियाँ वहां होती रहती...है जिन्हें सुना तो जा सकता था लेकिन रोका नही,सूने- चौडे आकाश में कोई कपाट नही था .कुछ रिस रहा था अन्दर ही अन्दर ...साथ ही भराव के संसाधन भी मौजूद थे वक्त न्युसप्रीन की तरह छिडकाव करता है ..सब कुछ ठीक हो जायेगा, लेकिन कब तक नही मालूम, निश्चित नही ....दुखों की वैतरणी में धक्का देकर गिराने वाला ही किनारे खडा रहकर प्रार्थना करता है ...ऐसा भी होता है ,उसे मुस्कराना चाहिए-या- नही आवाजें भीतर कुछ टटोलती है.उलाहना भी देती है ..हमने तो कहा था ? कब कहा ,तुम इश्वर नही ..यूँ माफ कर देना भी तो आसान नही ...था आवाजें स्थिति सापेक्ष हो मौन हो जाती है,नियति एक नही कई शब्द, कई अर्थ जुडाती है --भावों को ताड़ती है कुछ भारी भरकम सा दिल-दिमाग पर शायद कोई बादल या पत्थर ----उसके बाएँ हाथों में तीव्र असहनीय दर्द क्रेपबेंडेज, पेन किलर ..कोई फायदा नही वेलियम टेन एम् जी के बाद नींद बेअसर -दर्द बेशर्मी के हद से बाहर हो जाता है वो धीरे से कोहनी को मोड़कर आंखों पर रख आहिस्ता से लेटना चाहती है ..कमरे की हलकी रौशनी -भारी भरकम कत्थई परदों की दरारों से शाम के जाते चटक उजाले के साथ मिल जाती है ...अब इस रंग का कुछ नाम नही हो सकता एक ही वृत में उसे बुलाना ,उसे भुलाना,सब कुछ नाकाम हो जाता है .इतनी बैचेनी वो कमरे के भीतर मिश्रित रंग को अलग करना चाहती है..खिड़की से परदों को सरका देती ही ....शीशे में अपना चेहरा देखती है और देखते-देखते आईने वाला चेहरा सजीव चेहरे को सोख लेता है जो चेहरा नही मन की बात जानता है कोई पीठ थपथपा कर आश्वस्त करता है ...सांवली ही तो हो तुम्हारे जैसा मन भी भी किसी को मिलता है ..सच मन ना भये दस बीस ..अब ये सच भी आईने के पास है ..शाम गहराने से पहले आधा घंटा टहल कर लौटना है,वो खूबसूरत धाकाई जामदानी के पल्लू को कमर के गिर्द लपेटती गर्दन तक ले आती है .कंधे से थोडा ऊपर तक दायीं तरफ नन्हा तिल ..पहले तो नही था उसे आश्चर्य होता है ..इसकी उपस्थिति आत्मा की गंध पहचानती है जैसे उस समय पर गेरू पुते स्वास्तिक सी इकछाओं का आलोप हो जाना किसी के बिछुड़ने पर किया जाने वाला सवाल -लेकिन ना कोई सवाल था ना कोई जवाब मिला प्रेम सौन्दर्य और आस्था के चरम के साथ जिए सच को अस्वीकार कर जीना क्या इतना आसान है...फिर भी एक निर्गुणी भाव अनायास पनप उठता है ...उसके लिय मन में एक करूणा उपजती है...कोई दोषी हो तो माफ किया जाय ...निशब्द भीड़ को ठेलते ...पहाड़ से ऊँचे ,दरख्तों से हरे,शाम से गहरे ,आकाश से नीले, धरती से असीम वक्त को चलते हुए देखती हूँ ..सिर्फ उसकी तरफ जाते हुए ..जहाँ आकर्षण -विकर्षण वासना- कामना बे मायने हें
जज्ब कर लिए हें मैंने अपने भीतर,अपने आंसू और मुझे मालूम नही ,मैं तेरा हूँ रेतीले विस्तार में और मुझे मालूम नही ,तुम्हे भुलाने की कोशिश में इन दिनों,में लगभग भूल ही गया हूँ तुमको ,और मुझे मालूम नही ....स्व.हरीन्द्र दवे की ये कविता ...अपनी डायरी से