सोमवार, 4 मई 2015

मन को एक मथ देने वाली उदासी टोहती है,और मुकम्मिल ब्यान दर्ज करती जाती है एक दो तीन एक लम्बी फेहरिस्त फिर सोचना की उसे भरोसा ही नहीं तो कोई क्या करे ? आपका ईमान ही आपका प्रहरी हो सकता है, यू सोच लो कोई माने या ना माने --बेहद कठिन हो जाता है,तुझसे मिलना फिर खोना ,पसीजना ---देर तक फिर सिसकना --वो ठौर पीछे दूर तक छूट जाता है--उदास उदास --लेकिन सब कुछ जल्दी ही धुल पुछ जाता है और फिर नेह की नीड बुनने में व्यस्त ,हल्दी पुते दिनों में तुम्हारी हल्दी हंसी, रेडियो में बजते संगीत से ताल मिलाती है ---दिनभर के बाद शाम देर से आती है और जल्दी लौट जाती है एक अपूर्व निजता मन को कस कर घेरती है उस डूबती दोपहर सी ,उस शाम देर तक देह का पोर पोर बजता रहा था एक हरियल पल --भी एक पल को उदास हो मुस्कुरा उठता है --फिर ऐसा भी होता ,जहाँ मन डूबता ,वहीँ किनारे हरी पत्ती के रंग में ,हर सिंगर के फूलों से गिरती खुश्बू से मन भर जाता तुम हो लगता है, कहीं आस -पास --वो तारीखें और वो भी जिसमें ऐसा कुछ नहीं हुआ वो तारीखें मुकम्मिल है अब भी , थी कम ज्यादा उन तारीखों में सोचे गए कई दिन रात गायब थे ---यूं हिसाबी -किताबी होना आपकी फितरत ना हो तो ,कहते हुए शर्मंदगी हो सकती है लेकिन वक़्त की फितरत अबूझ है यू पलटना और गिनना पल पल कभी मजबूरी हो जाती है और एक अजब करुणा में आद्र हो जाना ,अपने को स्मृतियों से गुणित कर लचल बना लेना तुम्हारी खातिर अच्छा ही लगता जाता है --पानी से गीलापन आग से ऊष्मा मिटटी से आकार लेता सौंधापन मेरे भीतर यही तो हो तुम बस तुम, सुनो ना सुनो में मिलूंगी इसी धरती और आकाश के भीतर कपिल धारा में नर्मदा के सबसे पहले सबसे ऊँचे जल प्रपात के पास अखंड कौमार्य लिए जहाँ नर्मदा, कुण्ड से निकल केवल सात किलोमीटर आगे तक ही तो चलती है,वहीँ जहँ धुप छनकर पानी में चक्राति हुई पैरों की बिछिया बन जाती है शाल वृक्ष से लिपटी हथेलियाँ में मेहँदी घुलती जाती है , पत्तों गुंथी हुई पगडण्डी घुमावदार सड़क के पार जहाँ सूखे शाल पत्र से पटा समतल मैदान है वहीँ, छल -छल पानी गूँज है, चार पग फेरों के बाद -तीन जन्मों के साथ उस गोलाकार सड़क पर जिसे मैंने सुना ही सुना है, का पूरा फेरा लूंगी ,हथेलियाँ मेहँदी रंग,और पायल की रुनझुन में आत्मा की सुवास से भर ,तुम्हारे पीले उत्तरीय वस्त्र के कोने से लिपटे बंधे मन से ,परकम्मपावासी का दृष्टी- आशीर्वाद लेते, में मिलूंगी वहीँ- किसी जनम में, दिन डूबने से पहले हल्दी काया में, केया रंग चूड़ियों भरे हाथ -पीले जरी के पाट वाली --लाल साड़ी में ---सूरज की बिंदी माथे लिए सकुचाई आँखों से ---तुम मिलोगे ना --

मन को एक मथ  देने वाली उदासी टोहती  है,और मुकम्मिल ब्यान दर्ज करती जाती है एक दो तीन एक लम्बी फेहरिस्त फिर सोचना की उसे भरोसा ही नहीं तो  कोई क्या करे ? आपका ईमान ही आपका प्रहरी हो सकता है, यू सोच लो कोई माने या ना माने  --बेहद कठिन हो जाता है,तुझसे मिलना फिर खोना  ,पसीजना ---देर तक फिर सिसकना --वो  ठौर पीछे दूर तक छूट जाता है--उदास उदास  --लेकिन सब कुछ जल्दी ही धुल पुछ  जाता है  और फिर नेह की नीड बुनने में व्यस्त 
,हल्दी पुते दिनों में तुम्हारी हल्दी हंसी, रेडियो में बजते संगीत से ताल मिलाती  है ---दिनभर के बाद शाम देर से आती है और  जल्दी लौट जाती है एक अपूर्व निजता मन को कस  कर घेरती है उस डूबती दोपहर सी ,उस शाम देर तक देह का पोर पोर बजता रहा था  एक हरियल पल --भी एक  पल को उदास हो मुस्कुरा उठता है --फिर ऐसा भी होता ,जहाँ मन डूबता ,वहीँ किनारे हरी पत्ती  के रंग में ,हर सिंगर के फूलों से गिरती खुश्बू से मन भर जाता तुम हो लगता है, कहीं आस -पास  --वो तारीखें और वो भी जिसमें ऐसा कुछ नहीं हुआ वो तारीखें मुकम्मिल है अब भी , थी कम ज्यादा उन तारीखों में सोचे गए कई दिन रात गायब थे ---यूं हिसाबी -किताबी होना आपकी फितरत ना हो तो ,कहते हुए शर्मंदगी हो सकती है लेकिन वक़्त की फितरत अबूझ है यू  पलटना और गिनना पल पल कभी मजबूरी हो जाती है और एक अजब करुणा में आद्र  हो जाना ,अपने को स्मृतियों से गुणित  कर लचल बना  लेना तुम्हारी खातिर अच्छा ही लगता जाता है --पानी से गीलापन आग से ऊष्मा मिटटी से आकार  लेता सौंधापन मेरे भीतर यही तो हो तुम बस तुम, सुनो ना सुनो में मिलूंगी इसी धरती और आकाश के भीतर कपिल धारा में नर्मदा के सबसे पहले सबसे ऊँचे जल प्रपात के पास अखंड कौमार्य लिए जहाँ नर्मदा, कुण्ड से निकल केवल सात किलोमीटर आगे तक ही तो चलती है,वहीँ जहँ धुप छनकर पानी में चक्राति हुई पैरों की बिछिया बन जाती है  शाल वृक्ष से लिपटी हथेलियाँ में मेहँदी घुलती जाती है , पत्तों गुंथी हुई पगडण्डी घुमावदार सड़क के पार जहाँ सूखे शाल पत्र  से पटा  समतल मैदान है वहीँ, छल -छल पानी गूँज है, चार पग फेरों के बाद -तीन जन्मों के साथ उस गोलाकार सड़क पर  जिसे मैंने सुना ही सुना है, का पूरा फेरा लूंगी ,हथेलियाँ मेहँदी रंग,और पायल की रुनझुन में आत्मा की सुवास से भर ,तुम्हारे पीले उत्तरीय वस्त्र के कोने से लिपटे बंधे मन से ,परकम्मपावासी का  दृष्टी- आशीर्वाद लेते,  में मिलूंगी वहीँ- किसी जनम में, दिन डूबने से पहले हल्दी काया में, केया रंग चूड़ियों भरे हाथ  -पीले जरी के पाट वाली --लाल साड़ी में ---सूरज की बिंदी माथे लिए सकुचाई आँखों से ---तुम मिलोगे ना --
अगर शरर है तो भड़के-जो फूल है तो खिले 
तरह तरह की तलब,  तेरे रंगे  लब  से    है  
सहर की बात --उम्मीदें -सहर की बात सुनो [फ़ैज़] 

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