सोमवार, 17 मई 2010

जलती-बुझती रोशनियों का एकालाप... एक माँ के दिल से... //-



ये एक बात बचपन से सुनती आई हूँ, मेरी नानी कहा करती थी, फिर माँ और जब में खुद एक 18 साल की बेटी की माँ हूँ तो अनायास मेरे मुँह से भी कभी-कभार ये निकल ही जाता है - "तुम (ये) लड़की क्या निहाल करेगी..!!"... लड़कियों से माँ को ही सबसे अधिक अपेक्षा होती है, वो सोचती हैं लड़कियां खाना बनाये दूसरे इतर काम भी करें, यदि छोटे भाई-बहन हो तो उनकी देखभाल और साथ ही उनकी दूसरी ज़रूरतें भी पूरी करें, और यदि लड़की थोड़ी बड़ी हो तो पिता-भाई के हुक्म पर भी दौड़ी-दौड़ी फिरे... मेरी माँ और नानी दोनों एक ही सुर में कहती थी - "एक औरत को एक पल भी होश खोये बगैर जीना चाहिए... चाहे वो सो रही हो, हर पल चौकन्ना और चौकस उसे होना ही चाहिए..."... और भी न जाने किस-किस तरह की हिदायतें... ये पहनो, वो खाओ, ऐसे नहीं वैसे, वो नहीं ये, यूँ नहीं इस तरह... और ऐसी कई बातें जो प्रसंगों की तरह जीवन में जुडती गयी, और जो आज भी याद हैं... कुछ बातें सुनते थे, कभी बगावत भी करते थे - ये बात अलग थी की हमारी बगावतों का वहां कोई असर नहीं होता था! परिवार में उनके हुकूमतों के साथ ही उनके छोटे-बड़े संघर्षों की हिस्सेदार अनायास बेटियां भी होती जाती हैं. नानी अनपढ़ थी किन्तु दुनिया-दारी के पाठ में अव्वल और पारंगत... माँ उस ज़माने की graduate , मेरी नानी 12 घंटे रसोई में खपती थी, माँ आठ घंटे - जिसमे उनके पूजा-पाठ और नोवेल्स पढना भी शामिल था और में अपने किचिन को बमुश्किल सुबह-शाम मिलाकर चार घंटे भी नहीं दे पाती हूँ, अब अपनी बेटी से क्या उम्मीद रखूं? एक हद तक उसकी नूडल्स, बर्गर, पिज्जा की दुनिया है, जिसमे कंप्यूटर, चैटिंग, कॉमिक्स, नोवेल, म्यूजिक (इंडियन / वेस्टर्न दोनों), दोस्त, पढाई भी शामिल है... यह सही है वो रोजाना काम में हाथ नई बंटा पाती लेकिन आकस्मिकता में पूरी तौर पर किचिन में साथ होती है... अक्सर मेरे पति भी कहते है - "तुमने इसे कुछ नहीं सिखाया!". हमारे दूसरे परिवारों में माँ के साथ फुल-टाइम काम करने वाली लड़कियों के उदाहरण और ताने भी सुनने पड़ते हैं... "वो देखो , इतनी पढाई कर रही है, तुम्हारी लाडली सो रही है!".. अब में उनसे क्या कहूँ? एक लड़की की लाखों बेचैनियाँ हो सकती हैं... उसे खुद अपनी तरह से बड़ा होना और इस दुनिया में अपने कायदे करीने से जीना भी तो ज़रूरी है. मन ही मन कहती हूँ, "सुनो! कई चीज़ें है जो लड़कियों के जीवन में बदलनी है.", लेकिन इस बदलाव में कई ताकतें रोड़ा बन जाती हैं... सबसे पहले घर से ही इसकी शुरुआत होती है और उसे हम अनदेखा किये जाते हैं.
अभी जैसे कल की ही तो बात है, छोटी सी थी.. गोद में लिए न जाने कितने काम निपटा लेती थी मैं, कई बार ज़िन्दगी तेजी से बदल जाती है, इतनी कि अजीब किस्म का डर लगता है और हम भौंचक रह जाते है - एक अपराधबोध में घिर जाते हैं... क्या वाकई एक अच्छी माँ बनना मुश्किल है? अपने आप से प्रश्न होता है... अपने बचपन की ओर पलटती हूँ तो कोई बंधन नहीं था बस हिदायतें मिलती थी, ज़बरदस्ती नहीं होती थी... लेकिन नानी, माँ,पिता, बड़े भाई की निगरानी में उनकी मर्जी से सबकुछ सटीक हो जाता था, लेकिन अब हम अपनी कई इच्छाओं की तरह किसी दूसरी इच्छा को भी असंभव मान लेते हैं और इसी असंभव में खो या डूब जाने तक अपने सच को नैस्तानाबूत करके ही दम लेते हैं... और ये सच है अब भी हमारे परिवारों में, समाज में जिस लड़की/स्त्री को रोटी-खाना बनाना ना आता हो वो सुघड़ नहीं मानी जाती. अक्सर जब मेरी बेटी की तुलना परिवार वाले उसकी कज़िन बहनों से करते हैं, मुझे खुद यह सब ठीक नहीं लगता क्योंकि मेरी बेटी वक़्त ज़रूरत खाना तो बना ही लेती है लेकिन साथ ही वह कंप्यूटर संबंधी, बैंक, बाजार, बिल्स आदि कामो के भुगतान के साथ ही दुःख, बीमारी और दूसरे अन्य तकनिकी कामों में भी मेरी मदद कर पाती है... इस मायनो में वो अन्य लड़कियों से तो प्लस हुई,लेकिन उसे मान्यता नहीं मिलती... हमारे यहाँ औसत भारतीय पढ़े -लिखे परिवारों में भी खाना बनाना ही सब कुछ माना जाता है...
स्त्रियों के जीवन में कुछ काम नैसर्गिक होते हैं और मुझे लगता है उन्हें सीखने में कोई तुक नहीं. मेरी माँ ने हमेशा पढने पर जोर दिया, बुनाई-कढाई सीखने के विषय में उनका कहना था - "ये सब यूँ ही पैसों में मिल जाता है.. पर समय नहीं मिलेगा, इसीलिए पढो!".. सच ही है अशिक्षा ही स्त्री के दुखों का कारण है, स्त्री को यदि स्टैंड करना होगा तो उसे पढना ही होगा.. थ्योरी / प्रक्टिकल/ टेक्नीकल सभी कुछ... अपनी बेहतरी के लिए स्त्री को एक बार चीन की तरफ देखना होगा, वहां स्त्री व्यक्ति रूप में जीवित है और अपने स्त्री होने की सीमा तक स्वतंत्र भी है.
शक्ति, सत्ता और वैभव की इस दुनिया में कोई लड़की बाद में स्त्री बनी एक औरत इस दुनिया द्वारा पहले से रूढ़ बना दिए गए निष्कर्षों में ही आखिर क्यूँ जिये -मरे? ताकि उसे खुद लगने लगे की संतुलन बिगड़ा की सब कुछ बिखरा... परम्पराओं से जड़े कट्टर लोग ही नहीं अपितु पढ़ा-लिखा प्रबुद्ध वर्ग भी, आज भी लड़कियों को स्केल, तौल या मीटर से नापते हैं... जैसे उनकी ज़िन्दगी जीने के पैमाने होते हैं, और आप पर भी आसानी से ऊँगली उठा देते हैं, आखिर क्या सिखाया अपने अपनी बेटी को. लेकिन कोई नहीं समझता एक लड़की की आकांशा स्वप्न और उसके भय को स्वीकार करना भी तो ज़रूरी है... कौन जानेगा माँ के पुराने दिल में,बेटी के दिल की ताज़ी धड़कन... क्या ज़रूरी है वो इस समाज-परिवार की मूक प्रतिछाया बनी रहे, बिना कोई प्रतिकार के, पर- दुःखकातरता को सहेजे रहे, एक निशब्द समर्पण जीवन जिये.
मुझे कभी-कभी तेजी से हिचकी आने लगती है... कहते हैं कोई याद करता है तो ऐसा होता है, सात घूँट पानी पी लेने पर हिचकियाँ आप ही बंद हो जाती है, तो कौन याद करता है? किसने याद किया होगा? पिता, भाई, माँ, बहन, छूटा हुआ कोई, कोई दोस्त, कोई परमप्रिय... जाने कौन? एक बार घर-बार छूटा तो बस छूटा, लड़कियों का... बस ऐसा ही झूठा सच जीना होता है, फिर ऐसे में क्या ज़रूरी है ताउम्र, अपनी बेटी के लिए माँ से बेहतर कौन जान सकता है..? अपनी नियति उसे खुद बदलना और निर्धारित करना सिखाना, दुःख के निराकरण के लिए सिर्फ आंसू बहाने की बजाये किसी आपात स्थिति में अपने हिसाब से द्रढ़-हो नियम बनाना, बेशक कोई नियम गड़-बड़ भी हो जाये तो हर्ज क्या है? इतनी बड़ी ज़िन्दगी में दस-बारह फैसले गलत भी हो जाएँ तो आगे आने वाली बड़ी मुश्किलों में वो सहायक ही होगी, एक अच्छे के निमित. मुझे लगता है मेरी बेटी ही नहीं हर लड़की परिवेश की गहरायी में ईमानदार बने रहने मात्र से ही सब कुछ सीख सकती है साथ ही कोरी भावुकता की बजाय प्रेम के घनत्व का महत्व भी समझ सके, बस इसके लिए थोड़ी सी कोशिश करनी ज़रूरी है, अच्छे और बुरे की पहचान करना सीखना भी... आज हर दिन बदलती और नई आयातीत तकनीक और उपभोगतावाद के खतरों और हादसों में जीने-मरने की आदत डालना भी ज़रूरी है, और अपने सामाजिक सरोकारों को भी सुनियोजित करना ज़रूरी है.
मेरी माँ जो व्यंजन बनती थी उनसे बेहतर चाहे मैं नहीं बना पाती हूँ लेकिन उन जैसा मैं भी बना लेती हूँ, घर की साज-संवार, देख-रेख... एक जरुरत और जिम्मेदारी के साथ निभाती हूँ... मेरी बेटी मेरे से बेहतर चायनीज/थाई फ़ूड बना लेती है, तो इसमें कमाल क्या है... मैंने अपनी माँ से सीखा और आज मैं अपनी बेटी से थोड़ी बहुत नहीं, ढेर सी चीज़ें सीखती हूँ, वो कहती है - "सब कुछ आसान है 'माँ'... नेट खोलो, रेसेपी नोट करो, सब कुछ तैयार फटा-फट...", यही सही है, जब चित्त हो; समय हो; कोई मुश्किल ना हो, तभी कुछ बने तो स्वादिष्ट बनता है, और फिर दो माह बाद वो इंजीनियरिंग के लिए अमेरिका चली जायेगी.. जीवन की एक संतुष्ट हंसी और बेफिक्री की दुनिया से दूर तो उसके लिए क्या ये ज़रूरी नहीं है की जो उसे पसंद नहीं- उसका वो मुखर प्रतिरोध कर सके.. आज वो अपने लिए जीना सीखेगी तभी तो कल दूसरों के लिए जीना सीख पायेगी...

15 टिप्‍पणियां:

दिलीप ने कहा…

bahut sahi baat kahi...zindagi jeene ke do tareeke hai...chupchaap baitho kuch na karo..doosra kuch to karo sahi ya galat ...galtiyan sikhayengi hi....

kshama ने कहा…

Bahut achha lekhan andaaz hai...chand baaten to laga mere shabd le liye..jaise,ki, patika dosharopan....beteeko kuchh nahi sikhaya!
Ek kaliko zamana zabardasti phool bana dena chahta hai...

Unknown ने कहा…

बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |

बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर

सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |

बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !

आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब

केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।

फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।

विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से

neera ने कहा…

विधुजी! मांओं और बेटीयों की मनोदशा, दुविधाओं और अपेक्षाओं को कैसे उकेरा है लगता है आप मेरे घर की बात कर रही हैं ...

रंजू भाटिया ने कहा…

माँ बेटी का यह रिश्ता जैसे आपने हर माँ बेटी के रिश्ते की दिल की बात लिख दी हो ..

प्रभात रंजन ने कहा…

ताना बाना पढ़ा और दुखी हूं कि अब तक क्यों नहीं पढ़ा...आगे से ऐसी गलत्ती नहीं होगी। अपने आप को इस लायक नहीं पाता कि आपकी प्रशंसा करुं ।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

पढ़ते पढ़ते लगा ... घर की ही दास्तान पढ़ रहा हूँ ... रिश्तों को बहुत अच्छे से पकड़ा है आपने ... लाजवाब प्रस्तुति है ...

राजेश उत्‍साही ने कहा…

विधु जी, मां बेटी और मां के बीच का यह एकालाप अंदर तक छू गया। आपने हर मध्‍यमवर्गीय परिवार के अंदर चलते घमासान को सामने रख दिया। बिटिया क्‍या सचमुच इतनी बड़ी हो गई कि पढ़ने के लिए अमरीका जा रही है। अभी तो मैं उसे साइकिल पर एकलव्‍य में आते-जाते देखता था। बहुत बहुत शुभकामनाएं दें उसे।

R.Venukumar ने कहा…

यही सही है, जब चित्त हो; समय हो; कोई मुश्किल ना हो, तभी कुछ बने तो स्वादिष्ट बनता है,
आज वो अपने लिए जीना सीखेगी तभी तो कल दूसरों के लिए जीना सीख पायेगी...


विधु जी,
यह दो बातें सारी बातों पर भारी है। क्योंकि इनमें ज़िदगी का अनुभवजनित फलसफ़ा छुपा हुआ है।
ब्लाग पर आने और हौसला बढ़ाने के लिए शुक्रिया

बेनामी ने कहा…

"इसीलिए पढो!.. सच ही है अशिक्षा ही स्त्री के दुखों का कारण है, स्त्री को यदि स्टैंड करना होगा तो उसे पढना ही होगा.. थ्योरी / प्रक्टिकल/ टेक्नीकल सभी कुछ...आज वो अपने लिए जीना सीखेगी तभी तो कल दूसरों के लिए जीना सीख पायेगी..."
इसी में हम सबका भला है - धन्यवाद्

माधव( Madhav) ने कहा…

nice

डॉ .अनुराग ने कहा…

कहते है बेटी मां की छाया होती है .... उसकी इच्छायो का पौधा ...उस पौधे को समय पर छाया ओर धूप की नियमित डोज़ कोई सुघड़ मां ही दे सकती है ......आज अखबार में पी एम् टी में सलेक्ट एक बेटी का इंटर व्यू पढ़ रहा था....कहती है .....मां रात भर मेरे साथ जागती थी .....मां के एक्जाम कभी ख़त्म नहीं होते .....हर बच्चे के साथ चलते है ..पहले भी आपकी एक पोस्ट पढ़ी थी .बेटी के बचपन के किसी कार्ड को लेकर......मेरी मां अक्सर गुस्से में कहती थी .....बेटी से घर बनता है ..तुम लडको का क्या करूँ....एक नन्ही पारी का मेरा भी सपना है .....जाने पूरा होगा के नहीं ........

विधुल्लता ने कहा…

aap sabhi ko dher se dhanyvaad

SomeOne ने कहा…

बात तो आपकी भी ठीक है, लेकिन औरत को एक घर को जोड़ने वाली कड़ी समझा जाता है, इसीलिए सब अपनी बेटियों को चूल्हा चौकी और दुसरे कार्यों में पारंगत करते है .

वैसे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा है !

nikash ने कहा…

bahut samvedansheel vishay par likha hai aapne. apni maa. behno aur patni ka jeevan sangharsh dekhta hoon to aisi he bhavnayen mere man me bhi aati hain. meri behen bhi apni beti ke baare me apni chintayen aur kalpanayen share karti rehti hai. aapki beti ko,aur apko bhi hamare pariwar ki shubhkamnayen. aap bhi meri ma, behno, patni aur bhanji ke liye dua keejiyega.