उसी दुःख को हांसिल करना होता है,
लौटते -डूबते इस बारिश में ,
एक निर्वासित दिन उम्मीदों में सर उठाता है ,
इन दिनों - यकायक ...
दूर मैदानों में एकदम हरी घास सुकून देती है ,
जहाँ हवा जोरों से चलती है ,
अंधेरों में देखना उस तरफ ,गाढ़ी आतुरता से
उन दिनों में, बीते पलों की मौजूदगी में/स्पर्श में दर्ज ,
लेकिन इन दिनों, वक्त की हदों में नहीं मिल पायेंगे हम ,
लेकिन मिलेंगे जब ,पूछूंगी,
इस अश्मिभूत आत्मा में ,
एक साथ जीते हुए- जीते जी,बिसराए जाने और स्मृति के बीच ,
कितना बचेगा कुछ,कोई अपना ,
ऐसा क्या था आखिर जिसे अपना ना कह सके ,
जिसके लिए जिये-मरे अनगिन बार ,
मौसम रखेंगें क्या हिसाब?
अकस्मात लौटते से, अनकहे-अनमने शब्दों की सतह पर ,
निरंतर आवाजाही से ,
एक गहरी लकीर का खिंच जाना
लरजते-बीतते मौसमों के साथ
अव्यक्त दुखों संग आद्र हो जाना,
रौशनी में झिलमिलाते -उन दिनों में ..अपने लिए
आखिर कितना बचेंगे हम,
हड़बड़ी और इस नाउम्मीद सी दुनिया में ,
अपनी आलोकित इक्षाओं से ऊपर
कब तक
इन दिनों ये कहना मुश्किल है
"खुला था उसके लिए हर द्वार... रौशनी भरे आसमान सा... पर वह उस रौशनी से चुन रहा था अपनी चारदीवारी... "
(-अमिता शर्मा)
13 टिप्पणियां:
अस्तित्व को तो बचाना ही होगा।
कविता ऐसे जैसे कोई स्वप्न हो..
हड़बड़ी और इस नाउम्मीद सी दुनिया में कब तक बचेंगे हम.सवाल मस्तिष्क की गुफा से टकरा टकरा लौट आता है.
किसी गहरे दुःख से उबरते ,
उसी दुःख को हांसिल करना होता है,
लौटते -डूबते इस बारिश में ,
एक निर्वासित दिन उम्मीदों में सर उठाता है ,
इन दिनों - यकायक ...
दूर मैदानों में एकदम हरी घास सुकून देती है ,
जहाँ हवा जोरों से चलती है ,
Ye panktiyan hee gahraa sukoon de gayeen!
कविता मन से लेकर मस्तिष्क में एक आवेग भर देती है....वैसे भी आपकी रचनाओं को पढना एक अलग ही अनुभूति देती है
हर पंक्ति अपने अंदाज़ में अपनी बात कहती है ..आपका लिखा तो वैसे ही बहुत गहराई तक ले जाता है ..
डूबता तैरता .....किसी किनारे बमुश्किल ठहरा हूँ....शब्दों की इस नदी में जिसे जिंदगी के समुन्दर से जा मिलना है ......
you are an amazing writer...
जब तक सांस है तब तक जेवन है ... ये सच है की कोई उम्मीद नही है दुनिया से पर फिर भी आस तो है .....
bhn ji aapki rchnaa pdhi bhut khub abhivykti he . akhtar khan akela kota rajsthan
आपकी रचनाएँ बहुत अच्छी लगीं ..
बहुत गहन अर्थ लिये हुए है यह कविता ।
निर्वासित दिन की डूबती-लौटती उम्मीदें..
कितना कुछ है इस कविता सी कविता मे जिसे शब्दों की हदों मे बाँध पाना बड़ा मुश्किल सा है..अनबोले मौसम सा...सो हमें छू भर के खिड़की से बाहर निकल जाता है...
"जिसके लिए जिये-मरे अनगिन बार .."
यूँ नरमी से चीरते गए आपके लफ्ज़ . .
अति सुन्दर
वाह
1. ब्लाग4वार्ता :83 लिंक्स
2. मिसफ़िट पर बेडरूम
लिंक न खुलें तो सूचना पर अंकित ब्लाग के नाम पर क्लिक कीजिये
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