शब्द घुप्प अंधेरों में चले गये थे ,मां के अर्थों में शब्दों को ढूढना कितना मुश्किल ...मां थी जब सूरज यूँ ही नियत स्थान से निकलता था लेकिन डूबता मां की आँखों में ही था ..कितने ही काम, ताजे-बासे ,कितनी आशाएं ,कितनी चिंताएं एक साथ संजोई दिखलाई पड़ती थी उनकी आँखों में, मां थी तो खुशहाल थी जिन्दगी और बेफिक्र भी और अब एक जमा हुआ सन्नाटा अन्दर- भीतर गहरे तक... मां से ही थी हमारी इच्छाएं -अकां छायें ,और बिन तुम्हारे इतने शुद्र -कातार ये मन -तन ..क्या कहूं किस्से कहूँ .सुनो मां मुझे यकीन है तुम मुझे सुन रही होगी जैसे अपनी म्रत्यु से ठीक पहले सुना था तुमने ..विश्नुसह्स्त्र नाम,गणपति अथर्व शीर्ष पाठ ,बंद आँखों से और जर्जर काया में तकलीफों के साथ आती जाती साँसों के बीच ...वो एक साफ और उजली रात थी रात का अंतिम प्रहर जब मां ने साथ छोड़ दिया ..कभी ना भूलने वाले पल ...निरंतर नेह की नीड़ बुनती स्मृतियों में एकदम ताजा कभी न धुंधली पड़ने वाली मां ..मंत्रोचार सी पवित्र ,मेरी मां मुझे तुम कभी नहीं भूलती हर दिन तो याद करती हूँ हर पल तो परछाई सी साथ चलती हो धमनियों में गूंजती हो ,तुम्हारी आवाज और बेटा के साथ नाम का उच्चारण आज भी मन भर देता है एक तपी हुई स्नेहिल गंभीरता तुम्हारे चेहरे पर हमेशा बनी रहती,हम सभी की छोटी उपलब्धियों पर हमें विशिष्ट बना देने वाली मां ,हमें सर माथे पर रखने वाली तुम्हे कितना याद करूँ कितना भूलूँ ..मां मां ..हमें अपने घर-परिवार के स्वार्थ में गुम होते कभी सच कभी झूट बोलते देखती सब कुछ जान कर भी अजान बनी रहती तुम हमारी ख़ुशी में खुश और दुःख में दुखी होजाती तुम ----तुम्हारे अनमोल शब्द कुछ सीखें -सौगातें तुम्हारा दिया हुआ सूर्य मन्त्र आज भी जपती हूँ -रो पड़ती हूँ अचानक जब तुम उमड़ती हो अंतस में.. तो सब कहतें हें पागल है मां तुम्हारी याद आती है तो बस आती है तुम्हारी बातें पेड़ नहीं काटना ,बालों को छोटा नहीं रखना ,गुरुवार को हल्दी का उबटन करना केले के पेड़ की पूजा करना ,तुलसी में शाम पड़े दिया जलाना ,दुःख-सुख में इश्वर को सहभागी बनाना ,..भरसक कोशिश करती हूँ उन्हें निभाना ,मां तुम्हारे कई रंग यादों के जल में डूबते-उतराते रहतें हें ..तुम्हारे दुखों की गठरी तुम्हारे सुखों की गठरी से बड़ी थी माफ करना हमें दुख तो बाँट नहीं पाए तुम्हारे हिस्से का सुख भी नहीं दे पाये ..शर्मिन्दा हें ...तुम चली गई .बरस दिन बीते -पतझर वसंत भी आये ..सारे मौसमों में बीतती हो तुम ..जब साडियों के ढेर उलटती-पलटती हूँ तुम्हारी दी हुई-पहनी हुई साडियों में तुम्हारी देह गंध को सजीव पाती हूँ अपनी पीठ -माथे पर तुम्हारा ताजा स्पर्श महसूस कर सकती हूँ आज भी...
वो द्रश्य स्तब्ध कर देने वाला था तुम्हारी मृत देह सामने थी आवाज मानो छिल गई थी एक दिन पहले आर्शीवाद में उठा हाथ ...अध् मुंदी आँखों से विस्मृति के अथाह में तुम डूब-उतरा रही थी में महसूस कर सकती थी तुम्हारे स्मृति के बवंडरों को शायद हमारे बचपन ,अपनी खुशियों -दुखों और बिछोह को--फिर तुम्हे होश नहीं आया ,संसार की सर्व श्रेष्ठ मां मेरी तुम...चीजों के प्रति, इस दुनिया के प्रति कितनी निर्लिप्त...मैंने कभी तुम्हे अपने लिए बड़े चाव से कभी कुछ ना खरीदते देखा ना पहनते ...कैसे काबू पाती थी ,,,नहीं सीख पाई ..तुम्हारे हाथों की बनी मैथी-भाजी ,आम की लौंजी ,नीबू लहसन का अचार फिर कभी नहीं मिल पाया तुम थी तो हमारी जिन्दगी सौंधी सी महकती थी ...राह तक-तक बेटियों की बात जोहते तुम्हारे उदास जर्जर दिन बीतते रहे कितना सहा-कितना जिया तुमने ये हिसाब करने बैठती हूँ तो अपने को धिक्कारती हूँ ..जिन्दगी अब भी जा रही है ...छोटे से बड़े सुख दुःख में तुम याद आती हो तुम्हारे सारे आर्शीवाद फलीभूत हुए ..लेकिन तुम्हारे निष्टूर देवी-देवता जिनके लिए उम्र का एक हिस्सा गुजार दिया तुमने दूसरा हमारी खा.तिर,... इश्वर पर तुम्हारी अटूट आस्था ,अगाथ श्रधा .इस दुनिया में अपनों परायों से झेले गए मान-अपमान आवहेलनाएँ -चाहूँ तो भी नहीं भूल पाउंगी..बाद में दूसरी चीजों के साथ तुम्हारे पूजा घर के भगवानों का बंटवारा हुआ कुछ सस्कृत के श्लोक के साथ तुम्हारे उपन्यास और किताबें मेरे हिस्से आ गई ..उनमे वो किताबें और अखबारों की कटिंग भी थी जिनमे मेरी रचनाएं प्रकाशित हुई थी ..अपनी माँ जैसी कद-काठी -सुघड़ता नए और पुराने का अद्भूत मिश्रण मैंने आज तक किसी दूसरी स्त्री में नहीं देखा ..मान होता है अपने पर एक सादगी भरा जीवन जीकर अपनों से ज्यादा परायों के लिए हर तरह से तत्पर रहने वाली माँ तुम अब कहाँ मिलोगी , एक प्रसंग ज्यों का त्यों बना हुआ है स्मृति में मेरी ... जब मेरी बेटी होने वाली थी शाम सात बजे से सुबह तक तुम लेबर रूम के बाहर खडी रही मुझे तुम्हारे डॉक्टर को बोले शब्द आज भी याद है ...आपरेशन नहीं होगा वो मेरी बेटी है ..थोडी तकलीफ तो होगी बाद में तुम मेरे पास ही सिरहाने थी पसीने भरे सर पर तुम्हारा चुम्बकीय सुख भरा हाथ -स्पर्श कभी नहीं भूल पाती हूँ , ऊसके बाद तुम्हारा द्रढ़ विशवास --बेटी हुई उसके पहले जनम दिन पर लिखी आर्शीवाद चिठ्ठी ,वैसी की वैसी रखी है सहेजी ..अनेकों शुभकामना वाली ..वो इसी वर्ष पढने अमेरिका चली जायेगी जैसा तुमने लिखा और कहा था ;हमें ले जाना नहीं भूलना ..तुम तो हमेशा हमारे साथ हो ..इस कोलाहल में ,इस भीड़ में इतने अपनों-अजनबियों में ..तुम अलोप हो फिर भी शेष हो मुझमे मेरी इस दुनियादारी में .माँ... माँ मुझे यकीन है तुम मुझे सुन रही होगी
अपनी माँ की पांचवी पुण्य स्मृति में [दो सितम्बर o5 ] सुनो माँ ,मुझे यकीन है तुम मुझे सुन रही होगी ये एक लम्बी कविता लिखना चाहती थी लेकिन कभी पूरी ही नहीं कर पाई ...
19 टिप्पणियां:
विधु जी..ब्लोग पर आ कर इतनी उत्साहजनक प्रतिक्रिया देने के लिये तहे-दिल से शुक्रिया..ब्लोगिंग मे अभी नया हूँ..आप जैसे वरिष्ठ और साहित्यसुधि ब्लोगर का स्नेह और टिप्पणियाँ बहुत हौसला बढाती हैँ..उम्मीद है आगे भी आपके सुझाव मिलते रहेंगे!..माँ की चौथी पुण्यतिथि पर उन्हे हर्दिक नमन् और ईश्वर से उनके लिये प्रार्थना..मर्मस्पर्शी पोस्ट के लिये बधाई!
विधु जी बलांग आप का लेख आप का, लेकनी भी आप की लेकिन आवाज मेरे दिल की है, लगता है भगवान ने आप के दुवारा मेरे दिल की आवाज आप से लिखवा दी.
बहुत सुंदर आप का धन्यवाद
"माँ के अर्थों में शब्दों को ढूँढ़ना कितना मुश्किल है..." पहली ही पंक्ति ने उस तीव्र संवेदना की पहचान करा दी जो पूरी प्रविष्टि में अभिव्यक्त हुई है । प्रविष्टि का धन्यवाद ।
बेहतरीन आलेख और लेखन!
माँ को आपने अपने भीतर से पाठकों की आत्मा पर उतारा है.. उसकी विराट छवि के आगे नतमस्तक हूँ ...
शब्दों ने उस एहसास को कहीं अन्दर तक पहुंचा दिया....हर शब्द, हर पंक्ति में माँ के होने और खोने का एहसास होता है
कहते है कुछ बेटिया माँ के बेहद करीब होती है इतनी की मां के जाने के बाद भी उसे अपने दुःख में सुख में उसी शिद्दत से शामिल करती है ...ओर एक उम्र के बाद वैसी ही हो जाती है ...यूँ भी हम कुछ अर्थो को तब समझते है जब वे मौजूद नहीं होते ...
एक बार फिर आपने अहसासों को लफ्ज़ दिए है
VIDHU JI .....
ANEKON BAAR AANKHE BHAR AAYEE APKI POST PADH KAR ...MERAA HAARDIK NAMAN HAI UNKO ..... ITNI SAJEEV POST LIKHNE K JO SAMBAL MILTA HAI VO BHI SHAAAYED MAA SE HI MILTA HAI ... POORI DUNIYA KI OORJA AUR SHAKTI IS EK AKSHAR MEIN SIMIT AATI HAI ....
IS MAARMIK POST KE LIYE .. MERAA PRANAAM HAI..
में तो आप सभी का धन्यवाद ही कर सकती हूँ ...बहुत कुछ एसा भी जो इस जिन्दगी में कहा ही नहीं जा सकेगा ....माँ के बिना एक समय के बाद जा कर ही हम कुछ अर्थों को जान पातें हें सही कहा है अनुराग जी ने ....और दुःख आदमी को मांजता है -परिष्कृत करता है -उसे रचनात्मक बनाता है .....यकीन मानियेगा लिखना मेरे लिए मुश्किल भरा काम ही है ....बस माँ पर एक ही बैठक में लिख डाला ....कुछ मन में था ..कुछ रह भी गया ....कभी कुछ कह सकने की स्थिति बनेगी तो कहूँगी
बहुत भावपूर्ण पोस्ट है...
तुम तो हमेशा हमारे साथ हो ..इस कोलाहल में ,इस भीड़ में इतने अपनों-अजनबियों में ..तुम अलोप हो फिर भी शेष हो मुझमे
सच मां तो मां ही होती हॆ,मर्मस्पर्शी
सारे ओर छोर सिमट आते
क्या कहें क्या छोडें
माँ पे लिखना सबसे मुश्किल
बहुत अच्छा लगता है की जब कोई संवेदनाओं की बारिश में भीगा इन्सान ब्लॉग की दुनिया में अपनी भावनाओं की बूंदों से सुधि लोगों को भी भिगोता है ......माँ को नमन ....
"ऐ अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया ,माँ ने आँखे खोल दी घर में उजाला हो गया "(मुनव्वर राना)
आपके ब्लॉग पर आ कर बहुत अच्छा लगा .... माँ के बारे में आपकी अभिव्यक्ति मन को छू गयी ...आपका लेखन आकर्षक है ,हमें भी कुछ सीखने को मिलेगा... आपकी शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद
विधु जी, बहुत ही प्यारा संस्मरण लगा। आप तो एक ही बैठक में लिख गईं, पर पता नहीं क्यों मुझे लगता है मां को याद करना बेहद मुश्किल काम है। भूलना उससे भी दुरूह। मां को किस तरह याद किया जाए? समझ में नहीं आता। तमाम तरफ नजर दौड़ा लेने के बाद याद आती है अपने भइया की बात कि मां तो बस मां होती है... कभी अवसर मिले तो मेरी मां से मिलें www.shailpriya.blogspot.com पर आकर
"माँ के अर्थों में शब्दों को ढूँढ़ना कितना मुश्किल है"
इन पंक्तियों ने सब कह दिया...
वाकई आप की लेखन-शैली कमाल की है......
मर्मस्पर्शी लेख के लिये बधाई!
sahi baat hai mai khud nokia ko hi pasand karta hoo lakin touch screen me abhi tak nokia ka koi phone bahut accha nahi hai lakin Oct. aur is saal ke aant tak aa rahe hai blog se jude rahjiye jankari mil jayegi
Prem ki parakaashthaa.
Think Scientific Act Scientific
मार्मिक प्रस्तुति।
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