शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

-एक पुरसुकून आसमान की तलाश ,मन खुश था अपने ही सवाल पर जो उसके जवाब की प्रति क्रिया से छूट गया था चलो अच्छा हुआ... एक कांट-छांट मन की सतह पर होती है ..//


लगातार बरसात की नीम ठंडक से चिढ होती है ,बहुत दिनों तक धूप ना निकले तो मन कुढ़ता है खैर बरसात को कभी ना कभी तो रुकना ही होता है बारिश ख़त्म भी होती है ,हलकी सी धूप के साथ मौसम में ठंडक की शुरुआत ,धूप वाली ठण्ड, मन को तसल्ली ...मिलती है इस सुकून के साथ की आगे के पांच..छ माह अच्छे गुजरेंगे --ना भी गुजरें तो भी ...अक्सर ही ऐसी बेमौसमी सोच निरर्थक ख्यालों के पुल पर इस पार से उस पार ,इधर से उधर आते जाते रहतें हें, किसी भी आकस्मिकता के लिए मन तैयार नहीं होता ..आशाएं पनपती है और घट भी सकती है ,एक धमक धमनी में होती है गर्म आंच से ज्यादा -अन्तश्चेतना में बार-बार कुछ घुमड़ता है स्मृति धुंधली नहीं होती,शब्दों के चेहरे धूसर होते जातें है ,सवाल सामने होतें हें ,कोई नई शुरुआत ...एक लिपिबद्ध दस्तावेज आँखों के आगे से गुजरता है ..वो थोडी देर के लिए गुडी-मुडी होजाती है ,संकुचित धूसर शब्दों के पीछे देर तक छिप जाना भी ना कोई देखेगा ना जानेगा ना समझेगा ..फिर कभी शब्दों के साथ डूबना भीतर बहुत भीतर अतल में ......वो वक़्त की परवाह करता है और वो वक़्त को जूती की नोक पर ---गर उसका साथ हो एक स्निग्ध सांत्वना मन को मिलती ...खिलाती है दरारों से झांकता है वक़्त का बदला हुआ चेहरा ..पुराना ...बदले हुए मिजाज में ,सुबह के धुले हुए बालों का एक गुच्छा दायें गाल पर फैल जाता है समय के अन्तराल में डूबा जाता और भीग कर बाहर लौटता सा मन..दस -नौ-सात -पांच-चार- तीन -...एक दस्तक ,उसके सवाल आसान नहीं और जवाब अलबत्ता बेसब्र से ....अक्सर शब्दों में इच्छाएं पंख फड फ्डाती है ..जवाब नहीं मिलता हमेशा एक निस्तब्धता और चौडा शून्य होता है वहां जिसका बहु उपयोग वक़्त जरूरत पर कर लेना बखूबी और दो-दो बातें एक साथ और या एक भी नहीं ,उसकी नजर एक खोजी शिरकत करती है ....किताबें ,चाय की ट्रे ,खाली कप ,कप पर हरे फूल ,उलझा सा मोबाइल चार्जर ,खिड़की के परदों से झांकता धूप का एक संतुष्ट टुकडा शीशे के परे नीम की पतली टहनियों पर थोडा कम-कम हिलती हुई हवा ,हवा से झुकते -टूटते डाल से बिछुड़ते कमजोर पीले पत्ते, उसे सतर्क होने का मौका मिल जाता है ...हाँ तो बात फिर से शुरू होना चाहती है ...बेफिक्र दिखने की चाहना -सहज होने की जद्दो -जहद ..अर्थ दीप्त होकर पसर जाती है , वहीँ आस-पास.. कुछ शब्द बमुश्किल जुड़ते हें ...अपनी तकलीफों को कम आंक कर उसकी आँखों में झाँक कर -थोडा नजदीक ----एक पुरसुकून आसमान की तलाश ,मन खुश था अपने ही सवाल पर जो उसके जवाब की प्रति क्रिया से छूट गया था चलो अच्छा हुआ... एक कांट-छांट मन की सतह पर होती है ..अपनों में कोई गैर तो निकला ..अगर होते सभी अपने तो ?..किसी पुराने गीत की पंक्तियाँ याद आ जाती है ..मन पाखी दूसरी दिशा में उड़ जाता है कोई हथेलियाँ थामता है ..तारों भरी दोपहरी उस अबूझ समय में बीत ही जाती है अँगुलियों में मुडी -फँसी हुई अंगुलियाँ अब तक ..डरती हो ,सवाल खुद से --एक भय उसे सताता है मामूली सी आहट पर चौंकते -सतर्कता में फैलते कानो में समुद्र की लहरों का शोर भर जाता है,दूर से आती बेगम अख्तर की आवाज़ में दादरा ...लहरों के साथ लौटती लय, विलग होती स्मृति .मरी हुई मछली की चमकीली आँखों से उसे टोहती है ...एक वितृष्ण रागात्मकता अन्दर फैलती है ...जल्दी-जल्दी एक आत्मीयता उसकी आँखों में भरने लगती है संकोच भी सुख भी ....थोडा समय स्थिर स्थिति में बीतता है ,थोडा और समय ...नीम के पत्ते तेजी से हवा में लहराते हुए नीचे जमीन पर गिरते हें उसकी सोच की कोई तार्किक परिणिति नहीं मिलती ...दूर से आती आवाज़ ,विपरीत दिशा में फैली दो बाहें ... ख़त्म होता हुआ तीसरा वाक्य..ये उदासी,.. बहुत से रेशमी धागे उलझे-उलझे -की वो वो दो कदम आगे फिर पीछे ---उसकी आँखों में नीली चमक है ..सीढियों में बहते पानी में नंगे पैर रख कर उतरने का सुख ..ऐसी आकस्मिकता के लिए वो तैयार नहीं होती ..बात फिर नए सिरेसे शुरू होना चाहती है बहुत से मुडे -तुडे शब्द सीधे होतें -खुलते हें ,वो शब्दों को निचोड़ती है ....गीले शब्दों से एक बूँद पानी नहीं ताजुब्ब ,है बहुत कुछ बीतता है ,संभावनाएं भी, प्रेम की वजहें भी, अनसुलझी इच्छाएं भी ,लरजती रौशनी भी, बहुत सी जागी रातें और सोये दिन भी .
और तुम उदास हो ,तुम्हारी उदासी में पढता हूँ में ...अंधेरे में जीने का सच विशिष्ट चेतना के कवि लाल्टू की कविता की पंक्तियाँ .

18 टिप्‍पणियां:

Aman Tripathi ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Aman Tripathi ने कहा…

बहुत दिनों बाद कुछ अच्छा सा पढने को मिला. बहुत अच्छा लिखतीं हैं आप...

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत ही सुंदर लेख,
आप का धन्यवाद

ओम आर्य ने कहा…

behad dhaara prawaah ......atisundar

रंजू भाटिया ने कहा…

उदासी में जीने का सच कितने लोग तलाश पाते हैं ."'.हमेशा एक कांट-छांट मन की सतह पर होती है ..अपनों में कोई गैर तो निकला ..अगर होते सभी अपने तो ?."".सही सच ..कई बार कुछ लिखने का दिल होता है पर लफ्ज़ नहीं मिलते आपकी इस पोस्ट से कई पंक्तियाँ संजो ली है मैंने शुक्रिया

के सी ने कहा…

मन पाखी दूसरी दिशा में उड़ जाता है कोई हथेलियाँ थामता है ..तारों भरी दोपहरी उस अबूझ समय में बीत ही जाती है
बहुत दिनों के बाद सुंदर पढ़ने को मिला है, कई कई बार पढ़ के मन को आनंद के प्याले भर के आनंद दिए हैं.

Unknown ने कहा…

emotions and words are being mixd up in a strong bond... very ggod lines
"विलग होती स्मृति .मरी हुई मछली की चमकीली आँखों से उसे टोहती है ..."

डॉ .अनुराग ने कहा…

सारे के सारे शब्द जैसे ठहर गए है ..अपने मायनों के साथ....कभी चल पड़ते है तो कानो में पड़ते मधुर संगीत की तरह .लगते है ....आज की सबसे बेमिसाल पोस्ट ....जिसे बुकमार्क करके रखने जैसा है....

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत दूर तक बहा कर लेकर गई आपकी बेहतरीन लेखनी. आनन्द आ गया ऐसा उम्दा आलेख पढ़कर. बहुत बधाई.


दुर्गा पूजा एवं दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ।

विधुल्लता ने कहा…

अमन त्रिपाठी जी आद,राज जी ॐ आर्य जी प्रिय रंजना एवं सिया किशोर जी भाई अनुराग और समीर जी आप के स्नेह की आभारी हूँ कई टुकडों में सोच को जोड़ा तो आसमान का एक टुकडा बन गया जिसमे बदली ,बिजली आसमानी रंग,वेदना की सिलवटें और सुख की मिठास है बस समय की कमी है ..सभी को विजय पर्व की शुभकामना

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

इष्ट मित्रों एवम कुटुंब जनों सहित आपको दशहरे की घणी रामराम.

बेनामी ने कहा…

सच ही है ,मन कभी-कभी उलझा-उलझा सा रहता है,उसको अभिव्यक्त करनेके लिए शब्द नहीं मिलते..मगर इसे पढ़कर लगा की विचारों को शब्द मिल गये ,बहुत अच्छा shubh kamnaa vijay dashmi ki

neera ने कहा…

विधु जी पोस्ट पढ़ कर सोचती हूँ क्या कहूँ? अंत में शब्द और अभिव्यक्ति दोनों से हार मान लेती हूँ...

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

बेहतरीन पोस्ट. भाषा शैली सब दुरुस्त.
प्रथम बार आपके ब्लॉग पर आया. अच्छा लगा.

हार्दिक बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

रवि रतलामी ने कहा…

रचनाकार पर आपकी टिप्पणी पर मेरा प्रत्युत्तर -

Vidhu said...

ab to samay seemaa khatm ho gai abhi bhi rachnaa bheji jaa sakti hai kyaa ?
8:58 PM
Raviratlami said...

विधु जी,
अभी समय सीमा 31 दिसम्बर 2009 तक चालू है. आप अपने व्यंग्य भेज सकते हैं. रचनाकार/व्यंग्यकार मित्रों को भाग लेने हेतु सूचना दे सकते हैं.
विवरण यहाँ दर्ज है -
http://rachanakar.blogspot.com/2009/08/blog-post_18.html

daanish ने कहा…

आपके लेखन में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण
हमेशा ही प्रभावित करता है ....
भाव ,
दिल और दिमाग दोनों को छू जाते हैं
अभिवादन स्वीकारें

---मुफलिस---

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

एक पुरसुकून आसमान की तलाश ....waah....aapki post dhoop mein barish jaisi hai ..मन पाखी sa udne lagta hai ....कानो में समुद्र की लहरों का शोर भर जाता है......मुडे -तुडे शब्द सीधे hokr muskurane lagte hain ......ताजुब्ब है aapki kalam yun लरजती kaise hai......!!

"MIRACLE" ने कहा…

विधु जी आपकी लेखनी का जबाब नहीं ...बधाई