गुरुवार, 15 जनवरी 2009

कुछ ईमानदारियां दिलों मैं सुरक्षित रहती है,वक्त-जरूरत दुनिया के नियम कायदों से अलग भी निभाना होता है



उसके हाथों से तेजी से साबुन, पीठ से होते हुए फिसला और नाजाने किस कोने मैं चला गया ,टब में गरम पानी की वजह से पूरे बाथरूम मैं भाप थी उसने सर उठा कर तौलिये के साथ लिपटा अपना चेहरा आईने मैं देखा -चेहरा नदारत था,आइना भाप से ढँक चुका था और शकल दिखाने से भी इनकार करचुका था अब वो क्या करे?उसने एक अंगुली से पूरेआईने में आडी-तिरछी लकीरें खीँच दी ,वैसे ही जैसे कोई छोटा बच्चा कोरे कागज़ या स्लेट पर अनगढ़ हाथोंसे पेन-पेंसिल चलाता है,लकीरों से बची असंतुलित जगह मैं उसको अब अपना चेहरा विभक्त नजर आया ,क्या वो हमेशा से ऐसा ही था ये प्रशन अपने आप से था जवाब भी ठीक-ठाक नही मिला शायद हाँ -शायद ना,ये थोडा डिप्लोमेटिक लगा उसे -मन उसे खुश करना चाहता था,उसने अपनी मुग्धा आँखे सिर्फ अपने पर टिका दी उसकी आँखे सुंदर है सच --विचारों के एक नही कई सैलाब गरम पानी मैं बह गए जब दिन की शुरुआत ऐसे हादसों से होतो उसे घबराहट होती है ,जहाँ साबुन फिसल जाए,दूध उफन जाए,मोबाइल बेडरूम मैं रह जाए,आप जबतक उठाएं बंद होजाए ,ऊपर से वो नम्बर आपकी कोंटेक्ट लिस्ट मैं ही ना हो ,काम ख़त्म किए बगैर बिजली कटौती का काम शुरू हो जाए ,बेमौसमी बारिश हो,प्याज के आंसू अंगुली काटने का सबब बन जाए ,कहीं पहुँचने की जल्दी मैं कार के दरवाजे मैं हाथ दब जाए,चप्पलों के कारण साड़ी फाल अटक कर उधड जाए और किसी सुबह अपनी बोनसाई मैं शिद्दत से खिला कोई फल-फूल टूट कर मुरझाया पडा मिले ----तो भी वक्त तो सरकता है आगे,आप चाहे रुके रहें ...वो उसे समझाना चाहती थी कि हमारे पास पहलेसे ही बहुत से भय थे उनसे मुक्त होकर ही तो जीने कि कामना थी-साथ- झूट से भरी इस दुनिया में सच..की दरकार कि तरह-उसकी मारक उत्तेजना ,उसकी भी आँखे,और त्वचा पवित्र और पार दर्शी थी कोई शर्तनही थी उनके साथ होने की ...लेकिन उसकी शुमारी- बेशुमार रही उसकी भटकनों में ..फिर कुछ ईमानदारियां दिलों में सुरक्षित रहती हैं जिन्हें वक्त जरूरत दुनिया के नियम कायदों से अलग भी निभाना होता है,बाद में वो यही मनाती रही ..काश वो झूट होता तो जिन्दगी आसान हो जाती ,लेकिन वो सच था सब कुछ ...उसे अपने इश्वर को मनाना पड़ता अन्दर की गठान को ढील देना होता चीजों को थोडा विस्तार भी,शायद ये या वो ,और कोई क्रूरता आत्मा को आहात भी नही करती रात अध् बीचकोई ना जाने कितने सिल सीने पर रखे बादलों की तरह गहरा गई आवाज में कह बैठे भुला दो सब कुछ..आधी रात तो सितारे भी नही टूटते -गर टूटे तो झोली या आंखों में समेट लेना पड़ता है और एक खुश फहमी के साथउदास, खुशबुएँ अपनी आखरी हांफती साँसों के साथ एक सून -सान कों मुक्कमिल बनाने दौड़ लगाती है और अपने लिए जगह बनाकर ही साँस लेती है,ना भूलने वाली बांसुरी की तान सर उठाती है, आवर ग्लास मैं कैद रेत समय की गिरफ्त मैं आजाती है जिसे मन मुताबिक उलटा-पुल्टा कर इन्तजार किया जा सके -अँधेरा घना था उन दिनों भी ''प्लीज फॉर गोड सेक, खुश करने की मन की पहल कारगार होती है ,उसे तेज भूख लग आती है ..फ्रिज खोला मनपसंद कुछ दिखाई नही दिया सिवाय एक डिब्बे के जिसमें गाजर का हलवा था बहुत दिनों से मीठा बंद कर रखा था उसने थोडा सा एक बॉअल मैं डाला और ओवन मैं रीहीट कर पुश किया-वेट लिया और स्टार्ट कर दिया ९०० डिग्री सेल्शियश अन्दरतक धंसा होकोई उसके होने का मतलब..बस २० सेकंड एक सौंधी सुगंध किचिन मैं फैल गई ,उसने ओवन आफ किया बिना गलब्स पहने बॉअल बाहर निकाला जिसका ताप उसके हाथ बर्दाश्त कर रहे थे ,उसकी हथेलियाँ भीग रही थी एक दर्ज नाम के साथ .
उमर भर का किया जो मीजान मैंने जब ,वज़न खुशियों का मिरे गम के बराबर निकला, तालिब जैदी

15 टिप्‍पणियां:

"अर्श" ने कहा…

bahoat hi badhiya lekh....time management sikha ja sakta hai..



regards
arsh

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

बढ़िया अभिव्यक्ति

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

..फिर कुछ ईमानदारियां दिलों में सुरक्षित रहती हैं जिन्हें वक्त जरूरत दुनिया के नियम कायदों से अलग भी निभाना होता है,बाद में वो यही मनाती रही ..काश वो झूट होता तो जिन्दगी आसान हो जाती ,लेकिन वो सच था सब कुछ ...

बहुत सही लिखा आपने.

रामराम.

Dr. Chandra Kumar Jain ने कहा…

बहुत सही...अर्थ गर्भ शीर्षक
और
सार्थक प्रस्तुति
=============
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

राज भाटिय़ा ने कहा…

बिलकुल सच लिखा आप ने,
धन्यवाद

Unknown ने कहा…

आज बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आई , अच्छा लगा पढ़कर... आप ज़िन्दगी की छोटी से छोटी घटनाओं को इतने बारीकी से पकड़ती हैं की कोई सोच बी नहीं सकता ! :)

sandhyagupta ने कहा…

Mansik uphan-tuphan ka sahaj chitran kiya hai aapne.

बेनामी ने कहा…

सुंदर भावाभिव्यक्ति.

Jimmy ने कहा…

nice blog and good post ji


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रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत कुछ कह जाने वाली पोस्ट है यह ..अच्छा लगा इसको पढ़ना

डॉ .अनुराग ने कहा…

कभी एक नज़्म लिखी थी विधु जी ...."मुझसे मुख्तालिख शख्स मेरे जेहन में आवारा सा फिरता है.....आपका शीर्षक...लगा जैसे इस लेख की आत्मा है....साइबर युग में जिंदगी की अनर्गल धारणाओं से झूझते हुए अपनी इमानदारी को बचाकर रखना भी एक बड़ी जिजीविषा लगती है....ओर हर आदमी के पास अपने भीतर कई किरदार है ...जिन्हें वो अपनी चतुराई से सही वक़्त ओर समय पर इस आधुनिक सभ्यता में इस्तेमाल करना सीख गया है....
आप जैसे लोगो को पढ़कर शायद कही कुछ लिखने को एक इच्छा होती है.... ....की बहुत से लोग ऐसे है जो शायद मन के भावो को शब्द का लिबास दे देते है

निर्मला कपिला ने कहा…

bahut sundar abhivykti hai bdhaai

विधुल्लता ने कहा…

भाई अर्श जी,महेंद्र मिश्रा जी ,ताऊ जी ,डॉ चन्द्रकुमार जैन जी भाटिया जी,प्रिय सिया संध्या गुप्ता ,हेम पाण्डेय जी ,जिम्मी जी,प्रिय रंजना ,डॉ अनुराग और प्रिय निर्मला कपिला जी ...आप सभी का धन्य वाद ...एक दो दिनों मैं मिलतें हैं न्यू पोस्ट के साथ ...

बेनामी ने कहा…

ईमानदारी और जरूरत को आपने सुन्दर लहजे में पेश किया है । लेकिन आम आदमी तो खुद से भी नही ईमानदार होता है । अच्छा संयोजन भरा है आपने । धन्यवाद

अनिल कान्त ने कहा…

बेहतरीन रचना ....तारीफ़ के काबिल

अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति