उसका चेहरा यकायक अब याद नहीं आता ना वो ना उसकी वो बातें और आता भी है तो कहीं भी कभी भी फिर चाहे तालाब पर फैलती सिकुड़ती रौशनी की परछाई ही क्यों ना हो --उनमें भी --बस इस सोच के साथ एक अजब भाव उस पर तारी हो जाता है ---एक लम्बी सांस के साथ रूकना पड़ता है और देखना तालाब की शेडेड रोशनियां कुछ नीली काली सी -- उसके ड्राइंग रूम के पर्दों की तरह -जिन्हे रस्सी की तरह बल देकर कभी पकडे पकडे वो उस तरफ देखती है-- कालबेल पर रखा उसका हाथ -याद आता है तो लगता है कुछ था जो रोशनियों से भरा था लेकिन क्या --सोचना पड़ता है और देर तक सुझाई नहीं देता --बल खाया पर्दा जोर से छोड़ देना पड़ता है जो खिड़की के एक हिस्से के टूटे कांच की तिरछी दरार नुमा लकीर से होकर बेतरतीब हो फैल जाता है और पल भर को शीशों से छन कर अंदर आती रौशनी उसके चेहरे पर लहराती हुई जमीन पर फैल जाती है अंदर की भटकन भी एक झटके के साथ कोने में जा सहम बैठ जाती है ---मिल जाए वो शायद --सब कुछ नहीं बस उतना ही जो उसके हिस्से का था, एक निर्जन सपने में निमग्न होना और हर रात ये प्रार्थना करते हुए सो जाना हे ईश्वर आज कोई सपना मत भेजना ऐसा दुःसह --जैसा कोई नहीं एक सचेतन पूर्व ज्ञान समय की गर्द - गुबार हटाकर स्पंदित होता है बहुत कुछ किसी रंग में ,किसी शब्द में ,किसी वक़्त में किसी मिलती जुलती शक्ल में और कभी तिनके-रेशे भर की समानता में भी--- उसकी निगहबानी चाहे-अचाहे होती ही जाती है फैली हुई हवा
की शक्ल का बनना टूट जाता है -डूबते को तिनके-रेशे का सहारा वाली तरतीब भी साथ नहीं देती --एक मारक अहसास चाबूक की तरह बे आवाज़ कुछ घटित करता है कोई ऐसा दुःख जो ना घटता है ना हटता है सिर्फ-एक निशान बनाता है ----उसे एक सीधे रस्ते की दरकार थी, एक साफ उत्तर ----जहाँ कोई उलझन ना हो ----सोच की एक लहर दिल दिमाग पर चढ़ने लगती है ----स्मृतियों का दरवाजा बेवक़्त खुल ही जाता है एक कोलाज रास्ता रोकता है --जो मेरा था वो वक़्त दूर जाकर चिढ़ाता सा दिखाई पड़ता है तेज गति वाली किसी ट्रेन की खिड़की से हिलते हाथ में रुमाल का धब्बे की शक्ल में होते-होते आलोप हो जाना ---एक क्षण के जादू का ताउम्र उसकी गिरफ्त में जीना ---देर रात तक कई बार नींद नहीं आती ---कांपती ठण्ड में नीले मखमली कम्बल में कुड़मुड़ाते बस पड़े रहो उस मखमली ठंडक को छूते ही उदासी अक्सर पूछ लेती है ये क्या हाल बना लिया है तुमने अपना --मुझे आजाद करो तुम्हारे साथ सब कुछ अजनबी है ----खैर तसल्ली यही है दृश्यों में पहले सा सन्नाटा नहीं है बेडरूम से सटा हुआ बड़े बड़े भूरे लाल पत्तों वाला पेड़ खड़खड़ करता ---जागते रहो की गुहार लगाता चेताता रहता है, क्यों छूटता चला गया सब कुछ एक अव्यक्त भीतर ही भीतर बदलता है --अजब भाव से उन- इन चीजों को देखना अपनी पीड़ा में दूसरे की पीड़ा को देखना उसकी --अपनी समझ की समय सीमा तय कर-लेना की बस इससे आगे ना जानना ना समझना ---फिर भी भीतर का अकेलापन लहलहाता ही जाता है कहीं भी जाओ ---हर कहीं साथ ----डोलता सा पीछे पीछे
इस साल मौसम सर्द है अप्रत्याशित रूप से ज्यादा --इतने सर्द की आदत ना हो तो क्या कीजिये ---नीले नीले अनमने दिनों में बजती हुई हवाओं के साथ पतझड़ का इन्तजार ---दुःख देता है और इन दिनों को हर साल ऐसे ही मुड़ते हुए देखना भी दुखी कर जाता है --मन की बैचेनी बारिश के बाद खिल आये जामुन- अमरुद के ताजे पत्तियों की खुशबू में घुमड़ती ही जाती है तंग दिनों की शुरुआत ---अब राहत देती है ---देखो अब हम कितना बदल गए हें --रोते नहीं--एक दूसरे तरह का हुनर अपने में विकसित कर लेना -- एक पेड़ का निर्लिप्त भाव स्मृतियों की निरंतरता को बरकरार रखता है अँधेरे में खड़ा अपने धड़ से कटा पेड़ अपनी दो टहनियों के साथ विपरीत दिशाओं में फैला एक काले बिजूके की तरह ठहाका लगता है --इतनी लाचारी इतनी असहायता एक प्र्शन खड़ा करती है-- लेकिन उस वक़्त वो बात ख़ास थी ---बिना तय किये ही तय की जा चुकी शर्तें टूटती हें इतनी छोटी दुनिया में बहुत कुछ छूट जाता है स्मृतियाँ भी --अक्सर वो जुदा --दुनिया खफा --तुमने कुछ कहा शायद--मैंने कुछ सुना हमारे अच्छे -सच्चे दिनों--का लौटना मुमकिन होगा-- कभी सोच में कभी सपनो में उम्मीद से अधिक उम्मीद आखिर क्यों --सड़क, दुकाने, आवाजें ,शहर --किसी शहर के खूबसूरत नाम वाला वो मार्ग एक गंध कि तरह व्यक्त होता है --क्या सचमुच कोई उधर इन्तजार कर रहा है छूटा हुआ कुछ मिल जायेगा ये भी तय नहीं है बाहर कोहरा है बेहद ठण्ड है --हर वक़्त स्मृतियों की यात्राएं बेठौर कर देती है कोई ठिकाना नहीं बचता ---एक घर बनता है जरूर लेकिन तुरंत धवस्त भी हो जाता है और लौटना उसी टूटे फूटे में नियति बन जाती है --और हर यात्रा को पीछे मुड़कर देखना अजीब है एक सीझा हुआ सा दिन, उन दिनों के पतझड़ के लिए प्रेम करने और भुलाने के लिए.मजबूर करता है जीने के लिए आप कौन सी प्रक्रिया अपनाते हें आप पर निर्भर है और मुक्ति सम्पूर्ण जीने में शायद हो --वो जी कर ही अनुभूत की जा सकती है ---हमारा समय कहाँ दर्ज है जिसमें किसी पत्ती तक के गिरने की आहट नहीं है ---तुम्हारा चेहरा कुछ कुछ याद आ चला है-तुमने फिर अपना कहा अच्छा लगा एक नदी -पहाड़ों के नीचे कछारों में - बहती हुई बढ़ती है ,गीले तिनको घास कागज सीपी शंख को ठेलते हुए उस तक, इस साल बारिश भी
ज्यादा हुई और इस मौसम में भी लगातार बारिश हो रही है --नदियों के उफान पर आने के साथ ही ----ये भी बीत जायेगा ---लेकिन कितना बचा रहेगा ये कौन जानता है -
--[होना है मेरा क़त्ल ये मालूम है मुझे --लेकिन खबर नहीं कि में किसकी नजर में हूँ ]
3 टिप्पणियां:
कब तक सिकुड़े बैठे रहेंगे समय की शीत में,
उठें और लिख डालें गीत अपने।
prveen ji dhanyvaad
भयंकर गर्मी में ठंडक दे गयी आपकी पोस्ट
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
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