गुरुवार, 5 जून 2014

मौसम के चेहरे पर इन दिनों तांबई ताप है ,एक खनक बावजूद भीतरी द्वन्द को ठेलती है विपरीत दिशाओं में इधर-उधर ,बल्कि उधर ज्यादा जहाँ कुछ छूट जाता है --चीजें इससे ज्यादा विस्तारित नहीं होती

क्या अब भी लौटा जा सकता है ,आज ये प्र्शन अपने आप  से नहीं ----अँधेरे में वो एक पसंदीदा जगह गढ़ लेती है ---कभी कभी जब सब कुछ ठोस हो जाता है ---तो किसी से सवाल करने  का मन करता है ---सवालों के टोहने से भी नहीं पिघलता --स्मृतियाँ भी तुम कौन हो कह आलोप हो जाती है और भीतर ही भीतर कोई बेखटके आवाज़ लगाता है --कोई कैसे देखे एक निर्णय अनिर्णय बैचैन करता जाता है हर  अगला क्षण मुल्तवी होता जाता है --नहीं लौटा जा सकता ,प्रश्न किसी और से  और उत्तर अपने आप को देना,आगत वक़्त की इक्षाएं धुंधलाती है --इसमें एक हैरानी है इक्षाओं के द्वीप पर अथाह रेतीला  चमकीला विस्तार गुंजाइशों  को बेठौर करता, भागती हुई लालसाओं को भारी हुई सांसों के साथ फेफड़ों को थका देता है --जो नया नहीं है ---कोई पूछे उससे --अनुपस्थित होकर उपस्थित होना क्या होता है --कई मोड़,वो छूटना वो जुड़ना वो टूटना सागौन वन में उसके पत्तों सा   खड़खड़ होना ---स्थिर पैरों से मन की परिक्रमा चकराती  है ,एक चट्टान को सीने  पे रक्खे  गोल घूमते हुए देखते रहना तकलीफ़देह है ----मौसम के चेहरे पर इन दिनों तांबई ताप  है ,एक खनक बावजूद भीतरी द्वन्द को ठेलती है विपरीत दिशाओं में इधर-उधर ,बल्कि उधर ज्यादा जहाँ कुछ छूट जाता है --चीजें इससे ज्यादा विस्तारित नहीं होती ,एक बिंदु पर जाकर सिकुड़ने लगती है तमाम प्रयास बेअसर होते हैं ---इसे किस्मत की सितमगिरी ही कहेंगे ----एक अन एक्सेप्टेड सिचुएशन को नरमी से कबूल करना --एक जादु असर  सर चढ़ बैठता है -----ये क्या तभी एक शाख से बिछुड़ा लंबा नुकीला हरा कंच पत्ता अपना हरापन खोता तेजी से सिकुड़ता जाता है बकौल खलील जिब्रान द्वन्द के उस पार होगा मन -मन के उस पार होंगे आत्मा के जगमगाते शिखर ---------कोई अपूर्व  निजता मन को घेरती है ,एक अलभ्य मुस्कान --इतनी निष्ठुरता बरतना जरूरी है दरअसल वहीँ प्रारब्ध है जहाँ- जहाँ जब-जब छूट जाते हैं वो ,एक निनाद प्रभुजी तुम चन्दन ---तर करता है तभी एक खानाबदोश हवा तेजी से गालों  को सहलाती निकल जाती  है थोड़ी सी खुमारी थोड़ी सी राहत ---फिर सोचना आखिर बेतरतीब चीजों रंगो को समेटने के लिए भी तो वक़्त और साथ की परसुकून दरकार है,-------उस दिन शाम ज्यादा ही  सर्द थी और उसकी आवाज़ भी  इत्तिफ़ाक़न दोनों के बीच शब्द भी  ना सुनाई देने वाली बिलख की तरह थे ---वो जगह ,वो सपने वो घुमड़ वो सन्देश --स्मृति घर के किसी ईशान कोण में बेहद-मूलयवान  खजाने की तरह रख देने का मन था,समय कम  था इक्षाएं मनभर अफ़सोस कितनी बातें/ चीजें छूट गई ----शहर  में पहला कदम --और बारिश ने स्वागत किया --शाम सारे ओफिशियलि---काम ख़त्म करके जनपथ से  उसने एक ट्रांसपेरेंट चाटा खरीदा ताकि बदल और बारिश एक साथ देखी  जा सके ,---लेकिन पता नहीं कैसे घंटा भर मार्किट में घूमने के बाद पसंद-आया छाता टेक्सी की सीट पर ही रह गया --दूसरे दिन विक्टोरिया  सिक्रेट का  परफ्यूम और सफेद फूलों का रजनीगंधा का गुच्छा --सरदार जी की गाडी में -और पहले दिन ही रूम के शीशों से छन कर  आती रौशनी से बचने की खातिर -अमेरिकन डायमंड वाले  हेयर क्लच को उसने सी ग्रीन पर्दों को समेट कर उसमें लगा दिया था ---अब सोचो तो हसी आती है बाकी चीजों का क्या हुआ नहीं मालूम लेकिन वो किलिप तो कूड़े के ढेर में जरूर बदस्तूर जंग खा रहा होगा ---यूं  अजीब है अपने को कभी-कभार बदत्तर और नकारात्मक सोचना जो ज्यादा देर नहीं ठहरता फिर लौटना यहीं -लौटकर हलकी आहट  के साथ नरम रौशनी में जमुनी फूलों का आँगन में निरंतर झड़ना अद्भुत दिखाई देता है जिसे अपनी आँखों से उन आँखों को दिखाना -चाहना इत्मीनान से भरी-सुलगती  - आँखों को ---फिर-सोचना-उस-आकाश-चमेली-के लम्बे  पेड़ को  जो झुका हुआ अपनी ही परछाई देखने में गुम रहता है ,सोचना ये भी की भूल जाना कितना अच्छा होता होगा एक दिन वो होगा-जब  वो सब जो सोचा है --भूल जानाहोगा  सब कुछ हमेशा के लिए अपनी चेतना में इस सोचे को सुनना और धूप छाहीं   हरियाली को आँखों में भर एक दूसरे पे उलीच देना उस दिन लगा जिंदगी इसी क्षण में सिमट गई है हम अगले क्षणों में साथ होंगे या सैकड़ों मील दूर दोनों को पता नहीं उस दिन शाम देर से आई और जल्दी लौट गई ---जैसे वो भी नाराज हो --कहना तो चाहती थी जिंदगी के सवालों का सामना करो --पर कहना आसान नहीं था ---


बीते तीन  दिनों से सूरज अपने पूरे तेवर के साथ तप रहा है जाने किसे जला-झुलसा देने की मंशा है कनेर के बोनसाई में पीले फूल शाखों पे खिलने के पहले ही   किनारों से स्याह हो झड़े जा रहे हैं --इक्षाएं उधर्वगति हो आकाश में घुल जाना चाहती है डूबता सूरज शाखों के बीच विरक्त भाव से डूबता ही जाता है --डूबता सूरज नहीं देखना चाहिए --अपनों से बिछुड़ना होता है थोड़ी देर में गाढ़े अँधेरे में पत्तों पर अभ्रक धातु सा कोई किस्सा चमकता रोशन होता जाता है दुनिया भर के शोर से अपने को बचने की खातिर एक छोटी कोशिश में एक हलकी मुस्कान चेहरे पर झुकती सी कांपती  हुई तेज दौड़ लगा जाती है एक केरेबियन गीत जोर से कानो में थर्राता है ---पता नहीं थोड़ी ही दूरी से ---उसकी धुन  शब्द अर्थ कुछ भी समझ नहीं आता -----
अब के गर तू मिले तो हम तुझसे ऐसे लिपटें तेरी काबा हो जाएँ [अहमद फ़राज़                   

कोई टिप्पणी नहीं: