इंद्र धनुष के जितने रंग माँ के उतने शेड्स ,जब माँ थी तो जीवन में जल की तरह घुली हुई थी ...तब कोई जलन ना थी,वर्षों पीछे छूटे हुए समय को देखती हूँ तो इस समय से कुट्टी कर लेने को जी चाहता है --जहाँ तक पंख ले जाएँ बचपन से तब तक, जब तक माँ साथ थी ,लौट जाने को भी मन करता है ,माँ के साथ बीता जीवन ..पल पल को शब्द देने का भी मन, कितनी बातें हेँ याद करूँ तो जीवन कम पड जाए ,,,माँ थी तो हरियाली अपने हरियाली पन में उनका प्रेम अपने प्रेमपन में उत्कट था ओर जिसकी कोई सानी नहीं.. तुम्हारी चिठ्ठी, लिखावट आवाज इश्वर से मांगी हुई प्रार्थनाएं हमारी खातिर मांगी हुई शुभकामनाएं सब ज्यों की त्यों सुरक्षित है मुझमें लेकिन शर्मिन्दा हूँ जब तुम थी तो अपने संसार में गुम थे हम तुम हंसती थी, कहती थी.. संसार ऐसे ही चलता है ओर अब ...अब तुम अपने संसार में हो लेकिन सन्नाटे के स्वर में ..जैसे बीच यात्रा में छूटा हुआ मौन ,जैसे किसी निगूढ राह से मानों बीती हुई एक शाम ,बीत गई माँ ...हर दिन मुझमें शेष रह जाती हो ''माँ''यूं तुम्हारी स्मृति ताज़ी ही बनी रहती है रास्तों के उंच-नीच से आगाह करती ऐसा नहीं वैसा करो यूं नहीं ऐसा, रूको -चलो ---कितनी बातें कितने आदेश कितनी डांटें-फटकार ..कितना दुलार कितना प्यार माँ के ''बेटा '' बोले हुए शब्द का कोई मोल नहीं जब भी ठोकरें खाती हूँ इस उबड़-खाबड़ में तुम्हारी अनमोल सौगातें सीखें कानों में गूंजती हेँ बस लगता है यहीं पास ही तो हो कभी सपनो में तो कभी किसी अन्य की शक्ल में कभी किसी की आवाज में ओर कभी कच्ची कैरी की सुगंध में तुम अटी पड़ी रहती हो .माँ तुम्हारी देह गंध अक्सर दाल के छोंके में, तो कभी आम की लौंजी में, मेथीभाजी में. पोंड्स क्रीम में, बेडशीट्स के फूलों के तारों में गमकती है. ढेर से शब्दों के बावजूद में अवाक हूँ अपनी पूरी रागात्मकता पूरी लय के साथ बात करना चाहती हूँ.. तुमसे ..ओर इन दिनों तो मोगरा बहुत खिला है उसकी खुशबू में तुम याद से भर जाती हो तुम्हे पसंद था मोगरा माँ बस इस लिए इन दिनों गाहे -बगाहे टांक लेती हूँ में भी बालों में मोगरे का गजरा ...तुम्हारी याद आती है तो बस आती ही चली जाती है, कितने ही दिन बीतते जाते हेँ रास्तों से गुजरते हेँ, मोड़ आते ...मुड़ते हेँ हर सुख में हर उपलब्धि पर ..पीठ पर तो माथे पर तो अक्सर ही सीने पर तुम्हारे स्पर्श जीवंत हो उठते हेँ
हर ठोकर पर हर दुःख में बस, माँ माँ माँ अनहद नाद की तरह एक आवाज बजती है भीतर-बाहर ..कुछ नहीं अच्छा लगता माँ जब तुम याद आती हो .ये .टी वी ना बक झक करते रेडियो ना संगीत ,ना सारी दुनिया से जोड़कर रखने वाला कंप्यूटर ....काश तुम्हारी दुनिया से भी जोड़ देता, ना मिलती तुम कोई बात नहीं..एक क्लिक पर तुमसे बातें ही हो जाती. कोई ऐसी लिस्ट होती जिसमें तुम्हे ढूँढ ही लेती ..समय के साथ बदलती चीजों ,रिश्तों, प्रेम से भी तब कहाँ फर्क पड़ता ..देखो माँ- में तो तुम्हे बेहद याद करती हूँ ओर आज सुबह अखबारों में, कंप्यूटर में, मोबाईल में आये ढेरों मेंसेजेस में ...''माँ'' शब्द दुखी कर गया तुम ज्यादा शिद्दत से याद आती गई ...माँ तुम याद आती हो तो बस आती हो ..सुनो माँ मुझे यकीन है तुम मुझे सुन रही हो.. एक लड़की के लिए माँ क्या होती है माँ ही जान सकती है ..आज तुम्हारे जैसा पोटली पुलाव बनाया देसी घी में भुने हुए चांवलों की खीर पूरे घर की डस्टिंग की, धूल से तुम्हे नफरत थी ,तुम्हारी दी हुई सुनहरी पाट की जामुनी हरी जामदानी साढ़ी पहनी तुमने उसे पहना था जब ओर मुझे अच्छी लगी तो, तुमने उसे मुझे दे दी थी यह कह कर बहुत भारी है ...तुम पहनो बहुत जतन से संभाल कर रखा है उसे . तुम्हारी देह गंध अब तक ज्यों की त्यों उसमें बसी है .माँ तुम जैसा ही बनने की कोशिश करती हूँ पर नहीं बन पाती अब अपनी कामनाओं भरे संसार में अपने ही भीतर निमग्न होते आकाश में तुम दिखलाई पड़ती हो जहाँ बीच में खड़ा चतुर्थी का गोल चाँद टोक देता है, रोक लेता है.. रूको आज तुमसे बात करने को जी चाहता है.आज उपवास है तुम्हारा वो पूछता है पूजा ठीक से की .कोई गलती ती नहीं की ...वो प्रतिनिधितत्व करता है तुम्हारा ..उत्सव से हफ्ता दस दिन पहले शुरू हो जाते थे उत्सव घर में ओर अब कितने फीके-फीके से हेँ सब त्यौहार. कितना व्यापक उत्साह था तुममें माँ,ना कभी थकती ना रूकती ना शिकायत,बस दौड़ी दौड़ी हम लोगों की खातिर कुछ भी तो नहीं लौटा पाए तुम्हे .....आज का दिन उदास ओर चुपचाप है रात बीतने में वक्त है तुम्हारी आहटें इस भीढ़ में भी सुन पाती हूँ तुम्हे कौन ले गया हमसे दूर ...ओर छोड़ गया यहाँ एक निर्मम तटस्थता...बुक शेल्फ में तुम्हारा फोटो रखा है तुम्हे किताबें पसंद थी ,देखती हूँ जब जब तुम्हे, यकीन हो जाता है तुम पास ही हो ...बीते कितने बरस तुम्हारी देह के चारों ओर समवेत प्रार्थना के वे शब्द कानो में गूंजते हेँ साँसे रूक रूक कर चलती है .मोमबत्ती की लो की तरह जलती-पिघलती देह हमारे सामने देखते-देखते ही गुम हो गई
दो सितम्बर २००५ की वो दोपहर गणपति अथर्व शीर्ष ओर विष्णु सह्श्त्र नाम का पाठ करते करते आवाज छिल गईथी उस दिन, तुम्हारा चेहरा ओर मुंदी आँखें ओर काया रह रह कर काँप उठती थी तुम्हारे निष्ठुर देवी देवता ..ओर हम बस देखते रह गये बीच रात माँ तुम चली गई ...तुम्हारे सामने उस दुनिया के बहुत से जरूरी काम थे शायद,...तुम्हारे जाने के बाद कई दुःख आये -गए, कई सुख आये ओर रह गये पास... ओर अब उन्ही शेष सुखों में शेष हो मेरे भीतर,[अभी भी रह गई हेँ कई बातें.].
7 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर..... आपका स्वर सामयिक और आपकी भाषा जीवंत है...
जो स्थापित है उनका तो बस अभिनंदन....
माँ हर पल साथ है ..बहुत सुन्दर लिखा है आपने
आह! सारी कमज़ोर नसों को तुमने एक साथ दबा दिया है ..
माँ पर लिखा सब दिल को छू जाता है...
बहुत सुन्दर लेखन विधु जी.
अनु
बहुत सटीक प्रस्तुति ..
जीवन में मां की बाते निराली होती हैं ..
इसलिए उनको खोने का अहसास कष्टकर होता होगा ..
समग्र गत्यात्मक ज्योतिष
माँ
ये शब्द जब भी सुनती हूँ
कहीं पढ़ती हूँ
एक ख्याल बन तुम
उतर जाती हो सीधे मन में
कभी गुनगुनाती हो
कोई मीठी धुन
कभी कोई सुगंध बन
महका जाती हो चितवन
तुम्हारा ख्याल
हर ख्याल से प्यारा लगता है
जब भी पढ़ा हैं माँ पर मन को भावुक होने से रोक नहीं पाती ... आपका लेखन भी ऐसा ही है ...आभार माँ हमेशा साथ रहती हैं और रहेंगी ...
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