शुक्रवार, 28 मई 2010

पलाश के जंगल की तरफ देखो तो मानो आग लग गई हो ,पलाश फूलता है तो खूब दुःख देता है दर्द के साथ ,सारे फूल झड कर जमीन पर गिर बिखर जाने में अपना माथा धुनक कर रह जाते हेँ,.पलाश का जंगल अब घना नहीं रहता //-


बहुत दिनों तक हलके नीले आसमान से उसे चिढ होती रही ..जब थी तब थी लेकिन अब नही ,ठीक जिसके नीचे एक पलाश का एक जंगल था उसका ...और स्मृतियों में अंटती हुई एक उनींदी शाम तेजी से घनी होती हुई ,जहाँ से दिल दिमाग उसे जंगल की पथरीली राहों संग झुलसा देने वाली गर्मी के साथ गुजारता -हर दिन रेशा-रेशा रीतता हुआ -दिनों दिन उन दिनों अनगिन चेहरों की भीड़ लगातार घटती बढती रहती जंगल कुम्हला रहे थे वहां दुनिया कगार पर थी एक निचाट में सब कुछ छूटा हुआ हाथ से हाथ भी .
भाषा की कशीदाकारी उसे खूब आती है,फिर भी सीधे से जवाब नहीं मिलता ,उसे उब होती,ग्लानी और कभी-कभी वितृष्णा भी ऐसे में हमेशा एक निर्णायक स्थिति में पहुँच जाना लेकिन जाने क्यों फिर पीछे लौटना होता वो ,एक अहम् पल होता..जिन्दगी तेजी से बदलती है गोल-गोल चक्कर घिन्नी खा कर,लडखडाते पांवों को यहाँ वहां रोकते-रोकते स्थिर करना ..घूमते हुए सर को दोनों हाथों से थामना तब कुछ भी अख्तियार कर पाने की स्थिति देर तक नहीं बन पाती ..लम्बी-लम्बी फूली हुई साँसों के साथ ..एक नीले फूलों वाली घेरदार फ्रौक का घेरा देर तक आँखों में घूमता है ,तब खेल था अब नहीं ..तब सच था ,अब झूट ...एक अजीबों गरीब तरह के तेवर दिमाग को उलझाए रहते .....पलाश के जंगल की तरफ देखो तो मानो आग लग गई हो ,पलाश फूलता है तो खूब दुःख देता है दर्द के साथ ,सारे फूल झड कर जमीन पर गिर बिखर जाने में अपना माथा धुनक कर रह जाते हेँ,.पलाश का जंगल अब घना नहीं रहता ,और स्मर्तियाँ साफ होती जाती है,दूर के द्रश्यों से गठजोड़ करती सी कई शब्द,कई स्पर्श ,छूकर लौटते हेँ ....शहद में घुलते..रंगों में डूबते इतने मीठे इतने गहरे की यकीन ही नहीं होता ---रेशमी चाँद की पीली रौशनी लगातार समानांतर चलती और यकायक भूत की तरह गायब हो जाती. हम पूछ्तें हेँ एक सादा सा सवाल,कहाँ है हमारी जगह और उसकी नजरें सिमट जाती है .उसी के चेहरे पर,ये क्या ? हठात ..आलतू-फालतू सोच ले बैठी--सोच का बोझिल उहापोह -वो इसमे लथड़ना नहीं चाहती ..कुछ पल को कुछ चेतावनिया ..असाध्य को साधने की कोशिशें करती है ,और एक असमंजस से बाहर निकलने में सहायक भी जो जुड़ाव था ,आकर्षण था ,आदर्श था ,प्राप्य था, प्रिय था ----भीतरी -भीतर को उलट देना चाहता है रत्ती-रत्ती खुरच देना नहीं उससे ऐसी या यूँ उम्मीद नहीं थी नहीं ऐसे में भला कोई उम्मीद हो भी कैसे सकती है ....कितना कुछ आँखों में महकता है ,छलकता है..खोया हुआ समय मुठ्ठी में आजाता है, इस आद्रता में निजता देख पाना और भी मुश्किल ...एक परफेक्शनिस्ट अहंकार की मौजूदगी में अनगिन इक्छाओं की प्रत्याशा में दिन रात का घुलते जाना ..पानी में नमक सा ..ऐसा कैसे चलेगा ...इश्वर जानता है पाप-पुण्य.सच झूट बीते -आते समय के साथ एक नितांत अतार्किक यथार्थ बच जाता है वर्तमान तो बीत ही जाता है,जिसके साथ उचाट हो कुछ और भी बीतता है ,बहुत कुछ दरकिनार होता है अस्थिर चाल से एक फीके चेहरे से बनावटी मीठी हंसी उसे उस घनीभूत आयात में कसती है दम घुटता है इतने बड़े झूट से ....एक निर्विकार -आकार में बदलता है मनुष्य के भीतर देवता व्यर्थ होता है समीकरण गड़बडाते हेँ ,एक तस्वीर में दिन रात, आसमान ,तारे चाँद और एक पल गैरहाजिर होतें हेँ बहस ख़त्म बस,अब अदालत मुल्तिबा की जाती है ...

बहुत पहले एक कहानी का प्रारूप लिखा था, कोशिशों के बाद भी पूरी नहीं हो पाई ...कभी हो शायद ये कहानी की शुरुआत नहीं ,कहीं बीच का टुकडा है शुरू और अंत अभी सूझा ही नहीं ..दुःख तो पकड़ में आता है लेकिन सुख नहीं यदि अंत सुखद नहीं हुआ तो जीवन तो व्यर्थ गया ना ..बस इसी लिए ... ...लेकिन अभी ज्यो की त्यों ..


10 टिप्‍पणियां:

kshama ने कहा…

Zindgaani ki kahani ka ant kise maaloom? Yah adhoora pan bhi yahan mukammal laga...

कविता रावत ने कहा…

Antardhwand ko bakhubi piroya hai aapne...
Saarthak prastuti ke liye dhanyavaad

डॉ .अनुराग ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
डॉ .अनुराग ने कहा…

शीर्षक देखते ही समझ गया के मेरी फेवरेट लेखिका ने कलम चलायी है ........आपकी कहानी का अंत किस मोड़ पर पहुंचे मालूम नहीं .पर ढेर सारे शब्द अपने कई आकार ओर किरदारों संग बैठ गए है .......

"परफेक्शनिस्ट अहंकार की मौजूदगी में अनगिन इक्छाओं की प्रत्याशा में दिन रात का घुलते जाना ..पानी में नमक सा ..ऐसा कैसे चलेगा ...इश्वर जानता है पाप-पुण्य.सच झूट बीते -आते समय के साथ एक नितांत अतार्किक यथार्थ बच जाता है वर्तमान तो बीत ही जाता है,जिसके साथ उचाट हो कुछ और भी बीतता है ,बहुत कुछ दरकिनार होता है अस्थिर चाल से एक फीके चेहरे से बनावटी मीठी हंसी उसे उस घनीभूत आयात में कसती है दम घुटता है इतने बड़े झूट से ...."

ओर ये पंक्तिया .जाने किस मूड में किस तरतीब से ज़ेहन के भीतर उपजी होगी ......

मनुष्य के भीतर देवता व्यर्थ होता है समीकरण गड़बडाते हेँ ,एक तस्वीर में दिन रात, आसमान ,तारे चाँद और एक पल गैरहाजिर होतें हेँ बहस ख़त्म बस,अब अदालत मुल्तिबा की जाती है ...

खास तौर से
मनुष्य के भीतर देवता वाली बात.......

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर... अगली कडी का इंतजार

राजेश उत्‍साही ने कहा…

विधु इस तरह भावों के जंगल में क्‍यों भटक रही हो। देखो वहीं कहीं एक पगडंडी भी होगी। उसी पर चल पड़ो तो कहीं पहुंच ही जाओगी। कभी कभी लगता है जैसे शब्‍दों का स्‍वेटर बुन रही हो उधेड़ रही हो। कोई डिजायन आपको जम ही नहीं रहा। पलाश का जंगल अब भी उतना ही घना है हमारी आंखें जरूर कमजोर हो गई हैं।

neera ने कहा…

कहानी का अंतरा है, मुखड़ा है या अंत है ... अपनेआप में कितना साबुत है मन के भीतर उजड़ा पलाश का जंगल आँखों में चलचित्र सा उतरता है... मन के टूटे और जुड़े तारों को कोई शब्द दे सकता है ... वही ताना-बाना है...

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

कई बार पढ़ चुकी हूँ ये पोस्ट और हर बार कुछ खो देने की,कुछ भूल जाने की,इन पलाश के जंगलो की आग में भटक जाने सी उदासी मन में फ़ैल गयी.आज जल गया मगर वर्षा से धुलता हुआ पलाश कभी हरा रहा होगा.इसकी चमकती हरियाली से कुछ छूट गया शायद,किसी के वियोग में जल गया होगा.चाहे अब ये घना नहीं रहा मगर इसके लैंड स्कैप स्मृतिओं से कही नहीं जायेंगे.

Unknown ने कहा…

such a nice piturisque words for palash...... very beautiful!

रंजू भाटिया ने कहा…

मैं तो आपके लफ्ज़ पढ़ते पढ़ते ही इस खुबसुरत भावों के जंगल में खो गयी कहीं ..शुरू और अंत के बीच में बहुत कुछ ही कहा रह जाता है ...