गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

प्रेम से ऊर्जा ...उर्जा से क्रिया शीलता ,क्रिया शीलता से रौशनी और रौशनी से सुघड़ता ...//-


र साल दिवाली आती है मनो- कूढा-करकट हम घर से बाहर फ़ेंक देतें हें पर मन मस्तिष्क पर जमा थोडी भी धूल हम नहीं उतार पातें हें ... लाख गुनी ग्यानी कह गये की मन का मनका फेर .पर अब तो सब कुछ असंभव लगता है ..ये भी सच है की किसी के मन में हम चाहे जितना गहरा झाँक लें और चाहे जितनी पैनी हमारी खुर्दबीनी नजर हो, तो भी बहुत कुछ जान नहीं पाते, ऐसे कई लोग हमारे आस-पास ... बस एक फूहढ़ अंदाज में जिए जातें हें और उनकी उम्र'' दिन गिनती ना जाने कितनी दिवालियाँ पीछे ठेलती आगे बढती जाती है ...ना दिलों में रौशनी होती है ,ना घरों में ....ज़रा विस्तार से सोचें ..हमारी किताबों पर जमा धूल जिनका एक पेज भी ना खुला हो ,यदि गमलों में जमा घास -खरपतवार उग आई हो ,दीवारों का पलस्तर उखड गया हो ,कपडे की सीवन उधड जाए तो मन दुखता है रंग-रोगन सिलाई की जरूरत होती है रसोई के डिब्बे इधर-उधर हो जायें,प्याज की टोकरी में प्याज कम छिलके ज्यादा हों,अलमारी की सतह पर धूल हो उसके अन्दर कपडों की भरमार हो,प्रेस किये कपडें सलवटों से भरें हों अन्य उपकरणों वाशिंग मशीन, सिलाई मशीन,ए.सी में मेल दाग-धब्बे उभर आये,परदों से छन्न कर आती रौशनी फीकी लगने लगे,अचार मुरब्बों की बरनी के नीचे लगे कागज़-कपडों पर तेल मसाले के छींटेंलग जाए अच्छी सफाई ना होने के कारण ड्रेसिंग टेबिल पर बाल रह जाए मंहगे जूतों-चप्पल की तली से धूल मिटटी चिपक कर एक इंच तक उठ जाए शिफान जार्जेट की साडियों के पेटीकोट फाल से ऊपर होने के कारण साडी की किनारी घिस कर उधड जाए तो ऐसी मैली फूह्ढ़ता के लिए कौन जिमेदार होगा?क्या हर दिन या दो दिन में इन कामों पर फोकस करने की जरूरत नहीं? आप करें या नौकर से कहें ...क्या जरूरी है दिवाली पर ही सब कुछ किया जाए ,सारा कचरा घर से बाहर किया जाए...
हमारी एक परिचिता बरसों रद्दी इकठ्ठा करके उन्हें दिवाली पर बेचती रही पति सरकारी विभाग में पी. आर. ओ थे जाहिर सी बात है दुनिया भर के अखबार उनके यहाँ पहुँचते थे इस तरह दस-पन्द्रह तोला सोना उन्होंने बनाया ..लेकिन उस रद्दी को सहेजने में ,कीडो-काक्रोंचों से बचाने में उन्हें कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी ये भी सोचें , आप इसे सुघड़ता भी कह सकतें हें वाह रद्दी से सोना ...एक अन्य महिला पुराने कपडे सहेजे रहने में सुख पाती है बस यही कहती हें पति ने पहली वेडिंग एनिवर्सरी पर दी या माँ ने जनम दिन पर या की कालेज के दिनों की ये ड्रेस है जब दुबली -पतली थी बस मन को ऐसी ही फूह्ढ़ता से संतुष्ट करती है लेकिन किसी जरूरतमंद को नहीं देगी .....एक नव धनाड्य मेरी महिला मित्र ने बताया की उसके यहाँ कोई नौकर नहीं टिकता अब इसके कारण बहुत से हो या चाहे जो हो ,लेकिन साथ ही उसका ये भी कहना था की कोई त्यौहार हो या मेरे फार्म हाउस पर पार्टी हो ,या घर में कोई कथा हो में इन्हें कपडा खाना भरपूर देती हूँ मेरी समझ से मेंने जो जाना वो ये की ,गरीब नौकर मेरी इस मित्र का देना अपना अधिकार समझ रहे थे ,जो कपडा भोजन दक्षिणा उन्हें मिला ...वो किसी ना किसी को मिलता सो उन्हें मिल गया मित्र का कहना था की इतना देतें हें फिर भी नमकहरामी करतें हें ..क्या ये दिमागी फूह्ढ़ता है या चालाकी ?... मेरे आँगन में सौ -दो सौ फूल रोजाना खिलतें हें जिनकी लतरें बाहर सड़क की और फैली हुई है सुबह की सैर को जाने वाले बुजुर्ग और स्कूली बच्चे अधिकाँश फूल तोड़ लेतें हें पडोसी शिकायत करतें हें मुझे कोई शिकायत नहीं, जबकि में अक्सर अपने पडोसी को भी निर्लिप्त भाव से फूल तोड़ते देखती हूँ ..तब भी रोजाना कई फूल बच जातें हें हर बरसात में कलम बीज से तय्यार कुछ ख़ास पौधे बांटने में सुख मिलता है ये एक लंबा सिलसिला होता है कभी उनके घर जाओ पौधे बडे हुए और उनमे खिले हुए फूलों को देखना ...एक अव्यक्त ख़ुशी होती है देने बांटने की चीजें फूल पौधे कोई मांगे और उन्हें ना दिए जाए ऐसी फूह्ढ़ता कोई निभा सकता है भला ...
कुछ लोगों के पास शार्ट कट होतें हें जो अपने ही में एक सुखी संपन्न जीवन बिता कर दुनिया से अलविदा हो जातें हें और कुछ लोग तमाम काबलियत और ईमान दरी के बावजूद वो नहीं पा-पाते जिनके वो काबिल होते हें जिनकी उन्हे चाहना होती है फिर भी वो जिन्दगी जीतें हें अपनी कमियों और अच्छाइयों को नई व्यवस्था में किसी नए रूपक में बांधकर एक सुख में डूबकर और कुछ ठीक इन से उलट अपने ही ढर्रे पर चलने वाले ...पर जी ,इस दुनिया में सुघड़ता से जीने के लिए एक दिमागी प्रबंधन की भी जरूरत होती है की कब करें क्या करें कैसे करें और क्या ना करें और जब आप अपने को निर्देश देतें हें या दो टूक निर्णय सुनातें हें ..हाँ या नहीं ..... कुछ बातें क्या जायज हें? ...?आपका हमारे घर में प्रवेश मय जूतों चप्पलों से और हम आपके यहाँ नगें पैरों, आपके घर हम बिना इजाजत बिना प्रयोजन के बैठक से आगे ना जा पायें...हमारे घर में आप बेडरूम से बालकनी छत्त तक घूम आयें क्या ये फूह्ढ़ता है या सहजता?, आपको हम सादर आमंत्रित करे भोजन में अचार मुरब्बों से लेकर चटनी-पापड से लेकर जायके दार खाना खिलाएंऔर आपके घर में हमें फ्रिज का बासी खाना गर्म करके परोसा जाए ....कुछ रिश्ते जिन्दगी की कड़ी धूप में.. साए की तरह हो तो .जीना आसान हो जाता है कि .जब मिलो तब दिवाली सा आनंद मन उठा सके ...
एक और महिला हर दिवाली पर बड़ी और महंगी खरीददारी करती है ,साल भर वो चीजें उनके यहाँ इधर-उधर लुढ़कती दिखाई पड़ती है ..फिर अगली दिवाली तक वो बेवजह बाइयों में बंट जाती है ,ना वो नौकरी करती हें ना पति की कमाई में कोई इजाफा,सुबह बारह बजे तक अलसाए पड़े रहना ,दिन का खाना-नहाना चार बजे तक, रात बारह बजे तक अकारण जागना उनकी दिन चर्या है उनकी फूह्ढ़ता की अन्नत कथा है रौशनी कहाँ नहीं करने की जरूरत है बताना मुश्किल होगा ...एक और मेरी अच्छी दोस्त ...अच्छे पद पर खासा कमाती है मेरी पसंद की कायल जो मेरे पास हो वो सब उसके पास होना चाहिए ..साडी -कपडों से लेकर ना जाने क्या-क्या ..इसमें कोई हर्ज भी नहीं..में कहती भी हूँ मुझे साथ ले चलो खरीदो मेरी पसंद से,नहीं अपनी खरीददारी गुप्त रखेंगी मुझे वितृष्णा होती है ...मुझे ये भी लगता है कि.कामो का संधान व्यवस्था से ही तो हो सकता है बजाय नक़ल से?एक और स्त्री का घर हमेशा बैठक में गीला तौलिया गीलेपन की बदबू के साथ महंगे चमकीले कुशन के बीच सिमटा हुआ फैला हुआ मिलेगा किचिन में पैर रखने की जगह नहीं, कहीं कटी हुई सब्जी खुली हुई तो, कहीं सिंक में झूटे बर्तनों का ढेर फ्रिज में बासी खाने के ढेरों डिब्बें ...कहीं दूध खुला हुआ तो कही गैस पर दाल सब्जी पैर पसारे हुए उनके यहाँ हमेशा मिल जायेंगे..वे .खासा कमाती है नौकर भी है फिर भी.....अपने ही बनाए हुए नर्क में जीने मरने की अभ्यस्त ऐसे कूड़े करकट के साथ जिन्दगी बिताते लोग..मुझे आर्श्चय होता है ...अपने रोजमर्रा के दायित्वों को पूरा किये बिना कैसे बाहरी काम कर पातें होंगे ....बर्ट्रेंड रस्सेल की "कान्क्वेस्ट" का अनुवाद जब पढ़ा तो लगा सच.हांसिल करना... जीतना अपने को, अपने बलबूते पर आसान है ..कठिन नहीं ...और उस आसानी में घर का शामिल होना जरूरी है वो भी रौशनी से भरा और ये कहना बिलकुल सही होगा की............ एकरसता से उब पैदा होती है ,फूह्ढ़ता से वितृष्णा ...इससे बचना ही चाहिए....और प्रेम से ऊर्जा ...उर्जा से क्रिया शीलता ,क्रिया शीलता से रौशनी और रौशनी से सुघड़ता ...जो हमारी चेतना को लगातार बींधती है ताकि हम-आप एक साफ दिल- दिमाग से जी पायें और लोगों को भी जीने दें ...
बहुत भारी होता है जीवन का सार मित्र,बुलाती सी चमक सुदूर के सितारों की,अंधेरों में डूबे तुझ से मांगते जवाब है ..अंधेरों से...अन्जोरे में निकल चल [मुक्तिबोध] अँधेरा और उसका मिथकीय चित्रण मुक्तिबोध की सभी रचनाओं में मिल जता है ..अज्ञान का अँधेरा व्यवस्था जन्य अँधेरा,मन के भीतर छिपे बैठे अँधेरे, सब पर मुक्तिबोध की द्रष्टि है ..अंधेरों में ही भय होता है पहचान खोने का जीवन लक्ष्य से भटकने का [दीपावली कि अनंत शुभकामनाएं ]

19 टिप्‍पणियां:

श्यामल सुमन ने कहा…

जीवन की व्यावहारिक सच्चाई को बखूबी समेटते हुए और जीने के नये आयामों की ओर सहज संकेत करते हुए आपका यह आलेख बहुत भाया। सुन्दर।

सादर
श्यामल सुमन

पी के शर्मा ने कहा…

बड़ा ही सटीक लेखन है आपका
जो भी पढ़ेगा वही सोचेगा
बात तो सही कही है
हो सकता है सुधार भी कर ले आपने आचरण में
और अगर कर लिया तो सच है
कि
आपका लेखन सार्थक हुआ

अनिल कान्त ने कहा…

सच कहूँ मुझे बहुत पसंद आया आपका लेख
एक सोच और एक समझ देता है आपका ये लेख

पी के शर्मा ने कहा…

आपके आलेख में वर्तनी की गलतियां हैं
प्‍लीज इनको सुधारें

P.N. Subramanian ने कहा…

सुन्दर चित्रण.अभी अभी हम मुंबई में अपने लघु भ्राता के घर थे. बड़े ओहदे पर पदस्थ है. बहू गुणवान है. शास्त्रीय संगीत में पारंगत., कालोनी के सभी बच्चों को पढाती है. भजन मंडली का नेतृत्व करती है, कुल मिलाकर बहुत अधिक व्यस्तता है.
घर बेहाल है

P.N. Subramanian ने कहा…

बहुत सुन्दर आलेख. अनुकरणीय. अब आपको अवसर मिला है की नए परिवेश में भी लोगों को ऐसे पुण्य कार्यों के लिए मार्गदर्शन दें.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया आलेख है।बधाई।

राज भाटिय़ा ने कहा…

विद्धु जी,आप को दोस्त बनाना खतर नाक है जी, आप तो सारी पोल खोल देगी:)आप ने बहुत सुंदर बात लिखी, लेकिन आप को हमारे यहां ऎसी कोई बात नही दिखेगी.्कभी हमारी साली जी के घर झांक कर देखे, आप को अपनी पोस्ट के लिये ओर भी बहुत सी सामग्री मिल जायेगी
मजा आ गया आप की पोस्ट पढ कर
धन्यवाद

रानी पात्रिक ने कहा…

क्या बात है। ये सब बाते सच है या बहुत सुन्दर कल्पना का ताना बाना बना कर आपने अपने दोस्तों के सर मढ़ डाला। जो भी हो, मज़ा आया।

Udan Tashtari ने कहा…

हुत पसंद आया आलेख. बधाई.

रंजू भाटिया ने कहा…

सच का सामना करवा दिया आपने जी इस लेख में ..सही में इस तरह से कई लोग मिल जायेंगे ,,

डॉ .अनुराग ने कहा…

इस दुनिया में बहुतेरे लोग है विधु जी तो लगभग अपनी पूरी उम्र गुजार देते है .बिना ये महसूस किये .की उन्होंने कितने लोगो को अपने लफ्जों या अपनी आदतों से खरोंचे दी है.... ओर ऐसा मूर्खतापन हठ कई बार पढ़े लिखे लोगो में भी होता है ....एक बार मन्नू भंडारी ने कही कहा था
"यदि इन्सान अपने सीमित दायरे में रहकर भी अपना काम इमानदारी से करे .तो वो इस देश ओर समाज दोनों के लिए बहुत कुछ कर सकता है "

ओर मै पूर्ण सहमत हूं इस बात से.....

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सुन्दर आलेख ..... सुन्दर CHITR के साथ . DEPAWALI की MANGAL KAAMNAAYEN ........

Unknown ने कहा…

I agree with u completely... tht until and unless your mind z dirty, one could not clean the enviornment of sorrounding...
very nice article.. beautiful woven in the golden threads of silver words...
all the best.. :)!!!!

ओम आर्य ने कहा…

बढ़ा दो अपनी लौ
कि पकड़ लूँ उसे मैं अपनी लौ से,

इससे पहले कि फकफका कर
बुझ जाए ये रिश्ता
आओ मिल के फ़िर से मना लें दिवाली !
दीपावली की हार्दिक शुभकामना के साथ
ओम आर्य

L.Goswami ने कहा…

अच्छा लगा आपके स्पस्ट विचार पढ़ कर, जाने किस कारन से संवेदनाएं मर सी गई है लोगों में.

Mita Das ने कहा…

vidhu ji namaskar.lekh achha hai purana lekh jo maa per lika hai use padh kr aasnu tham hi nahi rahe the.abhi 11 june ko meri maa mujhe chhod gai.sadhuvad.

के सी ने कहा…

बड़ी सुंदर बात कही है आपने. आज बहुत दिनों के बाद ही अवसर मिल पाया है पढ़ने का. साधुवाद !

shivraj gujar ने कहा…

bahut dinon ke baad aapke blog par aaya. bahut achhi rachana padane ko mili. badhai.