क्या वो इक्छाओं का परिविस्तार था .उच्चारित स्वरों में ,ना कह कर भी कितने गहरे उतर गई एक उम्र वसंत मेरे भीतर था ,वर्षा और शीत भी आग की लपट भी और उमस भी थी, साथ जीने की जीवनेछा धुंधले पृष्टों में दबी थी बीते कई मौसमों की पदचाप थी घर के जिस कोने में दिया जलता था धुंआ था जिसमे बनती-बिगडती आकृतियाँ थी सपने बागी थे बंद दरवाजों पर दस्तक थी .घुप्प अंधेरों के बावजूद दूर कहीं झिलमिल थी पास आती आवाजें थी, अचीन्ही राहों में फलित प्रार्थनाए थी रेशा-रेशा चित्रित था,बगीचें की घांस पर ठंडी ओस थी ,खिले फूलों की महक थी ,एक सफेद लिफाफे पर अगरबत्ती का पीलाजला हुआ कडुवा निशान था, में आउंगा तुम्हारे पास मन्त्र की मानिंद दोहराव था इन्द्रधनुष उस वक़्त उपस्थित था,समय ने आगाह किया था .यू ही हंसते-हंसते उदासी थी, नील स्वप्न्जल में हरी काई थी,पानी की सतह पर इक्छाओं के गले पंख थे तल में सीप से मोती नदारत था ,फिर भी प्रेम दीप्त समय में डूबती तृप्ति का अथाह था, तलघर की आखरी सीढ़ी थी ,तभी बसता था घर, जहाँ सुख की दोपहरी थी ,एक किस्सा था, जिसने छुआ था,एक घटना का समारंभ था,करवट बदलती सदी थी, और जुट पाया तभी तो जीने का प्रपंच था ,सलवटों भरी उदासी थी, भय की जड़ता थी, पत्ते खडकते थे,सप्तरिशियों से भरा आकाश था,कई हंसते सितारे थे कोई पुकारता था ,लय थी ,प्रेम करना जटिल था ,गरुडपुराण में कैद अगला-पिछला जनम था,चीजें साफ थी, पलते सपने थे ,निरापद थे , एक लम्बी चुप्पी थी ,दुर्दांत अभिलाषा थी ,तकलीफों से छिले निर्वासित दिन-रात थे ,एक सख्तशिला थी सीने में जमा थी ,कोशिशे बेकार थी बारिशों में यू ही भटकते थे जन्म दर जनम,कहा भी अनकहा था ,समय को निशेष देखती दो आँखें थी ,रिश्ते कागज़ के थे ,आग की लपटें थी ,चीजों को ढहना था ,एक तपिश थी शब्दों को जलना था,वहीँ म्रत्यु की पदचाप थी, चमत्कार था ,अनेक नामो में समाई उसकी उष्मा थी.
एक गध्य दृश्य गीत :- बहुत दिनों से, बहुत से शब्द बेठिकाने थे...इस ब्रह्माण्ड की धुल धक्कड़ में...
20 टिप्पणियां:
अभिव्यक्ति की नवीनता ने आकर्षित किया । एक एक वाक्यांश स्वतः में एक कथा की तरह अभिव्यक्त है ।
कहीं गहरे तक जाते हैं फिर उभर कर सामने आते से ये आपके शब्द दिल में कुछ पैदा सा करते हुए
you had written some new thoughts in a very new style... felt very good after reading it..
very nice
keep writing like this
congratulations
विधु जी ,
कबीरा पर आगमन का धन्यवाद ,अभारी हूं <
सचमुच चमत्कारिक लेख, यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है!
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विधु जी ,
आपको पहले भी पढा था तभी कायल हो गयी थी आपके लेखन की .....पिछले दिनों मेरे ब्लॉग पे किसी महिला ने कमेन्ट में कहा था की ये कोई कवितायेँ हैं कहीं से भी कोई गद्य का टुकडा उठा लिया और टुकड़े टुकड़े जोड़ लिया .....मैं नहीं मानती .....ये टुकड़े भी कहीं मन की गहराइयों से टूट कर निकलते हैं और जब जुड़ते तो उसमें कई मौसमों की पदचाप होती ,वर्षा और शीत भी आग होती ,सपने बागी होते फिर भी प्रेम दीप्त समय में डूबती तृप्ति का अथाह होता ....हर कोई नहीं समझ पाता इस भाषा को विधु जी ...
कोशिशें बेकार नहीं जायेगीं इस बारिश की
देखना इक नवांकुर जन्म लेगा धरती से ....!!
आपका लिखा हमेशा उस जगह पहुंचा देता है जहाँ से फिर कुछ कहना मूक कर देता है ..सच में कहा अनकहा हो जाता है ..
aapko niyamit padhti huun...vidhu ji
हार्दिक बधाई।
( Treasurer-S. T. )
August 19, 2009 5:31 PM
ब्लॉगर kshama ने कहा…
kshama said...
बिखरे सितारे ! ७) तानाशाह ज़माने !
पूजा की माँ, मासूमा भी, कैसी क़िस्मत लेके इस दुनियामे आयी थी? जब,जब उस औरत की बयानी सुनती हूँ, तो कराह उठती हूँ...
लाख ज़हमतें , हज़ार तोहमतें,
चलती रही,काँधों पे ढ़ोते हुए,
रातों की बारातें, दिनों के काफ़िले,
छत पर से गुज़रते रहे.....
वो अनारकली तो नही थी,
ना वो उसका सलीम ही,
तानाशाह रहे ज़माने,
रौशनी गुज़रती कहाँसे?
बंद झरोखे,बंद दरवाज़े,
क़िस्मत में लिखे थे तहखाने...
Aapke intezaar me hain,ye 'bikharte sitare'! Kitna simte-samete jaa sakte hain?
Aapki rachna to mere shabdon ke pare hai...harek pankti apne aapme mukammal arth samete hue hai..! Gazab..bas..ayee ek shabd hai!
विधु जी,
सर्वप्रथम आपका ह्रदय से आभार आप आई हमारे ब्लॉग पर और मेरा मान बढाया..धन्यवाद..
आपकी रचना को जब पढना शुरू किया तो, पहले कुछ असमंजस था, कोई प्रश्न था, एक खोज था, फिर धीरे-धीरे स्थिरता थी, लय था, जादू था, झुकाव था, लगाव था, और अंत में अनुराग के साथ आत्मसात था...
लेकिन अब एक आस्था है, विश्वास है कि आपकी रचना भाषा और शैली से समृद्ध है.....
aap bahut behtrin likhti hai ,title ke shado me hi bahut gahare bhav hai .blog par aayi shukriya dil se .
इस से पूर्व आया परन्तु ’ आभार प्रकट करते करते बिजली चली गई अतः बात अधूरी रह गई थी, आप ने अपनी टिप्पणी में जो ” कहीं किसी उदासी का उल्लेख किया है ,वह सही ही है , आप मेरी दूसरी रचना ’अन्तर्यात्री ’ को पढ़ें बहुत कुछ समझ में आ जायेगा ’ वैसे भी अकेली जीवन-यात्रा में छिपाने वाले लाख छिपायें लेकिन एक तन्हाई एक उदासी तो होती ही है ,जो झलक-झलक जाती ही है।
फ़िलहाल आप के किसी आलेख पर कुछ नही कह रहा हूं ,पहले कुछ कहने की योग्यता और उसके आधार पर कह सकने का अधिकार तो प्राप्त कर लूं ,अर्थात आप की पोस्टें ठीक से पढ़ तो लूं ।
एक एक शब्द अपने अपने विस्तार लिए बैठा है..आपकी शब्द संपदा अद्भुत है ....आपकी संवेदना भी उच्च स्तर की है ....आप पे कुछ कमेन्ट करने से पहले कई बार आपको पढता हूँ ओर सच कहूँ....हर बार हतप्रभ होता हूँ......
अद्भुत...हमेशा के लिए जमा रख ले ...अपने कमेन्ट बॉक्स में
एक-एक शब्द इन्द्रियों में गूंजता हुआ! अभिवयक्ति और संवेदनाओं का अद्भुत कमाल !
संजीदगी भरा पोस्ट ...साधुवाद ...
विधु जी ,
शुक्रिया....Miracle पर दस्तक देने का... मेरे ब्लॉग पर आपका हमेशा स्वागत है .आपको मेरे ब्लॉग का नाम पसंद आया उसके लिए तहे दिल से शुक्रिया....अब आप तीसरी शख्स है जिसे नाम पसंद आया है ..पहेला मैं और दूसरा, जिसके लिए नाम रखा और तीसरी आप ...क्या आपकी पत्रिका कि नेट पर उपलब्ध है ....arun misra.
arun.om3@gmail.com
विधु जी,
जीवनेच्छाओं के परे झांकने की एक बेहतरीन कोशिश / नये सन्दर्भों में परिभाषित करते हुये विचार।
पढ़ते हुये यह लगता है कि खो जाना चाहिये यूँ ही।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
samajh nahiN aata ise sundar gaddh kahuN ya sundar paddh par alag sa hai...nai nai si bhasha men udaasi shabd-shabd men bikhri hai...
हिमांशु जी,अनिल कान्त प्रिय सिया ,अन्यो नास्ति ,विनयजी आभार हरकीरत जी तुम्हारा आशीष ...कोशिशें बेकार नहीं जायेंगी इस बारिशें ...सर माथे पर ...रंजना ,पारुल,क्षमा अदा एवं ज्योति सिंह ,डॉ अनुराग नीरा ,मिरेकल ,मुकेश और भाई संजय ...कभी-कभी हमें अपना लिखा ही मुग्ध करता है जो लिखना था ,वो कब कैसे लिखा गया आप सभी का साथ है तो शब्दों और भाव की भी अहमियत बढ़ जाती है आभार
आप सभी को गणपति पर्व की असीम शुभ कामना
अद्भुत अभिवयक्ति और शब्द संयोजन !
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