बुधवार, 26 नवंबर 2008

कोष्टक मैं बंद दिसम्बर,फ्लूट पर गीत ,कभी -कभी,,प्रेम से बड़ी होती समझ की नफरत होजाए रोने गाने और प्रेम से


उसका स्वर हमेशा ही निर्णायक और निर्मम होता है,टाइम केलकुलेटिंग,सेल्फिश ...आधी रात को उचटी नींद के बाद उसने सोचा ,अपने आप से नाराज हो जाए ,लेकिन क्या होगा? इतना अनिश्चित कोई कैसे हो सकता है,ना किसी पत्ती की हरियाली ने उसे नम किया ना फूल ने खुश,ना गीत ने अभिभूत ,कच्चे अनार सा चटका तूरा,बेस्वाद मौसम उसके आँगन से गुजर गया,विरोध दर्ज नही हो पाया, करना भी नही ...प्रेम -विभ्रम या उस रंग मैं बुरी तरह डूब जाना क्या जरूरी था,...उन आंखों की पनीली चमक ऐसी ही की आपके अंहकार को परे कर दे,वो अंदाज ऐसा की आप सोचें की आप पर कोई दिलों जान से फिदा, लेकिन सतह से थोडा और गहरे उतरकर प्रेम से बड़ी होती समझ ने बकायदा ,उसे छोटा -पंखहीन आत्मा की तरह कर दिया,..पिछली सर्दियों मैं सावधानी से सहेजे-तह किए उनी गर्म कपड़े कभी ना मिटने वाले सलवटों के साथ पहने जाने को मजबूर होते,अफसोस पिछला सब कुछ स्पष्ट होने लगा इतने असम्प्रक्त होकर जीना की अन्दर धूनी की तरह रमे दुःख की आंच ताप महसूस ही ना हो और छोड़ देना किसी बीहड़ कोने पे और ,दोहराया गया बर्ह्मास्त्र हजारों बार,सारे सफल साधे गए अचूक निशानों के बाद विजेता तो बनना ही है ,ये कहते हुए की मुझे तुम्हारे फूलों ,गीतों ,और आंसुओं की फिक्र रहेगी उम्र भर और फिर जो नही सोचा जा सकता था वही सामने था, उबड़-खाबड़ पर घसीटते हुए स्याह अंधेरों मैं उजली सुबह का इन्तजार करते रह जाना ,ओस भीगी सुबह मैं नीले पंखो वाली चिडिया खुश तो जरूर करती है किंतु एक अज्ञात भय मन ही मन कुड-मुडाता है,कोष्टक मैं ,बंद दिसम्बर सामने है फ्लूट पर हर गीत अच्छा लगता है लेकिन खय्याम की धुन हमेशा तरोताजा ,...कभी-कभी नफरत होने लगती है इतने रोने गाने और प्रेम से आख़िर,....
सातवे आसमान में थे वे जब सितारों के गुच्छे उनकी हथेलियों में थे...

7 टिप्‍पणियां:

डॉ .अनुराग ने कहा…

फ़िर वही शब्दों का जादू ......

P.N. Subramanian ने कहा…

छायावाद से ओतप्रोत. बिल्कुल सही कहा अनुराग जी ने. शब्दों का मायाजाल. बाँसुरी वादक का चित्र बहुत ही सुंदर है.
http://mallar.wordpress.com

Unknown ने कहा…

उन आंखों की पनीली चमक ऐसी ही की आपके अंहकार को परे कर दे,वो अंदाज ऐसा की आप सोचें की आप पर कोई दिलों जान से फिदा, लेकिन सतह से थोडा और गहरे उतरकर प्रेम से बड़ी होती समझ ने बकायदा ,उसे छोटा -पंखहीन आत्मा की तरह कर दिया,..पिछली सर्दियों मैं सावधानी से सहेजे-तह किए उनी गर्म कपड़े कभी ना मिटने वाले सलवटों के साथ पहने जाने को मजबूर होते..

excellent vocablury...

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत ही सुंदर,एक सममोहन सा है आप के लेख मै.
धन्यवाद

Pawan Kumar ने कहा…

हद हो गयी. शब्दों में कितना जादू होता है कोई आपसे सीखे. सारे शब्द जैसे अपने मायने बदल कर नए रूप में ढल कर आपके सामने खडे हो जाते हैं और आप उन शब्दों को अपने सलीके और ज़रूरत के हिसाब से से चुनकर बस एक क्रम दे डालती हैं बाकी तो शब्द बोलते ही हैं......क्या खूबसूरत बेबाक बयानी है....क्या इमेजिनेसन है कमाल है .

मुंहफट ने कहा…

मुझे तुम्हारे फूलों ,गीतों ,और आंसुओं की फिक्र रहेगी उम्र भर .......देर से जान पाने, पढ़ पाने का खेद है मुझे. बहुत अच्छा लिखती हैं आप.

श्रुति अग्रवाल ने कहा…

विधु जी, चटखते अनार.....भावनाओं का बेहद खूबसूरत मायाजाल। कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए इतने सुंदर शब्द रूपी मोतियों की लड़ी। मैं आपकी कायल हूँ।