और हर संकेत समुद्र सा गहरा,
हमारे समीप का कण कण वसंत था,
और उल्लास की हर बार,एक और सूर्योदय,
और तुम
की जैसे गीत की कोई एक पंक्ति, बार बार दोहराई जाती सी,
तब सब कुछ मुठ्ठी मैं था और मैं,
मुठ्ठी मैं से रिसने का अर्थ तक नही जान पाया।
आज पुरानी डायरी खोली तो इस कविता का अंश दर्ज था। जो समय, मौका, दुःख और सुख से परे है। यह कविता,भिक्खुमोग्ग्लायन की अद्भुत प्रेम कविताओं से है।
13 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा िलखा है आपने । भाव को अिभव्यक्त करने की शािब्दक मेधा प्रभावशाली है ।
मैने भी अपने ब्लाग पर एक किवता िलखी है । समय हो तो पढें और प्रितिकर्या भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
बहुत भावपूर्ण..और लिखिये.
बहुत सुंदर। डायरी के ख़ज़ाने को और खोलिए।
वाह। क्या बात है।
शुक्रिया इस कविता को यहाँ बांटने के लिए ....अगर पूरी पढने को मिलती तो ......
ब्लॉग माध्यम है अपनी प्रतिभा को बहुर्मुखी करने का .आप तो सम्पादक है और वहा कुछ सीमायें होती है यहाँ तो खुला आकाश है .आपका स्वागत है .
जी शुक्रिया आप सभी का!
आपका ब्लॉग देखकर बहुत अच्छा लगा। कविता और भी अच्छी है। उम्मीद है हम अक्सर आपकी समृद्ध लेखनी से लाभान्वित होते रहेंगे.
wahhhhh!! samajh nahi paa raha is kalpna aur isse ubhre ehsaas ko kya shabd duin ki ye amar ho jaye ......
bahut sundar .......
aap to likhate raho, comments bahut aayenge. narayan narayan
तब सब कुछ मुठ्ठी मैं था और मैं,
मुठ्ठी मैं से रिसने का अर्थ तक नही जान पाया।
इतनी भावपूर्ण कविता उपलब्ध कराने का शुक्रिया. शुभकामनाएं.स्वागत मेरे ब्लॉग पर भी.
बहुत अच्छा िलखा है आपने ।
Very Very Nice. ब्लोगिंग जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. लिखते रहिये. दूसरों को राह दिखाते रहिये. आगे बढ़ते रहिये, अपने साथ-साथ औरों को भी आगे बढाते रहिये. शुभकामनाएं.
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साथ ही आप मेरे ब्लोग्स पर सादर आमंत्रित हैं. धन्यवाद.
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