रविवार, 26 अक्तूबर 2008

मनाओगे क्या तुम अपने को मेरे साथ, त्यौहारों से ज्यादा... "


ना मिलने के मुकाबिल जो हमे मिल जाता है उसे ही हम जानते हैं. विभक्त हुए बिना का जीवन जाने बिना, सुख के बिना का पर्व, मृत्यु के बिना का जीवन और हमारा मन। कहते है संसार की तीन चीजें कभी अपनी पहचान नहीं खोती - आकाश, धरती और मन! यदि मन में राग नहीं तो जीवन का मूल तत्व निर्जीव हो जाता है। कोई इसे अपशकुन कह सकता है, राग से अनुराग होता है तभी घर में बिना दीप के भी प्रकाश होता है, बिना पर्व के उत्सवी वातावरण। यूँ देखे तो मनुष्य का जन्म ही प्रकाश की खोज के लिए हुआ है। उसकी ऑंखें गर्भ से बहार आकर खुलती है सिकुड़ती है रौशनी के लिए, वो दीपक से मिले सूर्य से या बादलों के बीच झिलमिलाते चाँद से उसे बस प्रकाश चाहिए, अपने साथी के भीतर भी वह अपना प्रकाश पाना चाहता है - उसके सहारे जीना।

पुरूष ने सूर्यास्त के पश्चात् अंधेरे के भय को दूर करने के लिए शरण-स्थली जैसे आवर्तित प्रकाश के स्वरुप में स्त्री की खोज की थी, साथ मिलकर अग्नि के प्रकाश का दहन किया था, संध्या का वंदन किया था - तब ना उसे अधो वस्त्र की जरूरत थी ना उत्तरीय (ऊपर के वस्त्र) की थी या तो मात्र मन का प्रकाश उसकी निर्मल छवि थी, मन के किसी भी प्रारूप को कभी भी तो स्थिर नहीं किया जा सका है, ना आकाश, ना धरती, ना क्षितिज में, ना उसका मापदंड बनाया जा सका है। सच है मन ही काल और कालांतरित व्यवस्था - दोनों का निरपेक्ष दृष्टा होता है। यह मन ही है जो कभी न प्राप्त होने वाले सुख की परिकल्पना को भी बेहद अपना बना छोड़ता है। इसीलिए 'भवानी प्रसाद मिश्र' की कविता की उक्त पंक्तियाँ - "मनाओगे क्या तुम अपने को मेरे साथ, त्यौहारों से ज़्यादा" - इस उत्सवी वातावरण में भी शून्य और बेनाम होते जाते रिश्तों को मूल्यवान बनने में जुट जाती है, अपनी, निहायत भोली संभावनाओं के साथ इस लचर, शुष्क, बोनी और लिजलिजी व्यवस्था में एक गहरे अविश्वास के बावजूद मन के साथ.
-दीप पर्व की शुभकामनाएं!

3 टिप्‍पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

आपको व आपके परिवार को दीपावली पर हार्दिक शुभ कामनाएं ।
घुघूती बासूती

BrijmohanShrivastava ने कहा…

रचना में पूरा दर्शनशास्त्र भर दिया है

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

सच कहा आपने .

. मेरे ब्लॉग पर दस्तक दीजिये अच्छा लगे तो टीका भी अवश्य करें
pradeep manoria
ashoknagar (MP)
9425132060