शुक्रवार, 19 मई 2017

इस वर्तमान को अतीत होने से फिलवक्त बचाना चाहती हूँ,बस इतना ही तो चाहती हूँ

स वर्तमान को अतीत होने से फिलवक्त बचाना चाहती हूँ,बस इतना ही तो चाहती हूँ 

## और में चल पड़ती हूँ ,जंगलों की तरफ -
जंगलों के अंतिम विनाश के खिलाफ़ --
अपनी आत्मा की समूल शुद्धि -के लिए -
तुम्हारी स्मृति के गाढ़े हरियल होने को
जंगल की सुवासित देह को,पेड़ों की सुगठित गठन ,चमकीले पत्तों ,अनाम फूलों की जंगली खुशबूओं को ,
भरे पूरे गर्भा गूलर को ,चट्टान के सीने से लिपटी प्रेम पगी लत्तरों को आत्मसात करने 
चलते चलते - 
 देखती हूँ शहर के तालाब का अंतिम छोर लांघते, मछुआरों को जाल डाले 
कच्चे तूरे हरे सिंघाड़ों से लदी नाव को किनारे लगते हुए आहिस्ता -
और में चलती रहती हूँ ,गहरी नदियों ऊँचे पहाड़ों की सीमांत तक ,
खुद को तुम्हारी और चलते देखना-मानो तुम वहां हो -
'भीम बैठिका, की अंतिम चोटी से मॉरीशस की 'मुड़िया' चोटी तक
पूरा शहर टिमटिम जुगनूओं सा ,

में चाहती हूँ तुम्हे दिखाना अपनी आँख से,
सांस लेते शाल वृक्ष,सागौन वन वृक्षों को -
उनसे बात करते,उनमें निमग्न होना,रोजगार और शोर से परे,
बस इतना ही चाहती हूँ -
ताकि सुन पाओ गुन पाओ मुझे भी,एक अनुष्ठान की तरह -समझ पाओ मेरी साधारणता को -
चहकती वनस्पतियों के दिन है ये और उनकी सुगंध से भर दूं हथेलियों से तुम्हारी देह,  -चाहती हूँ
वहीँ कहीं आस -पास --धुँआती लकड़ी पे बनती सौंधी चाय के अस्वाद संग -गीली आँखों से
एक मुस्कान का बाहर आना --दृश्य से  
--उस वक़्त 
एक जीवन का बीत जाना  हो -वहाँ
पहाड़ी सीने पर उड़ते धुएँ से बनते धूसर बरसाती रंग में-एक भूरी चिड़िया का तिनका बनता घोसला -देखना
चट्टान के सीने पर खड़े निड़र पेड़,पत्थरों पे उकेरी प्रेम की प्रतिध्वनियां -जंगल की अनगूंज सुनना
मेरे धानी दुपट्टे से छनकर आती जंगली मेहँदी की खुशबू,और प्रेम में लीन वो काला जंगली खरगोशों का जोड़ा
,देखना शाम की ठंडक में,तुम्हारी आँखों के जुगनुओं को समेट लेना तभी,फिर देखना जंगली झरना -पहाड़ी ऊंचाई पे,
काँधे पर तुम्हारे,अपनी साँसों का दुशाला -ओढ़े सो जाना
बीच आधी रात,पूरी रात में खिलने वाले फूलों को देखना,देखते हुए --
सोचती हूँ -सुनूंगी तुमसे एक कविता -तुम्हारी-अलौकिक इच्छाओं से भरी
फिर अपने नाम का- 
 जाप- उच्चारण बार बार 
इस ब्रह्मांड के जड़ चेतन से निर्विवाद अलग थलग,संशय रहित,आत्मिक और कायिक निकटता में 
बस इतना ही तो चाहती हूँ --
में इस वर्तमान को अतीत होने से फिलवक्त बचाना चाहती हूँ
जो तुम्हे दिखाना है,उसे आत्मसात कर 
एक मुकम्मल जंगल से गुजर जाना चाहती हूँ -यकीन करो में,अपनी गवाह बन -सरसराती जंगली हवा की तरह 
ना लौटकर आने के लिए -
लेकिन थोड़ा ज्यादा चाहती हूँ -
बस इतना ही ---

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