सुनो माँ
तुम थी, तो थी हरियाली
और कोई जलन मालूम ना थी
बीच यात्रा में छूटा सा ----
तुम्हारा मौन ,अब भी आवाज़ लगाता है ''बेटा ''
ढेर से शब्दों के बावजूद अवाक -हूँ
माँ माँ माँ अनहद नाद की तरह ,गूंजती हो
भीतर -बाहर,उत्सव में दुःख में सुख में
आस-पास ,हरदम नेह का नीड़ बुनती सी तुम
महसूस होती हो
तुम पास हो ,ये अहसास है
इस कोलाहल में /इस शून्य में अपनों -अजनबियों में
फिर भी शेष हो ,मुझमें
माँ मुझे यकीन है तुम मुझे सुन रही हो
स्मृति जल में डूबते-उतराते ,बीते कई सालों में
सारे मौसमों में बीतती रही तुम
तुम्हारे ना होने पर कई दुःख आये और चले गए
कई सुख आये और -रह गये
तुम्हारी देह गंध -अब भी साढ़ीयों के ढेर में ताजा है
और उस चौड़े जरी के पाट वाली हरी साढी में तो तुम ज्यादा ही याद आती हो
पहनती हूँ जब-जब तुम्हारा स्पर्श जीवंत हो उठता है
इसके अलावा भी
दाल के छौंके में ,आम की मैथी लौंजी में
लाल मिर्च की चटनी में ,आटे बेसन के लड्डुओं में
खट्टी -मीठी सी तुम मौजूद हो
हर पल परछाई सी होती हो पास,
हमारी छोटी उपलब्धियों पर हमें विशिष्ट बना देने वाली माँ
तुम्हारे कुछ अनमोल शब्द /कुछ सीखें /सौगातें
तुम याद आती हो ता बस आती हो
पेड़ नहीं काटना /बाल नहीं काटना/गुरूवार को हल्दी का उबटन करना /केले के पेड़ को पूजना
सूर्य उपासना करना ---
मंत्रोचार की ध्वनि में
तुम्हारे निष्ठूर देवी देवताओं को पूजती हूँ आज भी
भरसक कोशिश करती हूँ उन्हें निभाना तुम्हारी खातिर
अक्सर रातों में जब नींद नहीं आती
आसमान से एक तारा चुन लेती हूँ -मान लेती हूँ तुम्हे
आँख भर आती है तब
इससे पहले की कोई आंसू इस लिखे पर गिरे
उससे पहले थाम लेती हो
मुझे यकीन है
सुनो माँ
तुम मुझे सुन रही हो
[अपनी माँ की स्मृति में आज अभी सुबह[
May 12 -2013]
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अभी ये शब्द ...जो छोड़ गई हमें सात साल पहले ]
4 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी रचना
शीर्षक को थोड़ा आकर्षक बनाया जा सकता था।
स्मृतियां सबसे बड़ा संबल भी होती हैं
स्मृतियों को उभारती कविता।
mahendrji kajal kumaar ji evamprveen ji abhaar aap sabhi kaa
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