- उसकी आवाज़ पिघल कर बारबार गीली होती जाती है.लेकिन कोई सुनने वाला नहीं अपनी ही आवाज़ उसे छिली हुई लगती है .यूकेलिप्टस की नुकीली पत्तियों से छनकर आती लहराती गीली हवा राहत देती है विक्स वेपोरब सी ठंडक ओर खुशबू दोनों . लगातार होती हुई बारिश में पत्ते जमीन पर फैली काई के साथ सड़ जाते हेँ ओर उनकी मामूली कसैली गंध जुबान की सतह से होती हुई दिमाग पर छा जाती है पूरे घर में इन दिनों गीलापन है दीवारों की नमी दिमाग पर भी निशान छोडती है,चीजों में वो बात नहीं जो अक्सर खुशक मौसम में हुआ करती है एक तो मौसम की मार दूसरे वैसे भी इन दिनों दिल दिमाग का सुकून छीना हुआ है ...लगता है मेरे शहर की बारिश उसके शहर पहुँच जाए दिल से दुआ करती हूँ आजकल वहाँ वैसे भी सूखा है एक चमकीला चेहरा दिमाग पर असर करता है टैरेस पर खड़े होकर देखो दूर तक जहाँ नजर जाती है एक शमी का पेड़ झूम झूम कर लहराता ख़ुशी जाहिर करता दिखाई देता है रात हुई मुसलाधार बारिश के बाद पत्ता-पत्ता धुला ओर साफ.. उन के सर से काले सिलेटी बादल गुर्राते गुजरते हेँ तेजी से... उनका शोर कानो को दुखाता है, डराता भी है. बारिश की बूंदे चेहरे पर पड़ती है आंसू ओर रोना मानों पानी के साथ घुल-मिल जाते हेँ चलो कोई जवाब तलब नहीं करेगा नीचे की तरफ देखो पानी की मोटी सी लहर दूसरे किनारे से बहती हुई सड़क पार करती दिखाई देती है ..जिसमे तेजी से घास तिनके मरे हुए पत्ते एक दूसरे से उलझते से बहते ओझल होते जाते हेँ, ये कल्पना ही तो है ...कुछ किसी बड़े से पेड़ के तने- तले वहीँ खाद हो जाने को मजबूर हो जायेंगे ओर कुछ किसी बड़े नाले या तालाब के मुहाने पर जाकर ठिठक कर पीछे मूड कर सोचेंगे ...एक जीवन था,जो कैसे बीता ...साथ छोडती लहर सी टूटती इक्षाएं मुंडेर पर इधर-उधर फैल जाती है शाम उतरने को है दोपहर से लगातार हुई बारिश शाम होते होते अपने पीछे एक गीली उदासी का इंतजाम कर जाती है ..कोई अन्दर के धुंधलके को पछारता है,ओर बाहर की ओर बुहारता है शाम को आखिर बीतना है ओर वो बीत जाती है यूं कुछ ना कुछ को तो बीतना ही है बस एक मुकम्मिल स्मर्ति ठहरी रहती है रात शुरू होना चाहती है ...नींद में डूबे शहर के अँधेरे में जहाँ पिछले आठ घंटे से बिजली गुल है ,एक कोने में सिमटा सिकुड़ा रौशनी का टुकडा पानी में सराबोर चमकता है .
- .है ना हैरानी? तेज रफ्तार वक्त का, गति निरपेक्ष हो जाना ..इस समय में पिछले समय का ठहर जाना स्लेटी शाम का हँसते ही जाना. बाहरी अँधेरे में एक सनातन भिक्षु मन की बंटी हुई दुनिया में डोलता है कई डर सताते हेँ एक साथ .दरवाजों पर नीले परदे कांपते हेँ सचमुच सच सा लगता था वो साथ अब छूट जाता है ओर फिर ..इस घटाटोप में कोई हाथ थाम लेता है .कहने को बहुत कुछ था तब भी अब भी दरअसल एक पूरा भाषा विज्ञान था ओर कहने के खतरे भी नहीं थे, उँगलियों में गंध का टुकडा लिए, लेकिन हम सोचते रहे संबंधों की बड़ी डोर से धरती ओर आकाश को बाँध लेना एक ही संवाद को दुहराते जाना ओर यह सोचते जाना की डूबने से पहले पानी के बीच किसी स्निग्ध फूल की तरह खिला था वो वक्त.. वो पानी पर घर उसकी ख्वाहिशों का घर था ....बारिश फिर बरसना शुरू करती है कुछ बूंदे बालों पर कुछ गालों पर हथेलियों से उन्हें रगड़ कर वो चेहरे पर फैला देती है एक ठंडक स्पर्श से दिल में पहुँचती है पार्क के दूसरी ओर की कालोनी में स्ट्रीट लाईट जल उठी है ....यहाँ भी पल दो पल में सब कुछ रोशन हो जाएगा पर लेकिन चमकदार पानी का चेहरा फिर भी स्याह ही रहेगा धूप निकलेगी कई दिनों की बारिश के बाद ..शायद कल
नदी नहीं पीती अपना जल ,पहाड़ नहीं खाते कभी अपनी हरियाली,कोयल नहीं कूकती कभी अपने लिए तब हम किसके लिए जीते हें[रमेश अनुपम ]
7 टिप्पणियां:
ये पोस्ट जब लिखी... पहले से कोई भूमिका मन में नहीं थी ..एक खाली सा दिन ओर बेवजह कि उदासी में एक पनीला सा दिन ..जिसमे सिवाय सोच के कुछ था ही नहीं ...गीले वक्त की भीगी बातें ..
किस अहसास को सहेज लूँ और किस को भूल जाऊं? ..
Very nice post.....
Aabhar!
Mere blog pr padhare.
मन को भी चाहिए एक सामूहिक अवकाश जिसके दोनों सिरों पर न हो कोई प्रशन, न कोई अपराध बोध . न हो रिश्ते जटिल .
काश पहले से पता हो उदास दिनों के आने का ताकि संजो कर रखे अपने जिरहबख्तर ......love your writing always.
oh..@anurag ji
सार्थक और सामयिक पोस्ट, आभार .
कृपया मेरी नवीनतम पोस्ट पर पधारें , अपनी प्रतिक्रिया दें , आभारी होऊंगा .
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