मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

एक दोपहर की शुरुआत.. - 15 दिसम्बर' 2010


"बस अब इस बहस को विराम मिलना चाहिए", उसने सोचा लेकिन वैसा हुआ नहीं.. जैसा उसने चाहा.. हर दिन की तरह, अल्सुबह की नरमी आँखों में भारती रही, दोपहर का सूरज चटकता रहा और सुरमई शाम का जाता उजाला स्वाद बन जीभ पर तैरता रहा.. जिस बीच कई दिनों से खुद से लापता रहने के बाद मौसम के चेहरे पर खुशियाँ तलाशने में जुटना और इस कवायद में एक स्वप्निल जगह का बनना और ठहर जाना.. सब कुछ के बावजूद खुद को पा लेने वाले अपने ही अंदाज़ में. लेकिन खुद को पाना कभी खुद से लापता रहने वाली लुका छिपी के बीच वाली जगह में अभिवादन और खेद सहित लौटी - लौटाई गयी इच्छाएं ठूस-ठूस कर एक नुकीले तार में पिरोकर टांग दी गयी थी... मजबूत, कमज़ोर, छोटी, बड़ी, इस या उस तरह की.. अब यदि उनमे से किसी एक इच्छा को उतार कर निकलना फिर टटोलने का मन हो तो बाकी को भी उतारना और फिर उन्ही रास्तों, पतझड़ी मौसम की उदासियों की तरह गुज़ारना होता, सच के झूट में तब्दील होता एक पहाड़.. जहाँ तक हांफते हुए दौड़ना, पहुंचना फिर लौटना.. सांसो की आवा-जाही के साथ तार से बिंधी इच्छाओं को उतारना- संवारना... एक कातर नज़र डालना और पलटकर फिर टांग देना उसी बेतरतीब झुण्ड में... शाम होते होते एक चश्मदीद पेड़ मुड़कर सलाम बजाता है, उसकी मजबूत टहनियां हिलती हैं, एक मुस्कराहट दिल से चेहरे तक आती है तेजी से.. इतनी की ऑंखें पनीली हो उठती हैं.. हवा में नमी घुलती है, कोई तेज क़दमों से नज़दीक आता है और अनदेखा किये ही बगल से गुज़रता है.. क्या लौटा जाये यहीं से? अभी इसी वक़्त और समय बीतता है, लौटते हुए बुरी तरह, एक बीती हुई गूंज फिर भी बच जाती है, बिन बटोरी कुछ आहटें मरून पश्मीना में लिपट जाती है, चुभन वाली ठंडक मौसम में हवा के साथ तैरती है.. अपने को बचाने की कोशिश में दोनों बाँहों को क्रास बनाते हुए अपने से लपेटना, नए सिरे से इस दुनिया में अपने को खपाने की निरंतर कोशिश करना और यहाँ-वहाँ लगातार कुछ ना कुछ होना - होते जाना, कोई पूर्णविराम नहीं... मुश्किलों के विरुद्ध कोई जिरहबख्तर भी नहीं, अपनी उदारता में चतुराई से जीना, कितनो को आता होगा ? कितनी चीज़ें खटकती हैं, और कितनी बेखटके स्मृति  के पार चली जाती है, नुकीले तार में अटकती हुई..  एक आरंभिक रंग गाढ़ा होता है फिर फीका पड़ता हुआ नीली धुंध में तब्दील होता है.. कुछ ईमानदार चेतावनियों की दस्तकें साल के अंत की तरह "ठक-ठक" करती चली जाती है, पिछले दिनों की तरह दिन का चलना, थकना और फिर थम जाना... खासा अँधेरा घिर आता है, इन दिनों वैसे भी शाम जल्दी आती है. घर से ढाई किलोमीटर दूर तक, उसे लौटना चाहिए.. एक टूटे हुए चौराहे के सामने सिकुड़-ती हवा के बीच घर का रास्ता देर तक याद नहीं आता, शारीर और आत्मा से बेदखल मन बेहद निरर्थक भाव से ढलान की तरफ बेप्रयास लुडकता है, मन ही मन बच जाने की मंगल प्रार्थनाएं बुदबुदाते हुए, अंतिम अंक.. अंतिम द्र्श्य में एक काला चाँद, काली रात में जलता है.. सिर्फ थोड़ी से रौशनी सन्नाटे के इर्द-गिर्द चकराती फिरती है जो इस बीच इस शहर में दरके हुए बहुत कुछ के बीच अद्रश्य होना चाहती है.. एक कठिन समय में सुनो - जिसे सरलता से नहीं सोचा जा सकता, ना पीछे को आगे, ना बीते को आज, ना वक्र को सरल, ना चुप्पी को कल-कल, ना अँधेरे को रोशन, ना दुःख को सुख, ना दूरी को यहाँ में, ना टूटे को जोड़ने में, सच में तब्दील कर सके ऐसी युक्ति है क्या...?

वक़्त चला जाता है,
वक़्त/ चला गया है/ हर जगह हाजिर था में;
लेकिन/ दस्तखत कही नहीं.. (-श्रीकांत वर्मा)

8 टिप्‍पणियां:

केवल राम ने कहा…

बहुत दिनों बाद आपको पढना अच्छा लगा .....शुक्रिया

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वक्त की नयी शुरुआत....

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर लेख जी काफ़ी दिनो बाद आप को देखा, धन्यवाद

डॉ .अनुराग ने कहा…

इतने अरसे आपकी कमी खलती है ....सफ्हो पर आप जिंदगी के रंग बिखेर उन्हें केनवस सा बना देती है ......जिसके रंग सपनीले से देर तक आस पास मंडराते रहते है फिर..ठहरे रहते है ......
लिखती रहिये ....इंतज़ार रहता है ...

रंजू भाटिया ने कहा…

वक़्त के नए अंदाज बहुत दिनों बाद आपका लिखा पढ़ और दिल पर वही असर दे गया जो अक्सर आपका लिखा हुआ पढके महसूस होता है ...

सहज समाधि आश्रम ने कहा…

एक बेहतरीन रचना ।
काबिले तारीफ़ शव्द संयोजन ।
बेहतरीन अनूठी कल्पना भावाव्यक्ति ।
सुन्दर भावाव्यक्ति । साधुवाद ।
satguru-satykikhoj.blogspot.com

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

bahu hi sundar prastuti...
*काव्य-कल्पना*

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

bahu hi sundar prastuti...
*काव्य-कल्पना*