शनिवार, 16 जनवरी 2010

शहर में जंगल, जंगल में एकांत पार्क, पार्क में सफ़ेद सिरस का पेड़... "Don't leave anything except your footprints"...

नए साल की पहली सुबह ,सड़क के दोनों ओर कोहरे में ढंके पेड़ अधमुंदी आँखों से सुबह की सैर पर निकले लोगों की धीमी पदचाप की आवाजों के साथ आगे बढ़ते क़दमों का स्वागत करते हैं, घास और पत्तियों पर से गुजरते एक ख़ास आवाज़,एक ख़ास खुशबू के साथ, सुबह होती ही जाती है... रेशमी और नम उजाले के साथ. देखे गए तमाम अनुभव भी कभी-कभी झूटे हो जाते हैं, सच क्या है दिल भी नहीं जान पाता .....सात महाद्वीपों का संसार मिलकर ....दिल पर ठक-ठक करता है लगातार ...चाहे ई.सी.जी. की रिपोर्ट ठीक-ठाक ही क्यों ना हो, और ठंडी ओस मानो हवा में तैरती ..."खुश रहो" कहती, गालों को थपथपाती हुई पीछे छूटती जाती है, रात भर सोई हुई,अलसाई पत्तियों को छूना शब्दातीत होता है. जिन्दगी में कुछ सलीकें दूसरों के लिए भी सीखना पड़ता है, यक़ीनन इस सलीकेदार सच के साथ जीना आसान होता जाता है... पाले हुए मुगालते बेघर करना... और चलते जाना... वही राग, वही जगह, वही रास्ता... अकादमी के चारों ओर रोजाना सैर पर निकल जाना... अपनी आदत में शामिल करना, कभी ना जाओ तो? - हालांकि ऐसा कम ही होता है, तो अपना ही अवज्ञा भाव चिंता में डालता है, बड़ा हुआ कोलोस्ट्रोल कम कैसे हो?... किश्तों में जमा बड़ी खुशियाँ --- रोजाना थोड़ा-थोड़ा सा खर्च करना होता है. अनश्वर अभिलाषा में कुछ सोचना, कुछ छोड़ना, कुछ तह लगाकर अलग रख देना, चिरंतन प्रवाह में जब सब कुछ छूटता ही जाता है और सूर्योदय के थोड़ा देर बाद तक घर लौटना, सजीली सैर सुकून देती है, सुन्दर छोटे-बड़े रास्ते डाल पर खिले, अबीर-गुलाल से फूल पुकारते हैं, कहते ही रहते हैं, "लौट आओ" . पलट कर देखो तो लगता है एक उदास भाव से निहार रहे हों और संवाद ख़त्म नहीं होता उनसे, जन्म-जन्मान्तर तक रहेगा ये तय है... कोई बात बीच में ही छोड़ दिए जाने की अकुलाहट में खोजना भीतरी एकांत को...
शहर के एकांत पार्क में... दस एकड़ से ज्यादा में फैला 'एकांत पार्क' भोपाल शहर के बीचों बीच में सैरगाहों के लिए विकसित किये गये दूसरे पार्कों से सबसे अधिक मनमोहक उत्कृष्ट है, इसकी विशेषता ही ये है की ये एक तरह से शहर में जंगल है और इस जंगल में अवस्थित मेरा एकांत पार्क... राजधानी परियोजना वालों ने इसकी प्राकृतिक ख़ूबसूरती को बिना छेड़-छाड़ के विकसित किया है, हर किस्म के जंगली पेड़ों के बीच से छोटी बड़ी पगडण्डी तो कहीं छोटे बड़े टीले हैं, कहीं बांसों के झुरमुट तो कहीं आकाश में छितराए सर उठाये देवदारु के पेड़ों का पूरा कुनबा मिल जाएगा और कहीं वनस्पतियों-औषधियों के पौधो-पेड़ों को गोलाकार बैठे हुए बतियाते हुए देखा जा सकता है... अद्भूत लगता है यहाँ आकर, शहर के इस जंगल में. सुबह की सैर करने वाले हर उम्र के लोग मिल जायेंगे यहाँ, पार्किंग में खडी भारी भरकम गाड़ियों से लेकर साईकिल तक से अंदाजा बखूबी लगया जा सकता है कि लोग अपने स्वास्थ्य को लेकर कितना सतर्क हो चले हैं... अलग अलग जाती, वर्ण, रंग, किस्म के पेड़, ऊँचे-नीचे पथरीले गहरे समतल रास्तों पर खड़े हर पल आपसे गुफ्तगू करने को तैयार मिलेंगे, आप उनके सीने से लग कर रो सकतें हैं, उनसे अपनी खुशियाँ बाँट सकतें हैं, उनके साथ खिलखिला सकतें हैं, उनकी टहनियों को छू कर-छेड़ कर उत्फुल्ल भी और बड़े-बूढ़े पीपल बरगद को प्रणाम कर आशीर्वाद भी ले सकते हैं.
एकांत पार्क में चारों ओर फैली निर्जनता सरसराती हुई हल्की हवा की लहरे एक शान्ति राग आलापती सुनाई देती है... जब सब साथ छोड़ देतें हैं यहाँ तक की शब्द भी और आप बाहरी दुनिया के साथ अपने संबंधों के खुरदरेपन के दौरान दयनीय निरीह हो जातें हैं, उसी क्षण अपनी सम्पूर्ण गरिमा के साथ वो आपको थाम लेतें हैं. एक तसल्ली, एक विस्मित, एक उल्लासित भाव लिए जब आप उन्हें छूतें हैं... उनमें एकात्म होतें हैं तभी,
आप एकांत पार्क की भूल-भुलईया में खो भी सकतें हो, लेकिन चौड़ी हो या संकरी हर पगडण्डी थोड़ा आगे जाकर एक घुमाव के बाद या दूर तक ले जाने के बाद आपको मुख्य द्वार तक लौटा ही लाती है. आपको अनवरत कोमल बनाने, आपमें हरदम सदेक्षा-सदभाव उपजाने का प्रयास, ऐसा ही अप्रतिम कौशल है शहर के इस जंगल में... जिसमें हर पल विपुल हो विस्तार लेता है... मेरा रास्ता ठीक ४५ मिनिट बाद मेनगेट पर ख़त्म होता है, जिन्दगी हर पल व्यस्त होती ही जाती है, हर दिन वो नहीं होता जो पिछला था, पार्क के अंतिम छोर पर अनगिन घुमावों दर्श्यों उबड़-खाबड़, समतल रास्तों के बाद मिलता है-- 'सफेद सिरस का पेड़' -- अपनी कोमल काया के साथ, जिसके नीचे ओस भीगी,बिछी, काली बजरी पर पड़ी छोटी नुकीली हरी पीली पत्तियां नक्काशी की तरह जड़ी दिखाई देती हैं. 'सफेद सिरस' के चारों ओर गोलाकार राह से प्रदक्षिणा के साथ आगे बढ़ते ही सूरज की कच्ची हंसी सर पर आ बिखरती है... तभी 'सफेद सिरस' खिलखिला उठता है, उलीचता है सुख... कई-कई रिश्तें, घटनाओं का साथ छोड़कर स्मृति में बदलते हैं और समृतियों के संविधान में कोई रद्दो-बदल नहीं होता, एक गाढ़ी आद्रता भयंकर सर्दी में अन्दर तक जम कर रह जाती है, खरोचों तब भी नहीं पिघलती... दिल धडकता है... ज़ोरों से, और लम्बी साँस के साथ फिर सामान्य स्थिति में आ जाता है. मन मुख्य द्वार के भीतरी प्रवेश के साथ ही बूढ़े कचनार के सीने पर टंगी तख्ती पर लिखा टटोलता है, "डोंट लीव एनिथिंग्स एक्सेप्ट युवर फूट प्रिंट्स"-- यही सच है अपने ही वाक्य का रिक्त स्थान मन ही मन भरने की भरसक कोशिश करते हुए लौटना... "कल फिर मिलेंगे"... उनकी खुशआमदी की दुआ करते...

तुम्हारा आंचल कन्धों से खिसकता है, फासले तय होतें है... महज शब्द से शब्द तक, होटों पर उभरता है चुम्बन...
नदी ठिठकती है, पेंड़ो से गिरती पत्ती दम लेती है... जुबान में बदलता शब्द, खो जाता है प्राश्चित में...
(- कवि सुदीप बनर्जी, "आइने दर आइने" संग्रह से...)

7 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

ठंडी ओस मानो हवा में तैरती ..."खुश रहो" कहती, गालों को थपथपाती हुई पीछे छूटती जाती है, रात भर सोई हुई,अलसाई पत्तियों को छूना शब्दातीत होता है. जिन्दगी में कुछ सलीकें दूसरों के लिए भी सीखना पड़ता है, यक़ीनन इस सलीकेदार सच के साथ जीना आसान होता जाता है... पाले हुए मुगालते बेघर करना... और चलते जाना.
"ताना बाना" पर पहली बार आना - सार्थक लगा.

उम्मतें ने कहा…

सुन्दर प्रविष्टि

neera ने कहा…

Beautiful! walk, talk, emotions, expressions and the foot prints...

पूर्णिमा वर्मन ने कहा…

खूब अच्छा लिखती हैं विधु, एक ललित निबंध अभिव्यक्ति के लिए भी भेजिए।

अनिल कान्त ने कहा…

एक बार भोपाल गया हूँ.
अबकी बार जो जाने का अवसर मिला तो इस जंगलनुमा पार्क में अवश्य जाउँगा

रंजू भाटिया ने कहा…

"डोंट लीव एनिथिंग्स एक्सेप्ट युवर फूट प्रिंट्स"-- यही सच है अपने ही वाक्य का रिक्त स्थान मन ही मन भरने की भरसक कोशिश करते हुए लौटना... "कल फिर मिलेंगे"..आपने तो वहां स्वयम को पहुंचा दिया ..कमाल का लिखती है आप ..शुक्रिया

डॉ .अनुराग ने कहा…

जिन्दगी हर पल व्यस्त होती ही जाती है, हर दिन वो नहीं होता जो पिछला था,

सच कहा!!!!



सूरज की कच्ची हंसी सर पर आ बिखरती है... तभी 'सफेद सिरस' खिलखिला उठता है, उलीचता है सुख... कई-कई रिश्तें, घटनाओं का साथ छोड़कर स्मृति में बदलते हैं और समृतियों के संविधान में कोई रद्दो-बदल नहीं होता,
आखिरी पंक्तिया अपने आप में मुकम्मल बयान है ...कुछ चौंधता है .मन में .



एक गाढ़ी आद्रता भयंकर सर्दी में अन्दर तक जम कर रह जाती है, खरोचों तब भी नहीं पिघलती... दिल धडकता है... ज़ोरों से, और लम्बी साँस के साथ फिर सामान्य स्थिति में आ जाता है.

दिल कितनी परेशानिया उठाता है न रोज !!!!



मन मुख्य द्वार के भीतरी प्रवेश के साथ ही बूढ़े कचनार के सीने पर टंगी तख्ती पर लिखा टटोलता है, "डोंट लीव एनिथिंग्स एक्सेप्ट युवर फूट प्रिंट्स"-- यही सच है अपने ही वाक्य का रिक्त स्थान मन ही मन भरने की भरसक कोशिश करते हुए लौटना...

हिंदी ब्लॉग की सांस को मेरी नजर में जिन लोगो ने प्योर ओक्सिजन दी है ....उसी फेरहिस्त में आप भी है ....बहुत कुछ देखते बूझते जब निराशा होती है तब नजर उन लोगो पर जाती है जो यहाँ बेहतर पढने के लिए आये है ...यानी अच्छे लोगो का सक्रिय रहना ज्यादा महत्वपूर्ण है ...इसलिए सेहत ओर किसी व्यस्तता को छोड़ आप निराशा के कारण लिखना स्थगित न कीजिये .......






तुम्हारा आंचल कन्धों से खिसकता है, फासले तय होता है... महज शब्द से शब्द तक, होटों पर उभरता है चुम्बन...
नदी ठिठकती है, पेंड़ो से गिरती पत्ती दम लेती है... जुबान में बदलता शब्द, खो जाता है प्राश्चित में...

and this is treat....


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