यूं तो वसंत आया है
कहने को ---
ठिठुरते शिशिर की शीत के बाद ,
इस बार थोडा जल्दी ,
लेकिन यकीन है ..इस-बार खराब मौसम ,
और इतने खराब वक़्त में भी ,
उस छोर से बंधा होगा कोई गुनगुना पल
जैसे नाव बंधी होती है ,एक गहरी आश्व्शति में ,
दिखने वाली शांत सी सतह पर ,
बावजूद पानी पर डोलती ...
बार-बार शुरू करती हूँ सोचना ,
शुरू कहाँ से हुआ ,जिसका कोई अंत नहीं ,
चाहे जीतना छूटे पीछे.. उतना ही आगे भी ,
उलट कर ''अपनापन'' ताज़ी निलाई से लिखता है,
लिख-लिख फैलाता है कोई हुनरमंद हाथों से ....
उसके निरंकुश फैसले पढ़े नहीं जाते ,
घिस-घिस बीत ही जाते हेँ हजार दिन ,
कुछ रेशमी दिन पीछे और धूल सने दिन-रात आगे खड़े मिलतें हेँ
कितना झूटा है ये ,रोने-रोने को हो आता अभिमान बार-बार
और सुरक्षित रहतें हेँ अभाव के तकादे ,
सिरजा दिया वो सब...बूँद-बूँद छींट-छींट हरहरा आये थे जो,
निस्संग मन इन धूसर पीले दिनों से पूछ बैठता है..
कहाँ जाना था तुम्हे ?उस पहाड़ी पर ,
या किसी जंगल में --जहां दहकने शुरू हुए हेँ अभी-अभी पलाश
या वहां जहां सीखा तुमने ,
निपट अंधेरों से ऊपर आने का सफल अभ्यास,
सच एक-एक सीढ़ी ,
द्रश्य का बदलना
सवेंदी सूचकांक सूचित करता है ,
चीजों के लुढकने के संकेत ...
धैर्य खोता है ,धारणाएं टूटती है...
कुछ पल्ले नहीं पड़ता ,
कितना छोटा था मेरा सुख
इस बड़ी और गोल सी दुनिया में
बस समा जाए इस मौसम इस वक़्त में
उगते सूरज की रौशनी में, लहरों में पछाड़ खाता समंदर और ज़रा सा प्रेम
बंधा होगा उस छोर से जरूर बहुत कुछ अब भी ...
ताकि ,जो कहा जाना है -वो जो कहने से छूट जाता है ...
अक्सर वही सब कुछ कह देने को,
इस वसंत में ...
कहाँ से ढूँढ के लायें हम फन की सनद, तू अपने शब्द के पत्थर मेरे हिसाब में रख..! (-जमील कुरैशी)
12 टिप्पणियां:
कितना छोटा था मेरा सुख
इस बड़ी और गोल सी दुनिया में
बस समा जाए इस मौसम इस वक़्त में
उगते सूरज की रौशनी में, लहरों में पछाड़ खाता समंदर और ज़रा सा प्रेम
बंधा होगा उस छोर से जरूर बहुत कुछ अब भी ...
ताकि ,जो कहा जाना है -वो जो कहने से छूट जाता है ...
अक्सर वही सब कुछ कह देने को,
इस वसंत में ...
फिर वही शब्दों का जादू.....फिर वही अंदाज़ ........ओर आखिर में लिखे शब्द "बेमिसाल "है......
गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाऎँ
कहाँ से ढूँढ के लायें हम फन की सनद,
तू अपने शब्द के पत्थर मेरे हिसाब में रख..!
हमेशा की तरह बहुत सुंदर लगी आप की रचना
धन्यवाद
umda abhivyakti.
कितना छोटा था मेरा सुख
इस बड़ी और गोल सी दुनिया में .मगर सुख था तो.बसंत चाहे कितनी भी देर के लिए हो जब ठिठुरते शिशिर की शीत के बाद आती है चाहे जल्दी से या देर से अपने साथ ले आती है प्रकृति की खुश्बुए तमाम.बहुत अपना सा लगा आपकी कविता का बसंत.
उगते सूरज की रौशनी में, लहरों में पछाड़ खाता समंदर और ज़रा सा प्रेम
बंधा होगा उस छोर से जरूर बहुत कुछ अब भी ...
ताकि ,जो कहा जाना है -वो जो कहने से छूट जाता है ...
अक्सर वही सब कुछ कह देने को,
इस वसंत में ...
आपके शब्दों का जादू दूर तक असर करता है ........ भावों की उथल पुथल मन को कभी शांत और कभी प्यास जगाती है .......... सुंदर रचना ........
Very nice poem on spring... After so many days, I visited here... and this line -
"जैसे नाव बंधी होती है ,एक गहरी आश्व्शति में ,
दिखने वाली शांत सी सतह पर ,
बावजूद पानी पर डोलती ..."
picturisque and beautiful !
लेकिन यकीन है ..इस-बार खराब मौसम ,और इतने खराब वक़्त में भी ,उस छोर से बंधा होगा कोई गुनगुना पल जैसे नाव बंधी होती है ,एक गहरी आश्व्शति में ,दिखने वाली शांत सी सतह पर ,बावजूद पानी पर डोलती ...बार-बार शुरू करती हूँ सोचना ,शुरू कहाँ से हुआ ,जिसका कोई अंत नहीं ,चाहे जीतना छूटे पीछे.. उतना ही आगे भी
बिखरी हुयी जिन्दगी में भी उम्मीद की किरण को जगाये रखने का जादू भरा मन्त्र सा लग रहा है .... बहुत कुछ सिमटा दिया है थोड़े से शब्दों में ....
आपके शब्दों का जादू अपने वश में करने जैसा है. डूब जाते हैं ....
कितने कोमल भाव एक साथ उकेरे हैं. वसंत पंचमी हमारी जन्म तिथि थी. लगता है आपको किसीने बता दिया! आभार
हवा की तरह, जीवन के हर आलाप को समेटे कविता, प्रक्रति, समय, आत्मा को बाँध गुनगुने पलों के बीच छोड़ जाती है..
...उलट कर ''अपनापन'' ताज़ी निलाई से लिखता है,
लिख-लिख फैलाता है कोई हुनरमंद हाथों से ....
उसके निरंकुश फैसले पढ़े नहीं जाते ,
घिस-घिस बीत ही जाते हेँ हजार दिन ,
कुछ रेशमी दिन पीछे और धूल सने दिन-रात आगे खड़े मिलतें हेँ...
..वाह,क्या बात है!..उम्दा पोस्ट.
behtreen post hai.vidhu ji aap ise apni kavitao se bhar den.blog ban jate hain, bhar nahi pate...
shubhkamnayen.
ashok maanwaani,bhopal
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