कोई भीड़ मैं आसानी से कैसे गुम हो सकता है ,वो भी तब-जब प्रेम एक जरूरी ताक़त की तरह मौजूदा चीजों को नए सिरे से देख रहा हो चाहे ये रह रहकर खो जाना या मिलना कितना ही मुश्किल या आसन हो और,साथ ही अच्छी पुरानी से शुरुआत करना ,ये वक्त खुश होने के निर्णय लिए जाने की ही तरह था... अपनी नाव तूफान से बचा कर ले आने की मानिंद,और निराशा- उदासियों की तह लगा कर गठरी बनाकर सिरहाने रख दिए जाने की कठिन मेहनत...फिर भी रात गहराते जाने के साथ गठाने खुलती जाती है ,जाने कितने वसंत-पतझर झरते ही जाते है, एकाध सूखे पत्ते का नुकीला रेशा-तिनका आंखों मैं कुडमुडाता है ---तुम रो रही हो ,नही तो ,रोया तो अकेले मैं जाता है --वो गीला पन सूखे-पीले और कुछ-कुछ लाल ताम्बई रंग में पड़ गए पत्तों की खडखडाहट के साथ अनन्त मैं उड़ता ही जाता है, कोई कितना और कहाँ तक समेटे,-कोई पता -घर-ठिकाना तो मिले---रास्ते भी तो निरापद हो जातें हैं अक्सर जिन पर चलते-चलते सुनाई देते शब्द -दिल के जाने किस हिस्से में दब जातें हैं -दरारें भरने लगती हैं ,लेकिन एक बारिश होते ही उनसे फिर नई कोंपलें उमीदों से झाँकने लगती हैं ...वो मोड़ आज भी हर शाम मिल ही जाता है ,जब ऐसे ही किसी मौसम में उसके शहर में बारिश हुई थी मोबाइल पर गुनगुनी आवाज़ लहराई...जानती हो आज मेरे शहर में बारिश हुई,अभी भी हो रही है बारिश में भीगी खुशी...बारिश और खुशी दोनों उसकी आवाज़ में किस्से की तरह थी,उसके बाद सांवली मिटटी की सौंधी खुशबू सा ही घुलने-मिलने वाला असीम, कभी ना ख़त्म होने वाला आकाश था---एक वक्त होता है जब अपने में बदलाव की सारी गुंजाइशें ख़त्म हो जाती है चेहरे पर एक अचाही बेचारगी और एक लंबा फासला साफ दिखाई पड़ जाता है ,कभी उसी चेहरे पर नीला बादल शिद्दत से उतर आता था,साधारण और विशिष्ट को मजबूती से थाम लेने वाली आँखें ---दिमाग के दायरे से एक लम्बी सुरंग गुजरती है,अन्धेरें में इत्मीनान से पडा इन्तजार रौशनी की पतली लकीर सा झांकता है ।यूँ तो सारी चीजें अपनी जगह ठिकाने पर रहती थी॥फिर भी जाने कैसे ठोकर लगी और जरूरी चीजें बेठिकाने होकर रह गई जो कुछ बीच राह मिला --बीच राह इधर-उधर हो गया आई .एस आई मार्का रिश्ते भी प्रमाणित होने की सूचि की प्रतीक्षा में दर्ज हो कर रह गए ...अपने ही निंदक और प्रशंसक होते-होते एक असंगत समय की और लौटा ले चलने की कोशिश कभी सफल तो कभी असफल हो जाती है ,दिकत्त यही नही -उसके ना होने पर भी होने की है और जाने क्या हुआ ,कितने बादल गरजे ,कितनी बिजली चमकी ,कितनी बे मौसमी बारिश हुई ,नाजाने कितने नदी -ताल भर गएँ होंगे उस साल नही पता ,सारे सूखे पत्ते गीले होकर ,सिमट कर ,टूटकर ,तार-तार बह गए ...क्या ये याद दिलाना होगा अब ,अपने आप को कभी -कभी सहूलियत भी देना होता है ,जो आसान नहीहोता चीजों के प्रति आस्थाओं को पैना करना,मन ही मन तकलीफों और उमीदों को जहाँ जैसा हो वहीँ छोड़ना -पकड़ना... ये वसंत भी फीका ही गुजरेगा मान लेती हूँ ,कुछ सूखे पत्ते जिन्दगी में दर्ज हो-हर्ज ही क्या है ...जिन्दगी चाहे जितनी हरी हो,हालांकि मौसम के टूटकर गिरते पत्तों में पुरानी उदासियाँ जज्ब है प्रेम करते हुए चुप रहने की तरह जो हर शाम जरूरत -बेजरूरत गमकती ख़स की खुशबु के साथ तनी चली आती है,एक नीली उदासी सिरहाने फिर भी बची रहती है, उसकी गठान नही खुलती शायद किसी और जनम में खुले..मियाँ मल्लहार में निबद्ध बेगम अख्तर की पुरअसर आवाज़ मन ही मन सीमेंट गारे रेत की ईंट दर ईंट जमाती है ....छत से दिखलाई पड़ते पार्क में खडा सिंदूरी फूलों से टंका अलग -थलग नुकीला सेमल का पेड़ -पेड़ के तने पर नाखूनों से लिखा जाने किसका नाम ...सपर्श की बुनावट में हरा ही रहता है,क्रिकेट खेलते बच्चों की गेंद उपरी शाखाओं से टकरा कर नीचे आती है पेड़ की इक्का -दुक्का बची-खुची पत्तियां झडती हुई जमीन पर बिछती जाती है ,शायद अब- अभी इन पर कोई आहट हो उसके आने की .....
जो नही है उसके इन्तजार की तरह /जो नही/होगा उसकी /उमीदों की तरह........मंगलेश डबराल
36 टिप्पणियां:
कितना सुंदर लिखती हैं आप....बहुत अच्छा लगता है पढने पर।
बहुत सुंदर लगा यह यादो का झरोखा.
धन्यवाद
प्रेम करते हुए चुप रहना...?.
बेहतरीन शब्द चित्र...
आभार इस प्रस्तुति के लिए.
prem karte hue chup rahnaa...
apke shabdon se prem karte hue....
आपको अपनी किताब छपवानी चाहिए मेरा तो यही मत है, मेरी इस टिप्पणी के बात औरों के मत की प्रतीक्षा में!
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गुलाबी कोंपलें
चाँद, बादल और शाम
प्रेम करते हुए चुप रहने की तरह जो हर शाम जरूरत -बेजरूरत गमकती ख़स की खुशबु के साथ तनी चली आती है,एक नीली उदासी सिरहाने फिर भी बची रहती है, लाजवाब निशब्द कर देने वाली पंक्तियाँ है यह ..प्रेम का चुप कहना ही बहुत कुछ कह जाता है ...बेहतरीन प्रस्तुती शुक्रिया
क वक्त होता है जब अपने में बदलाव की सारी गुंजाइशें ख़त्म हो जाती है चेहरे पर एक अचाही बेचारगी और एक लंबा फासला साफ दिखाई पड़ जाता है ,कभी उसी चेहरे पर नीला बादल शिद्दत से उतर आता था,साधारण और विशिष्ट को मजबूती से थाम लेने वाली आँखें ---दिमाग के दायरे से एक लम्बी सुरंग गुजरती है,अन्धेरें में इत्मीनान से पडा इन्तजार रौशनी की पतली लकीर सा झांकता है ।"
आपको पढ़ना जैसे खामोशी को सुनना है .....ओर देर तक सुनते रहने है.देर तक.......
---तुम रो रही हो ,नही तो ,रोया तो अकेले मैं जाता है
roya bheed meN bhi jaata hai agar koi bheed meN akela mahsus karta ho to...
कोई भीड़ मैं आसानी से कैसे गुम हो सकता है ,वो भी तब-…….
ye lekh nahin poori kavita hai,apne men bahut ankahe rahasya samete hue, aisa lagta hai pyar ko bahut shiddat jiya hai , saheja hai, aur chup rahkar saha hai. behtareen lekh. aap mere blog par aain comments kiye aur mere followers men apna naam joda aapka hardik swagat aur dhanyawaad.
...अपने ही निंदक और प्रशंसक होते-होते एक असंगत समय की और लौटा ले चलने की कोशिश कभी सफल तो कभी असफल हो जाती है.
अच्छी एवं गंभीर रचना .
बेहद भावूक और हमेशा की तरह प्रकृति के करीब खीचें हुए विजूअल्स है। शब्द चित्र की इस विधा में आप पारंगत ही नही बल्कि विशेषज्ञ भी है। दिल के करीब की रचनाओं का निर्माण करती है। अभी किसी ने सुझाव दिया है कि आपकी किताब आनी चाहिए इस पर गम्भीरता से सोचना चाहिए। मेरे से कुछ बन पड़े तो बताइए। बहुत-बहुत मुबारकबादों के साथ
behtreen.........
ab kya likhu, chahta to tha ki apni tippani me kuchh likhu magar mujhe nahi lagta ki is par sivay tareef karne ke alava kuchh doosra bhi likha jaa sakta he.
badhai.
संगीता जी,राज भाटिया जी,शायदा,अजीतजी ,भी समीर,दुष्यंत,विनयजी,रंजना,डॉ,अनुराग जी,संजय ग्रोवर जी,स्वपन जी,अमिताभ प्रिय्दार्शिजी,,अमिताभ श्रीवास्तव जी,....आपसभी का तहे दिल से शुक्रिया पिछले १५ दिनों से जरूरत से ज्यादा व्यस्त हूँ ,घरेलू और बाहरी मुश्किलों के साथ कई ढेर सी चीजों का दवाब बना हुआ है ,आप सभी की पोस्ट इत्मीनान से पढूंगी---कल से ...३ मार्च को इम्फाल जाना है ..महिला पत्रकारों की एक वर्कशॉप है...लौटना १२मार्च तक होगा...अपने अनुभव के साथ किसी नई पोस्ट पर...मेरे कम्प्यूटर के दिमाग भी इस बीच सातवें आसमान पर थे ....सो चाह कर भी आप सभी से रूबरू नही हो सकी ...माफी दें..आभार
वहुत ही सुन्दर लिखती है आप। बधाई।
बहुत खूब लिखा है एक बिम्ब बहुत पसंद आया "अन्धेरें में इत्मीनान से पडा इन्तजार रौशनी की पतली लकीर सा झांकता है "
बेहतरीन प्रस्तुति. ऐसा लगा जैसे एक लम्बी कविता का रसास्वादन कर रहे हों इम्फाल को ठीक से देखियेगा. हम आप के भरोसे हैं. आभार.
कविता का आनंद लिए शब्द चित्र.आनंद आ गया.
विधु ,आप बहुत ही सुंदर और मर्मस्पर्शी लेखन करती हैं .दुर्भग्य से अब तक आपको पढने का सुयोग नही बन पाया था .
ये वसंत भी फीका ही गुजरेगा मान लेती हूँ ,कुछ सूखे पत्ते जिन्दगी में दर्ज हो-हर्ज ही क्या है ...जिन्दगी चाहे जितनी हरी हो,हालांकि मौसम के टूटकर गिरते पत्तों में पुरानी उदासियाँ जज्ब है प्रेम करते हुए चुप रहने की तरह.
मन कैसा- कैसा हो जाता है बहुत ही अच्छा .
... अत्यंत प्रसंशनीय अभिव्यक्ति है।
भावनाओं से ओत-प्रोत! बहुत सुंदर प्रस्तुति है।
महावीर शर्मा
बहुत सुंदर भाव युक्त रचना.....अच्छा लगा पढकर, बहुत सुंदर !!
शुभकामनाएं........ढेरो बधाई कुबूल करें....
अति सुंदर रचना
आपका लिखा हुआ पढ़कर दिल को सुकून मिलता है ...बहुत ही प्रभावशाली है
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
बहुत ही सुन्दर रचना. बस ज़ज्बा बरक़रार रखें. आभार.
हे प्रभु तेरा पंथ....किशोर चौधरी जी,पी एन सुब्रमन्यम जी ,सीमा रानी,श्याम जी भाई महावीर,देव जी, बृजमोहनजी,और अनिल कान्त एवं ,करुना निधि जी.आपभी का बेहद सम्मान पूर्वक धन्यवाद...
मोतियों जैसे आकर्षक शब्द गहरे तक संवेदित करते हैं आपके लेखन में।
बेहद रोचक प्रसंग आपने छेड़ा है पढ़कर बहुत अच्छा लगा । आपको धन्यवाद
क्या बात है शैली भी बढ़िया, और लेखन भी उमदा।
कहते हैं न कि जहां कोई सम्बन्ध हो वहां कोई क्षमा का स्थान नहीं होता .व्यस्त होने पर लाजिमी है कि हम जो जरुरी होता है वही पहले करते हैं .आपने भी वही किया. आज मैं ब्लॉग में कुछ नया तलाशने आया था. खैर अब कल के बाद फिर होगा पदार्पण .
लेकिन एक बारिश होते ही उनसे फिर नई कोंपलें उमीदों से झाँकने लगती हैं
एक वक्त होता है जब अपने में बदलाव की सारी गुंजाइशें ख़त्म हो जाती है चेहरे पर एक अचाही बेचारगी और एक लंबा फासला साफ दिखाई पड़ जाता है
जिन्दगी चाहे जितनी हरी हो,हालांकि मौसम के टूटकर गिरते पत्तों में पुरानी उदासियाँ जज्ब है प्रेम करते हुए चुप रहने की तरह जो हर शाम जरूरत -बेजरूरत गमकती ख़स की खुशबु के साथ तनी चली आती है,एक नीली उदासी सिरहाने फिर भी बची रहती है, उसकी गठान नही खुलती शायद किसी और जनम में खुले..
aap kahege ki meri hi sari post utaar di aapne. nahi bhai ye wo panktiyaan hain jo baar-baar padhe jaane par bhi utni taza rahti hain, jitna pahali baar padhate sanay thi.
आपको परिवार सहित होली पर्व की हार्दिक बधाई और घणी रामराम.
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ
कोई भीड़ में आसानी से कैसे गम हो सकता है ,
वो भी तब जब प्रेम एक जरूरी ताक़त की तरह मौजूदा चीजों को नए सिरे से देख रहा हो ........
अब इस के बाद तो gum होना ही था ...
भीड़ में नहीं, बल्कि भावनाओं के अथाह समुन्दर में .... और ये ....
क्या ये याद दिलाना जरूरी है...मन ही मन तकलीफों और उम्मीदों को जहाँ जैसा हो
छोड़ना-पकड़ना ..........
वाह !!
बधाई स्वीकारें . . . . .
---मुफलिस---
aapki nai post ka intjar hai
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