गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

देला वाढी के जंगलों से गुजरते हुए और जंगल बेखबर....


देला वाढी के जंगलों से गुजरते हुए देखती हूँ
घुमाव दार सड़कें ,बेनाम पेड़ ,
जंगली हवा तिलिस्मी धूप... ,
मुरझाये बूढे सूखे,लाल और पीले पत्ते ,
कांपती जुबाने लिए बतियाते,इन जंगलों मैं
अट जातें हैं ,किसी जादुई गिरफ्त से
आते-जाते आंखों मैं ,ओझल होता है ,
शाम का सूरज ,पहाडियों के पार,
इन जंगलों से शायद कल फिर गुजरना पड़े ,
तो भी रहेंगे जंगल बेखबर,

दुनिया कहेगी मुझे उजालों का देवता,मैं उस मुकाम पर हूँ जहाँ रौशनी सी है जफर सिरोंजवी
भोपाल से ६५ किलोमीटर दूर एक पिकनिक स्पॉट ,देला वाढी से लौटकर..

13 टिप्‍पणियां:

रंजना ने कहा…

waah ! sundar abhivyakti.

डॉ .अनुराग ने कहा…

नही वे बेखबर नही रहते .कभी संकोच छोड़ उन्हें जोर से आवाज देकर देखे.....

महेंद्र मिश्र.... ने कहा…

लीक से हटकर भावपूर्ण सुंदर रचना . बधाई.

पारुल "पुखराज" ने कहा…

जंगली हवा तिलिस्मी धूप...bahut khuub..

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

घुमाव दार सड़कें ,बेनाम पेड़ ,
जंगली हवा तिलिस्मी धूप... ,

बहुत लाजवाब !

राम राम !

अमिताभ मीत ने कहा…

Bahut khuub. The overall effect of the post is striking. Compelling ....

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

एक बार कुछ नये हरे पत्तों पर भी लिखें. और भी अच्छा लगेगा.

sarita argarey ने कहा…

बेहतरीन रचना । शब्दकार साधारण सी जान पडने वाली चीज़ों में भी प्राण फ़ूंकने के सामर्थ्य रखता है ।
अद्भुत ....।

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर कविता, कभी इन जंगलो से बात करो, बिलकुल शांत प्यारे से लगते है, हमारे यहां बहुत है, ओर मै अकसर शहर की व्जाय इ की तरफ़ जाता हु, अच्छा लगता है.

धन्यवाद

विधुल्लता ने कहा…

रंजना जी अनुराग भाई,महेंद्र मिश्रा जी,ताऊ जी ,भाई मीत जी कामन मेन जी सरिता और राज भाटिया जी ...आपका स्नेह सर आंखों पर ,कई बार आप लोगों की पोस्ट नजर अंदाज हो जाती है और मैं कोई टिपण्णीभी नही कर पाती हूँ ..इसके अनेक कारण हैं...लेकिन पढ़ती जरूर हूँ ...जैसे आज ही अनुराग जी और सरिता की पोस्ट पढ़ी ...कोशिश करती हूँ ...लेकिन कई दफे टेक्निकली मुश्किल भी आती है ...और समयहमेशा कम होता है

Bahadur Patel ने कहा…

achchha chitra hai.sundar.

vijay kumar sappatti ने कहा…

aapne itni achi nazm kahi ,aur itni sundar photo ke saath .. bhaavpoorn ...

aapko bahut badhai ..

vijay
poemsofvijay.blogspot.com

श्रुति अग्रवाल ने कहा…

जंगल की खामोशी में अजब तिलिस्म घुला रहता है। आप एक बार फिर वहाँ जाओ जोर से चिल्लाओं, पुकारों..वे तुरंत आपको अपनी खबर देंगे। आपके हाल-चाल भी पूछेंगे। सबसे खास बात वो कहेंगे चिल्लाकर मुझे बचाओ ....कहीं ऐसा न हो अगली बार जब आप आओ मैं गुमनाम हो जाऊँ...मेरी जगह सीमेंट का जंगल खड़ा नजर आए।