वो पहचान पुरानी नही थी,थोडी बहुत सतही ..जब वो उसे जान रही थी,वो उसके शहरसे२हजार मील की दूरी पर था,जिन्दगी मैं जोखिम हार जीत ,जय पराजय,आशंका संशय,और प्रेम प्रसंग के बीच से आते हुए अनुभव की तरह उन दिनों वह अपने को वैसे भी फेलिसे बोएर से ज्यादा तवज्जो दे रही थी,और उससे भी अधिक जान और समझ रही थी,हांलांकि अब चिट्ठियों का ज़माना नही रहा,दिन मैं दो चार बार बात होजाती थी उससे,वो उसके बारे मैं सब कुछ जान लेना चाहता था....जब वो बेवजह एक दूसरे का ख्याल रख रहे थे जरूरी और गैर जरूरी चीजों के बीच सार्थक -कभी निरर्थक फिर जूनून की हद तक बहुत कुछ घटा भीतर बाहर सब कुछ ठीक-ठाक,सुखद छःमहीनो तक ...पर वो ,वोन गोंग ना बन सका ना वो उसके अदभूत चित्रों मैं ढल पाई,ना कभी वो उसकी हथेली पर जलती शमा देख पाई,अपनी अंतर्यात्राओं मैं दोनों गुम होते गए,तब तक उसकी उससे एक भी मुलाक़ात नही हो पाई थी जब हुई तो लगा निरंतर असुरक्षा की भावना डर के रूप मैं उसके अस्तित्व का हिस्सा बन गई जिसने उसे सोच-असोच के बीच अधर मैं अनिर्णायक स्थिति मैं अपने को छोड़ देने पर मजबूर कर दिया होगा शायद ...?चांस की बात थी जब वो बर्लिन मैं थी कुछ समय के लिए,वहां की अदभूत जादुई शाम मैं उसने उससे बात की, एक अतिरेक ही था तब,अपने मनोभावों का प्रक्षेपण वो उसमे ढूँढती रही ,करोड़ों मील दूर से ...कुछ भीतरी चेतावनियों के बावजूद ,और देर रात जब बर्लिन मैं दुनिया के सबसे बड़े मॉल का-डे -वे, मैं वो अपनी साथी मित्रों के साथ शोपिंग कर रही थी उसने ग्रांड कुवीस की देविदोफफ़ कॉफी का बड़ा सा जार खरीदा उसके दिमाग मैं इस खरीददारी का ख़याल इसलिए भी आया की पिछले छः माह मैं वो जान गई थी वो जबरदस्त कॉफी का शौकीन है इंडिया लौटने पर जार सुरक्षित रहा, और फिर एक दिन वो उसके शहर मैं उसके घर मैं उसके सामने था....जो कॉफी बर्लिन से सिर्फ उसी के लिए ली गई थी,आल्हाद के पल, कई रंग डूबते -उतराते रहे,उसके जेहन मैं ,एक संकोच ,एक अनिवर्चनीय सुख उनकी आसक्त हथेलियों मैं एक निरुपाय शाम थी .....उसका कॉफी पीने से इनकार शहर मैं अगले चार-पाँच दिन और ठहरने ,फिर कभी फुरसत मैं साथ -कॉफी पीने,और बिना बताये -मिले लौट जाना .....बीच का अन्तराल उलझन भरा था.....कुछ स्वाद खुशबूओं की तरह संग-साथ की चाह रखते हैं समय बीत जाता है बिना राग द्वेष के,कुछ चीजें ठौर हीन होकर रह जाती हैं ,फिर भी ...किसी मोड़ पर कोई आत्मीय मिल ही जाता है ...ऐसी ही एक शाम उसे अपने बागीचे मैं कॉफी ब्राउन फूल खिले हुए दिखे, कुछ अव्यक्त दुखों की तरह आत्मा को थपकी देते हुए, टूटे पूल से कोई संवाद उधर तक जाकर लौटने की संभावना नही थी,बर्लिन की वो शाम तब तक एक जिद्द ,एक निराशा के साथ अचाहे उसके सामने आ गई ,नाजाने कितनी संवेदनाओं के साथ खरीदी गई वो कॉफी,शिकायत ना वक्त से ना अपने से ,उसी शाम बड़ी शिद्दत से उसने एक बड़ा मग भर कर कॉफी बनाई ,सच मुच दुनिया की बेहतरीन स्वाद वाली वो कॉफी .....उसके हिस्से की भी ,अद्भूत सुगंध भरी और ये भी सच है इस दुनिया मैं सिर्फ वो ही उस स्वाद और सुगंध को महसूस कर सकता है
इस कहानी मैं इतना ही सच है की कॉफी खरीदी गई थी लेकिन अपने लिए. गर इसमे किसी लड़के/प्रेमी/या वोन गोंग जैसे व्यक्ति को सच माना जायेगा तो ..सार्थक होगा
7 टिप्पणियां:
सुन्दर कथा. पूरे समय बांधे रखा अपने प्रवाह में. कॉफी की खुशबू तो आ ही गई.
अच्छी लगी।
"कुछ स्वाद खुशबूओं की तरह संग-साथ की चाह रखते हैं समय बीत जाता है बिना राग द्वेष के,कुछ चीजें ठौर हीन होकर रह जाती हैं ,फिर भी ...किसी मोड़ पर कोई आत्मीय मिल ही जाता है ...ऐसी ही एक शाम उसे अपने बागीचे मैं कॉफी ब्राउन फूल खिले हुए दिखे, कुछ अव्यक्त दुखों की तरह आत्मा को थपकी देते हुए, टूटे पूल से कोई संवाद उधर तक जाकर लौटने की संभावना नही थी,बर्लिन की वो शाम तब तक एक जिद्द ,एक निराशा के साथ अचाहे उसके सामने आ गई ,नाजाने कितनी संवेदनाओं के साथ खरीदी गई वो कॉफी,शिकायत ना वक्त से ना अपने से ,उसी शाम बड़ी शिद्दत से उसने एक बड़ा मग भर कर कॉफी बनाई ,सच मुच दुनिया की बेहतरीन स्वाद वाली वो कॉफी .....उसके हिस्से की भी ,अद्भूत सुगंध भरी और ये भी सच है इस दुनिया मैं सिर्फ वो ही उस स्वाद और सुगंध को महसूस कर सकता है"
bohot khoob!
काफी की महक सी भर गई है मन में .....कुछ ब्लोगर मुझे बेहद प्रभावित कर रहे है .आपका लेखन उनमे एक है ...सच मुच!
nice blog and very nice work ji
Shyari Is Here Visit Jauru Karo Ji
http://www.discobhangra.com/shayari/sad-shayri/
Etc...........
achha laga..bhawnao ko aapne jis tarah net ke panno par ukera hai ..wakai ye kabiletarif hain...likhte rahiye...
पहली बार आने का मौका मिला आपके ब्लॉग पर, आपकी कुछ पिछली पोस्ट भी पढ़ी। आपने साहित्यिक अंदाज में कथा लिखी है, पढ़कर आनंद आ गया। शुभकामनाएँ।
एक टिप्पणी भेजें