मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

एक रिपोतार्ज़ ख़त..अजरा तुम कहाँ हो?

अजरा तुम जहाँ हो.....


घर लौटी तो चार पाँच घंटे का एकांत है मेरे इर्द गिर्द तुम ही तुम घूम रही हो याद है ग़ालिब फैज़ तोल्स्तोय शरत यहाँ तक की शिव पुराण भी बहुधा हम साथ साथ पढ़ते थे शिव पुराण माँ तुम्हे कितने सटीक ढंग से समझाती थी ,लेकिन सच बताऊँ माँ की कई बातें उनके इतने पढ़े लिखे होने और साफ नजरिये के बावजूद,मैं नही जान पाई जैसे की जब भी तुम आती वो अंदर बुलाकर तुम्हे कांच के बर्तनों मैं ही खाने पीने की चीजें देने की हिदायतें देती और तुम्हारे जाने के बाद उन्हें गर्म पानी से साफ करने या किचिन के पीछे रखवाने तक और भी बहुत कुछ,जो इस्लाम और हिंदू मैं विभेद करती है शायद उन पर उनका कट्टर ब्राहमण होना उस वक्त हावी होजाता था उन पर बेहद गुस्सा आता लेकिन एक तरह से उनकी हुकूमत मैं जिन्दगी जीने के अलावा कुछ आता भी तो नही था,फिर भी माँ के प्यार मैं कोई कमी नही थी, और फिर एक बार उनकी अनुपस्थिति मैं तुमने भाभी की खूबसुरत साढी पहनी बिंदी लगाई जाने कैसे उन्हें पता चल गया तुम छह महीनो तक घर नही आई वो खामियाजा मुझे भुगतना पढा,भाभी ने ही किसी कडुवाहट के तहत तुम्हे बताया था ,बस उस एक छोटे सेहमारे बीच आए अवरोध के अलावा कभी कुछ नही हुआ,तुम भूगोल की और मैं हिन्दी की छात्रा,तुम मैं जो खूबियाँ थी मैं उन पर दिलोंजान से फिदा थी तुम चुप्पा और गंभीर किस्म की और मैं तुमसे उलट,फिर भी हमारी तुम्हारी रुचियाँ एक सी थी,तुम्हे मेरे यहाँ बेसन भरी मिर्ची कोथ्म्बीर की वरी और ककडी का थालीपीठ ,लहसून का थेसा बेहद पसंद था बस माँ तुम पर यहीं जयादा मेहरबान होती और भरपेट से भी अधिक खिलाती थी,


यूँ जिन्दगी मैं कई चीजों के कोई मायने नही होते अजरा लेकिन इतनी लम्बीचौडी जिन्दगी मैं कई लोग मिलते बिछड़ते हैं कभी फर्क पड़ता है और कभी नही, तुम याद आई तो बस आती चली गई मेरे और तुम्हारे इस किस्से मैं बीता हुआ बहुत कुछ ऐसा भी है जिसे हम चाह कर भी नही लौटा पायेंगे तुम इसे कभी पढो शायद..वो तुम्हारा बेवफा प्रेमी पिछले हफ्ते बुक्स वर्ल्ड पे यदि नही मिलता तो मैं तुम्हे ऐसे ही थोडा बहुत याद करके भूल भाल जाती ,वो अपने दो अब्लू गब्लू से बच्चों के साथ था,मैंने उसे हिकारत से देखा पर उसे कोई फर्क नही पढा,बेशर्मी की हँसी के साथ वो बोला और कैसी हैं आप ,कुछ बोलने के पहले ही उसकी कश्मीरी सी दिखने वाली बीवी ने मेरी और देखा इतवार की वजह से भीड़ भी थीऔर जाहिर है मैं कुछ जवाब दिए बिना निकल आई,सच अजरा वो तब भी तुम्हारे काबिल नही था,तुम कितना रोई थी और मेरा गुस्सा ये था की तुम रोजाना मिलती रही फिर भी मुझे कानो कान ख़बर नही होने दी फिर भी मैंने तुम्हे समझाया था नाहक उस सडियल के लिए रो रही हो,तुम्हारी पसंद पे मैं अफसोस करने के सिवाय कर ही क्या सकती थी,.....

2 टिप्‍पणियां:

रंजना ने कहा…

आपका लेख बड़ा ही भावुक है.सचमुच स्नेह का सम्बन्ध जात पांत उम्र बिरादरी इन सब से ऊपर है.

डॉ .अनुराग ने कहा…

अंदाजे ब्यान खूब है ओर दिलचस्प भी....